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EXCLUSIVE INTERVIEW नरेंद्र मोदी सरकार में सबका नहीं सिर्फ कॉरपोरेट का विकास : मल्लिकार्जुन खडगे

2014 का आम चुनाव उम्मीदों के सैलाब के बीच लड़ा गया था. और, इन उम्मीदों के केंद्र में थे नरेंद्र मोदी. अब मोदी सरकार ने एक साल पूरे कर लिये हैं. इस मौके पर सरकार अपनी उपलब्धियों को बताने के लिए देश भर में 200 रैलियां कर रही है. केंद्रीय मंत्री हर राज्य तक पहुंच […]

2014 का आम चुनाव उम्मीदों के सैलाब के बीच लड़ा गया था. और, इन उम्मीदों के केंद्र में थे नरेंद्र मोदी. अब मोदी सरकार ने एक साल पूरे कर लिये हैं. इस मौके पर सरकार अपनी उपलब्धियों को बताने के लिए देश भर में 200 रैलियां कर रही है. केंद्रीय मंत्री हर राज्य तक पहुंच रहे हैं.

वे दावा कर रहे हैं कि बरसों बाद देश में प्रधानमंत्री कार्यालय का इकबाल बहाल हुआ है. शासन के ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार पर पूर्ण विराम लग गया है. काला धन लाने के लिए पहली बार कोई सरकार इतनी गंभीरता से कोशिश कर रही है. लेकिन क्या विपक्ष भी सरकार के कामकाज को उसी तरह देख रहा है, जैसा कि सरकार दावा कर रही है? यह जानने-समझने के लिए प्रभात खबर के दिल्ली के ब्यूरो प्रमुख अंजनी कुमार सिंह ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष,मल्लिकार्जुनखड़गे से विशेष बातचीत की. खड़गे दूसरी बार लोकसभा सांसद बने हैं. इससे पहले वह कर्नाटक की राजनीति का बड़ा नाम रहे हैं. पिछली केंद्र सरकार में वह रेल मंत्री भी रहे थे. आइए देखते हैं कि विभिन्न सवालों पर क्या कहा खड़गे ने मोदी सरकार के बारे में.

मोदी सरकार के एक साल के इस कार्यकाल को आप किस रूप में देखते हैं?

पिछले एक साल के कार्यकाल को देखें, तो मुझे कहीं से भी नहीं लगता है कि मोदी सरकार ने एक साल में कुछ ऐसा किया है, जिसे बताया जा सके. इस एक साल में देश बदहाल रहा है. साल भर पहले उन्होंने जो वादे किये थे, उनमें से किसी पर अमल नहीं किया जा सका है. कुछ वादे तो ऐसे थे, जिस पर उन्हें सत्ता मिली. मसलन, विदेशों में पड़े काले धन को लाने के बाद प्रति परिवार को 15 लाख रुपये मिलने का दावा. भ्रष्टाचार का मुद्दा. लेकिन जब चुनाव जीत कर आये, तो एक साल बाद उन वादों को चुनावी जुमला करार देने लगे. मोदी सरकार ने 100 दिनों में विदेशों से काला धन लाने की बात कही थी.
उस समय भी हमलोग कहते थे कि विदेशों से काला धन लाना इतना आसान नहीं है, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते होते हैं, कुछ कानूनी प्रावधान होते हैं, जिन्हें पूरा करने के बाद ही काला धन वापस लाया जा सकता है. लेकिन, तब भाजपा की ओर से कांग्रेस को बदनाम करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जाते थे. आज एक साल बीत गया फिर भी काला धन नहीं आया. एक भी भारतीय परिवार के खाते में 15 लाख रुपया नहीं गया. भारत की गरीबी नहीं मिटी. जो वादा 100 दिनों में पूरा करने की बात कही गयी थी, 365 दिनों से अधिक होने के बाद भी मोदी सरकार उसे निभाने में असफल रही है. यह सरकार की विफलता है.

