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ट्विटर बाबा की बादशाहत

तरुण विजय पूर्व राज्यसभा सांसद tarunvijay55555@gmail.com हमारी एक खासियत है. कोई भी बाहर का हो, अंग्रेजी बोलता हो और अगर वह सोशल मीडिया के एक हिस्से का मालिक है, तो फिर बात ही क्या?हमारे देश में आ जाये, तो हम इस तरह से उसकी आवभगत करते हैं, मानो वह किसी सर्वप्रभुता संपन्न देश का मालिक […]

तरुण विजय
पूर्व राज्यसभा सांसद
tarunvijay55555@gmail.com
हमारी एक खासियत है. कोई भी बाहर का हो, अंग्रेजी बोलता हो और अगर वह सोशल मीडिया के एक हिस्से का मालिक है, तो फिर बात ही क्या?हमारे देश में आ जाये, तो हम इस तरह से उसकी आवभगत करते हैं, मानो वह किसी सर्वप्रभुता संपन्न देश का मालिक हो. तनिक हमारी हल्की-फुल्की तारीफ कर दी, तो बस हम यूं खुश होते हैं, मानो उस सर्टिफिकेट के लिए बरसों से हम तरस रहे थे. ट्विटर, फेसबुक, जीमेल का ऐसा ही मामला है. इन दिनों ट्विटर से झगड़ा चल रहा है. ट्विटर के भारतीय समन्वयक भारतीय बाबू ही हैं.
जहां से वेतन मिलता है, उसके प्रति निष्ठा रखते हैं. उनकी भारतीयता का हमारी संवेदनाओं, धार्मिकता अथवा सामाजिक चादर से उतना ही लेना-देना हो सकता है, जितना ट्विटर के केंद्रीय कार्यालय सैनफ्रांसिस्को में बैठे कंपनी मालिकों का हो सकता है. उनका हमसे उतना ही लेना-देना हो सकता है, जितना जनजातियों के बीच काम कर रहे किसी दिकू या जिसे सम्मानपूर्वक व्यापारी कहते हैं, उसका हो सकता है.
उसे पैसा कमाना है और अपने देश के कानून के अंतर्गत हम सबकी सूचना-संपदा अमेरिका में जमा करनी है. हम भले, सज्जन, सभ्य, सब पर विश्वास करनेवाले और सदियों से सबसे विश्वासघात सहनेवाले थोड़ा-बहुत शोर मचायेंगे ही. डीपी वगैरह बदलकर ऐसे विरोध प्रकट करेंगे, मानो जंतर-मंतर पर खड़े हों.
ट्विटर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) जैक डोरसी ने संसदीय समिति के पहले बुलावे को तो टाल दिया और असभ्यतापूर्वक उनकी कंपनी के भारतीय संचालकों ने एक भारतीय महिला कर्मचारी को भेजा, जिन्हें विशेष आराम और चिकित्सकीय संरक्षण की आवश्यकता थी. हम समझते हैं ट्विटर वाले भले लोग हैं, लेकिन उन्होंने उन भारतीय महिला को समिति के सामने भेजा जाना भी खबर में तब्दील कर संसदीय समिति पर ही दोषारोपण करने की कोशिश की, मानो इसका इल्जाम भी समिति पर हो.
बहरहाल देखते हैं कि जैक डोरसी संसदीय समिति के द्वारा दी गयी अंतिम तिथि पर आते हैं या नहीं. और अगर आ भी गये, तो अपने व्यवहार या ट्विटर के भारतीय चलन में कोई परिवर्तन करेंगे, इसकी कोई गुंजाइश किसी को दिखती नहीं है, बल्कि यह हमारे वामपंथी एवं भाजपा-विरोधी सेकुलरों के हाथ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का एक और ऐसा उदाहरण बनेगा, जिसे अमेरिकी अखबार और उनमें लिखनेवाले भारतीय स्तंभकार मसाले के साथ इस्तेमाल करेंगे.
अगर ईस्ट इंडिया कंपनी हमारे लिए इसलिए खराब थी कि वह भारत की संपदा को लूटकर ब्रिटेन ले जा रही थी या कोलंबस मूल अमेरिकी इंडियनों के लिए इसलिए खराब थे, क्योंकि उसके कारण वहां के मूल निवासियों का सोना, आस्था एवं जमीन लूटी गयी तथा चार करोड़ से अधिक अमेरिकी इंडियन मार डाले गये, तो किस कसौटी पर हमें ट्विटर, फेसबुक और गूगल इतने प्रिय लगते हैं कि न केवल हम उनके द्वारा प्रत्येक भारतीय की सूचना-संपदा लूटे जाने पर खामोश हैं, बल्कि उन्हें बाहें फैलाकर अतिरिक्त सुविधाएं देकर रेलवे स्टेशनों से लेकर हवाई अड्डों और आम बाजारों तक सूचना एकत्र करने का काम सौंपते हैं, मानो हम बेबस हों.
