कृष्ण के प्रेम में पड़ी ब्रजबालाओं पर उद्धव का ज्ञान बेअसर रहा. आखिर कवि को कहना पड़ा कि ‘ए ब्रजबाला सबै एक सी, कूपही में यहां भांग पड़ी है.’ सार्वजनिक कुएं में भांग घुल जाये, तो सारी नगरी के बौराने और मर्यादाओं के भंग होने का खतरा पैदा हो जाता है.
पार्टियों के प्रत्याशी चयन में कुछ ऐसी ही स्थिति दिख रही है. चुनावी राजनीति के कुएं में भ्रष्टाचार और अपराध की भांग घुल रही है. जीत के लिए पार्टियां न तो दागियों से परहेज कर रही हैं, न ही बागियों से. एक सप्ताह पहले तक दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी ने कुल 469 उम्मीदवार घोषित किये थे और पारदर्शिता की पैरोकार नागरिक संस्थाओं ने इनमें से 280 उम्मीदवारों के हलफनामे के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि 84 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें 36 तो ऐसे हैं, जिनके विरुद्ध हत्या और अपहरण सरीखे गंभीर अपराध के मामले चल रहे हैं. बात सिर्फ दागियों की नहीं, राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी है.
पुराने राजनेता भी टिकट पाने के लिए रातो-रात पलटी मार रहे हैं, बगैर इस बात की चिंता किये कि निष्ठा का बदलाव उनकी निजी ईमानदारी के प्रति आशंका पैदा कर सकता है. पार्टियां भी चुनावी जंग जीतने के लिए उन्हें गले लगाने से नहीं हिचक रहीं, भले ही इससे सार्वजनिक मर्यादा की हानि होती हो. कुल मिलाकर लोकतंत्र का महासमर सजने से पहले बेताल फिर से वापस उसी डाल पर जा बैठा लगता है, जहां से उसे भगाने की कोशिश नागरिक संस्थाओं, सुप्रीम कोर्ट और जनांदोलनों ने की थी. भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन की मांग ने जोर पकड़ा तो लोकपाल बिल को समवेत स्वर से मंजूरी देकर उसकी ऐसी काट निकाली कि सांप भी मर जाये, लाठी भी न टूटे. बात अब भी वहीं अटकी है कि लोकपाल को चुने कौन?
सुप्रीम कोर्ट ने सजायाफ्ता सांसद-विधायकों को चुनाव से बाहर रखने का फैसला सुनाया, तो पार्टियों ने संसदीय व्यवस्था देकर इसे नकारा. पार्टियों को आरटीआइ के घेरे में लाने की बात चली, तो उसे भी नकारा गया. विडंबना यह है कि मतदाताओं के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता से भागने की जुगत करनेवाली यही पार्टियां सक्षम शासन के जरिये देश के चहुंमुखी विकास का वादा कर रही हैं. ऐसे में हानि लोकतंत्र की है. अब फैसला आपके हाथ में है!