‘स्वच्छ भारत’ का नारा उन्होंने दिया. लेकिन इस अभियान के लिए न कोई बजट है और न ही कोई अन्य खास प्रावधान. सरकार लोगों से कहती है अपना घर साफ रखें, गली-मोहल्ले साफ रखें, गंदगी न फैलायें, सार्वजनिक जगहों पर कूड़ा मत डालें, यह सब तो बचपन में ही शिक्षक, माता-पिता सिखाते हैं. सरकार इस दिशा में क्या कर रही है, उसे यह बताना चाहिए. सरकार को अपनी कार्ययोजना स्पष्ट करनी चाहिए, लेकिन वह अपनी बात बताने की जगह आम आदमी को सिर्फ तरह-तरह की सलाह दे रही है. जबकि यूपीए सरकार के ‘भारत निर्माण कार्यक्रम’ में पानी, स्वच्छता, शौचालय आदि के लिए बजट में प्रावधान किये गये थे. सरकार ने ‘आदर्श ग्राम’ का नारा दिया. लेकिन इसके लिए भी बजट में किसी तरह का प्रावधान नहीं है.

प्रधानमंत्री ने सांसदों से कहा कि अपने-अपने क्षेत्र के तीन गांवों को चुन लें और उन गांवों को पांच साल में आदर्श गांव बनायें, जहां सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों. सांसदों ने इसका स्वागत भी किया. लेकिन इसके लिए पैसा तो चाहिए! सरकार ने पैसे की व्यवस्था ही नहीं की. बजट में किसी तरह का प्रावधान नहीं है. मकान, पानी की टंकी, सीवर, नाली, सड़क आदि के लिए पैसे आखिर कहां से आयेंगे? इन सारी चीजों के लिए उन्होंने सिर्फ एक भ्रम पैदा किया और अपने वक्तव्य से सत्ता में आने की कोशिश की.
सरकार अपने एक साल के शासन की उपलब्धि महंगाई कम करने, देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने, काला धन पर एसआइटी गठित करने सहित कई नयी योजनाओं के शुरू करने को मान रही है. आप इसे कैसे देखते हैं?
दावा अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का है, लेकिन मोदी सरकार को जिन लोगों पर भरोसा है, उन्हीं लोगों ने देश की अर्थव्यवस्था को ठीक नहीं माना है. मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर विदेशी अखबारों ने साफ तौर पर कहा है कि भारत की अर्थव्यवथा ठीक दिशा में नहीं जा रही है. यदि इन्हीं अखबारों में कुछ अच्छा छपा होता तो उसका अब तक सरकार के सभी मंत्री प्रचार कर रहे होते. जिस बात को लेकर मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अपनी छवि का ढिंढोरा पीट रही थी, आज उसी छवि को धक्का लगा है. क्योंकि विदेशी लोग भारत के आर्थिक हालात को अच्छा नहीं बता रहे हैं. झूले पर बैठने और ओबामा से गले मिलने से देश की अर्थव्यवस्था की तरक्की नहीं होती, न ही आर्थिक हालात ठीक हो सकते हैं. इसके लिए कुछ कार्यक्रम की जरूरत होती है. उस कार्यक्रम पर दूर तक चलने की नीयत भी चाहिए होती है, तभी इस मामले में आगे कुछ बेहतर हो सकता है. सिर्फ भाषण से पेट नहीं भरता, लोगों को राशन की जरूरत है.
जहां तक नयी योजनाओं को शुरू करने की बात है, तो सरकार सिर्फ पुरानी योजनाओं को नया नाम दे रही है. उदाहरण के लिए, रेलवे की जो पुरानी योजना थी उसे बदल कर नया नाम दे दिया. रेलवे की फास्ट ट्रेन योजना जिसे हाई स्पीड ट्रेन कहते थे, उसे बदल कर मोदी सरकार ने बुलेट ट्रेन नाम दे दिया. स्वावलंबन योजना पहले भी थी, अब उसका नाम बदल कर अटल पेंशन योजना कर दिया. राष्ट्रीय सुरक्षा विकास योजना पहले भी थी, अब उसका नाम बदल दिया गया. राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना हमारी थी, उसका भी नाम बदल दिया. यानि पुरानी योजनाओं को नया नाम देकर सरकार लोगों को गुमराह कर रही है. सिर्फ नाम बदलने से काम नहीं चलता. आपका (सरकार का) कोई नया योगदान है, तो बतायें. देश सिर्फ भाषण से नहीं चलता है, बल्कि उसके लिए ठोस कार्ययोजना भी होनी चाहिए.पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश के लिए एक कार्ययोजना बनायी थी. अपने विचार रखे थे. सिंचाई के लिए, बिजली के लिए, पब्लिक सेक्टर में रोजगार देने के वास्ते नये-नये कारखाने खोलने के लिए.. लेकिन वर्तमान सरकार में ऐसा विजन है ही नहीं जो आगे की देख सके.