भारतीय सूचना प्रद्योगिकी एवं इंटरनेट से जुड़े कानून इतने कमजोर और अभी तक अनेक प्रावधानों के असंशोधित रूप में स्थापित हैं कि जिनके अंतर्गत ट्विटर, फेसबुक, गूगल द्वारा भारत की सूचना-संपदा की लूट एवं प्रत्येक भारतीय के व्यवहार, स्वभाव, वित्तीय आचरण, पसंद-नापसंद की समस्त जानकारी अमेरिका में एकत्र करने का हम ना विरोध कर सकते हैं, ना ऐसा करने की इच्छा रखते हैं.
संभवत: हम भारत के महान और विश्वविख्यात सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों को अमेरिकी कुली बनते देख खुश होते हैं. हम उनसे यह पूछने की कोशिश नहीं करते कि भाई आप पढ़े तो अपने आंध्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश के स्कूलों में ही हो.
भारत की जनता ने अपने धन और मन से आपको बड़ा बनाया. आपको अमेरिका में करोड़ों रुपये महीने की तनख्वाह मिलने लगी. गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, ट्विटर जैसे बड़े नामधारी कॉरपोरेशनों में बड़े कारोबार और संचालक जब भारतीय बन जाते हैं, तो हम भारत में बैंड बाजा बारात लेकर उनकी तारीफ करते हैं और उन्हें पुरस्कारों से लाद देते हैं. लेकिन, वे अमेरिकी माता और ब्रिटिश माता की सेवा करते हैं. भारत माता की संतानें लुधियाना से बेगूसराय तक खुशी मनाती हैं.
क्यों? भाई अगर वे भारत के ग्रामीण नौजवानों के लिए भारतीय भाषाओं में आगे बढ़ने का संस्थान खोलने भारत आयें और अपनी योग्यता से, अपनी अपार निधि से भारत माता के बच्चों को अपने जैसा ही नहीं, अपने से बेहतर बनाने के लिए कोशिश करें, तो बात कुछ समझ में आती है. सुंदर पिचाई और सत्या नडेला बड़े नाम हैं. ऐसे पचासों बड़े नाम हम ढूंढ सकते हैं.
क्या वे भारत में भारतीयों के लिए कोई सोशल मीडिया मंच नहीं बना सकते, जिसके माध्यम से एकत्र की जानेवाली समस्त सूचना-संपदा भारत में ही रहे?
साल 2014 में मैंने राज्यसभा में मांग उठायी थी कि जीमेल, याहू तथा ट्विटर जैसे अमेरिकी सोशल मीडिया मंचों पर जानेवाली भारतीय सूचनाएं अमेरिकी कानून के अंतर्गत वहां के रक्षा सलाहकार के पास जाती ही हैं और उनका राजनीतिक, आिर्थक एवं रणनीतिक उपयोग हम रोक नहीं पाते. इसलिए आवश्यक है कि भारत अपने सामाजिक व्यवहार के मंच एवं संवाद की इलेक्ट्रॉनिक डाक स्थापित करे.
करोड़ों, अरबों रुपये हम आईटी विभागों और मंत्रालयों पर खर्च करते हैं. भारत का एक केंद्रीय और सूचना प्रौद्योगिकी एवं साइबर सचिव भी है. क्यों नहीं भुवन को गूगल अर्थ की तरह समर्थ बना सकते? एनआईसी में जितना निवेश होना चाहिए उतना क्यों नहीं करते, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा की यह चौथी भुजा मजबूत बने और सामान्य नागरिक जीमेल और याहू की बजाय एनआईसी इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित हो?
सांसदों को एनआईसी की ईमेल सुविधा दी जाती है, पर क्या कारण है कि अधिकारियों और सांसदों में शायद ही कोई इसका इस्तेमाल करना चाहता हो? अपने उपकरण मजबूत नहीं करेंगे, विदेशी कंपनियों को भारतीय सूचना-संपदा एकत्र करने की पूरी सुविधा देंगे और उसके बाद शिकायत करेंगे कि ये लोग बेईमानी कर रहे हैं और हमारी सुनते नहीं. विदेशी कंपनियां सूचना क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कंपनी ही हैं. लेकिन, हम भोले-भाले भारतीय इतिहास दोहराना बहुत पसंद करते हैं.

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