यूपीए सरकार में आये दिन भ्रष्टाचार के मामले सुने जाते थे. लेकिन इस सरकार में ऐसा नहीं दिख रहा है. सरकार अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि पिछले एक साल में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार और घोटाले को न होना बता रही है. इससे आप कहां तक सहमत हैं?
देखिए आगे-आगे होता है क्या. यह तो पहला साल है. पहला साल ऐसा ही रहता है. अब तो सत्ता में आ गये हैं. जहां तक सरकार की बात है, तो भ्रष्टाचार का पता कैसे लगेगा? कौन लगायेगा? सारी संस्थाओं के हाथ-पैर बांधने का काम मोदी सरकार ने किया है. भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने के लिए आरटीआइ एक हथियार है, जिसे यूपीए सरकार ने उपलब्ध कराया है. लेकिन उस हथियार की धार वर्तमान सरकार ने कुंद कर दी है. केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के मुखिया का पद खाली है. कई सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं. लेकिन सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर रही है.
सीआइसी में 39000 मामले लंबित है. खाली पड़े सूचना आयुक्तों के पदों पर नियुक्ति होती है, तब भी इन मामलों को सुलझाने में दो-तीन साल लग जायेंगे. इसी तरह से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) का पद एक साल से खाली पड़ा है. फिर भ्रष्टाचार के मामलों की कौन जांच करेगा? हमलोगों ने लोकपाल कानून को मंजूरी दी थी. लेकिन वर्तमान मोदी सरकार में न लोकपाल है, न सीवीसी और न ही सीआइसी. इसलिए यह सारी चीजें सिर्फ कहने के लिए है.
जैसा उन्होंने गुजरात में किया है, उसी तरह से यहां भी चलाना चाहते हैं. वहां 17 मिनट में 22 विधेयक पास कर लिये. इसी तरह से वह केंद्र में भी चाहते हैं. लोकतांत्रिक ढंग से सरकार कुछ करना ही नहीं चाह रही है. वह चाहते हैं मैं जैसा चाहूं, वैसा ही सब कुछ हो. लोकतंत्र में तो ऐसा संभव नहीं है. और यदि ऐसा होता है, तो लोकतंत्र किस बात का रह जायेगा. जहां तक यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार की बात सरकार कहती है, तो आप (नरेंद्र मोदी) 2जी की बात बोल-बोल कर ही तो सत्ता में आये हो. सत्ता तो मिल गयी, अब और इसे कितने दिनों तक दुहराते रहोगे.
सरकार का दावा है कि पिछले एक साल में कार्य संस्कृति बदली है. जिस काम में वर्षो लग जाते थे, वह काम अब घंटों में हो रहा है. सभी काम व्यवस्थित रूप से सकारात्मक माहौल में हो रहे हैं. ऐसी कार्य संस्कृति आपकी सरकार में संभव क्यों नहीं हो पायी?
हर आदमी के काम करने का अपना अलग नजरिया और अलग ढंग होता है. अपने ढंग और नजरिये को भी दूसरों पर थोप कर वाहवाही लूटने में भी सरकार नहीं थक रही है. आप बताइए, क्या कार्य संस्कृति बदली है? कोई भी काम तेजी से हो रहा है? समय से हो रहा है? कोई काम कर रहा है? हर आदमी डर के बैठा है कि जब तक ऊपर से निर्देश नहीं आयेगा तब तक वह काम नहीं करेगा. रोज-रोज ऊपर से निर्देश आता है और तब काम शुरू होता है. यही मोदी सरकार की कार्य संस्कृति है. डरा कर काम कराना. यह हैरानी की बात है कि सचिव स्तर का अधिकारी भी रूटीन काम करने में डरता है. बोलने के लिए जो भी बोलते जाइए, लेकिन लोग कुछ और महसूस कर रहे हैं. अगले साल तक आपलोग (मीडिया) भी महसूस करेंगे.
सरकार का आरोप है कि विपक्ष का रचनात्मक सहयोग नहीं मिलता है. विपक्ष सिर्फ विरोध के लिए सरकार के कामकाज और नीतियों का विरोध करता है.हमलोग विपक्ष में हैं. इसलिए जनता के हित के कामों में सरकार का समर्थन भी करते हैं और गरीब विरोधी कामों में विरोध करते हैं. यकीनन हम सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं और सरकार को सजग करते हैं, लेकिन यह सरकार खुद विपक्ष से ज्यादा बोल रही है. यही कारण है कि सरकार की लोकप्रियता जहां 80 से 89 प्रतिशत थी, वह अब कहीं 40-42 फीसदी तक आ पहुंची है.
मोदी सरकार का कहना है कि ‘सबका साथ सबका विकास’ के तहत काम किया जा रहा है, जबकि कांग्रेस इसे मानने को तैयार नहीं. आखिर कांग्रेस को आपत्ति किस बात पर है?
मोदी सरकार का ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा सही नहीं है क्योंकि सरकार गरीबों का साथ नहीं दे रही है. किसानों का साथ नहीं दे रही है. वह किसी का साथ दे रही है, तो सिर्फ कॉरपोरेट का. आम जनता को सरकार कह रही है कि वह सरकार का साथ दे, जबकि सरकार उसका साथ नहीं दे रही है. यह भी देखने की बात है कि आखिर विकास किसका हो रहा है. किसान का या कॉरपोरेट का? निश्चित रूप से कॉरपोरेट का विकास हो रहा है. मोदी सरकार की कथनी और करनी में बहुत बड़ा फर्क है, जिसे जनता भी अब धीरे-धीरे समझ रही है.
भूमि अधिग्रहण बिल पर कांग्रेस काफी सख्त है. कांग्रेस बिल के कथित किसान विरोधी प्रावधानों के खिलाफ है या फिर भूमि अधिग्रहण के रूप में कांग्रेस को ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसे वह देश भर में भुनाना चाहती है?
ऐसा नहीं है. यूपीए सरकार ने इस बिल पर काफी काम किया था. संसद की स्थायी समिति की ओर से, तब भाजपा की ओर से तथा विपक्षी पार्टियों की ओर से आये सुझावों पर काफी बदलाव किया गया. उसके बाद सर्वसम्मति से इस बिल को पास किया गया था. पिछली सरकार द्वारा पास किये गये विधेयक को लागू किया जाना चाहिए था, लेकिन वर्तमान सरकार उसमें बदालाव कराना चाह रही है. वह कुछ ऐसे प्रावधान जुड़वाने पर तुली हुई है, जिससे किसानों का अहित हो तथा कॉरपोरेट को फायदा पहुंचे. कांग्रेस इसके खिलाफ है. भूमि पर पहला अधिकार किसानों का है.
कांग्रेस भी विकास चाहती है, लेकिन किसानों की कीमत पर नहीं. यदि वर्तमान सरकार इस विषय पर इतनी ही गंभीर है, तो उसे उसी समय सोचना चाहिए था. यूपीए सरकार का तब सहयोग नहीं करते. उसी समय बताते कि उद्योगों के लिए हम किसानों का अहित कर सकते हैं. कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए किसी से विचार-विमर्श की जरूरत नहीं है. किसानों की सहमति की जरूरत नहीं है. इन बातों को तब ही भाजपा को विधेयक के प्रावधानों में समाहित कराना चाहिए था. लेकिन तब नहीं कराया और अब उस तरह के प्रावधान के लिए सरकार अड़ी है, जिससे देश का भला नहीं हो सकता है.
सरकार कह रही है कि इस विधेयक को किसी भी हाल में संसद से पास करायेंगे, जबकि विपक्ष इसके विरोध में है. आखिर इस विधेयक का क्या होगा?
विपक्ष की आवाज दबा कर सरकार ऐसे कानून संसद से पास कराना चाहती है, तो इससे देश का भला नहीं हो सकता है. कांग्रेस विधेयक के खिलाफ नहीं है. विधेयक के उन खास प्रावधानों के खिलाफ है, जिससे किसानों को हानि होगी और कॉरपोरेट को फायदा पहुंचेगा. अब यह विधेयक संसद में सलेक्ट कमेटी के पास है. देखते हैं आगे क्या होता है.
दिल्ली चुनाव में हार के बाद भाजपा का बिहार विधानसभा चुनाव पर पूरा फोकस है. बिहार में कांग्रेस की क्या रणनीति होगी? चुनाव में कांग्रेस अकेले भाजपा से मुकाबला करेगी या फिर जदयू-राजद के साथ गंठबंधन करके?
बिहार विधानसभा में गंठबंधन का निर्णय तो पार्टी में होगा. जब प्रस्ताव आयेंगे, बातचीत होगी, तब उस पर निर्णय होगा. लेकिन एक बात तय है कि सभी का मिल कर भाजपा से मुकाबला करना आज देश की जरूरत बन गयी है. भाजपा की जो विचारधारा है, हम लोग उसके खिलाफ हैं. हम किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, लेकिन उस विचारधारा का हमेशा विरोध करते रहेंगे जो समाज को बांटने का काम करे. वैसी विचारधारा का विरोध करने वाले जो भी दल हैं, उन्हें साथ विरोध करना चाहिए. बिहार विधानसभा के चुनाव पर अभी किसी तरह का निर्णय नहीं लिया गया है.
सदन के बाहर और सदन के अंदर आपके व्यक्तित्व में काफी फर्क दिखता है. सदन के बाहर आप जितने विनम्र हैं, अंदर उतने ही आक्रामक. इन दोनों रूपों मे आप खुद को कैसे सहज रख पाते हैं?
देखिए, सदन के बाहर और सदन के अंदर मैं जो भी हूं, वह सब लोगों के मूल्यांकन के लिए छोड़ता हूं. लेकिन कभी-कभी जब संसद में अवसर नहीं मिलता है, लोग चेहरे को देख कर मौका देते हैं, अपना निर्णय सुनाते हैं, तो उस समय कुछ अलग अंदाज हो ही जाता है. बाहर और अंदर का मूल्यांकन मैंने लोगों के ऊपर छोड़ दिया है. मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देता हूं. जो जिम्मेवारी मिली है, उसे सफलता के साथ निभाने की कोशिश करता हूं.
15 लाख कहां गये?
मोदी जब चुनावी अभियान चला रहे थे, तो उस क्रम में उन्होंने बहुत बढ़-चढ़ कर वादे किये थे. अब एक साल बाद उसी वादे को कह रहे हैं कि वह चुनावी जुमला था. मोदी ने वादा किया था कि 100 दिन में काला धन वापस लायेंगे. सभी भारतीयों के खाते में 15 लाख रुपये आयेंगे. लेकिन किसी के खाते में नहीं आये.
उद्योगों की हालत पतली
उद्योग-धंधों की हालत खराब है. कृषि उत्पादन और निर्यात नीचे है. निर्यात 11 फीसदी घट गया है. ग्रामीण उधारी नीचे चली गयी है. ‘टैक्स टेररिज्म’ को लेकर सवाल किये जा रहे हैं. भारतीय मध्यम वर्ग एक साल में सबसे ज्यादा परेशान है.
किसान हितैषी नहीं है सरकार
चुनाव के दौरान मोदी ने कहा था कि एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के तहत, लागत का 50 प्रतिशत लाभ किसानों को मिलेगा, लेकिन उन्हें मात्र चार प्रतिशत लाभ मिला है. 38 सालों में किसानों को एमएसपी में सबसे कम वृद्धि मिली है. कृषि विकास दर 2013-14 में जहां 4.7 प्रतिशत थी, वहीं 2014-15 में घट कर 1.1 प्रतिशत हो गयी है. मोदी सरकार की कृषि के प्रति इस सोच से साफ जाहिर होता है कि वह किसानों की हितैषी नहीं है.
10 साल में सबसे कम रोजगार वृद्धि
मोदी ने दो करोड़ युवाओं को प्रत्येक वर्ष रोजगार देने की बात कही थी. यानी कि पांच साल में 10 करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा किया गया था. लेकिन साल भर में कितने युवाओं को रोजगार मिला है? सरकार के आंकड़े खुद यह संकेत दे रहे हैं कि रोजगार वृद्धि पिछले 10 सालों में सबसे निम्न है. इसलिए सरकार को इसका जबाव देना चाहिए कि वह इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त करेगी.

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