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खुशवंत सिंह की स्मृति में

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक पिछले सप्ताह मुझे कसौली में खुशवंत सिंह साहित्य उत्सव में भाग लेने का मौका मिला. गत चार सालों से मैं हर बार इस मौके पर सहभागी रहने की पुष्टि करने के बावजूद किसी-न-किसी वजह से अपनी योजना बदलने को बाध्य होता रहा. कसौली शिमला के रास्ते में स्थित […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

पिछले सप्ताह मुझे कसौली में खुशवंत सिंह साहित्य उत्सव में भाग लेने का मौका मिला. गत चार सालों से मैं हर बार इस मौके पर सहभागी रहने की पुष्टि करने के बावजूद किसी-न-किसी वजह से अपनी योजना बदलने को बाध्य होता रहा. कसौली शिमला के रास्ते में स्थित एक शांत सैन्य छावनी स्थल है, जहां अक्तूबर का आरंभ अत्यंत मनोहारी होता है.

यहां इस उत्सव का आयोजन 19वीं सदी में स्थापित ‘कसौली क्लब’ में होता है, जो अपने चतुर्दिक उतने ही वृद्ध देवदार वृक्षों से घिरा है. पर, इस उत्सव में मेरे लिए एक खास बात इसका उस व्यक्ति की स्मृति में समर्पित होना है, मुझे जिसे अत्यंत निकट से जानने का सौभाग्य प्राप्त था और जिनके लिए मेरा हृदय अत्यंत श्रद्धावनत रहा है.

खुशवंतजी को अपनी छवि जानबूझ कर ऐसी-यानी, एक सुरा-सुंदरी प्रेमी, नास्तिक, अप्रासंगिक वृद्ध व्यक्ति जिसके दिमाग में ‘गंदे’ विचार भरे हों-गढ़ने में बहुत मजा आता, जिससे कुछ किस्म के लोग उनसे नफरत करें.

पर, वास्तविकता इसके ठीक उलट थी. यह और बात है कि उन्हें ठीक 7 बजे शाम का अपना सुरापान अत्यंत प्रिय था, मगर वे पियक्कड़ तो हरगिज न थे. उनके लिए मजे का यह वक्त ठीक आठ बजे खत्म हो जाता, फिर वे जल्दी ही भोजन-शयन करते और सुबह 4 बजे नींद से निवृत्त हो जाते. टेनिस, तैराकी तथा टहलने के अपने नियमित व्यायाम के प्रति भी वे अत्यंत अडिग अनुशासनपूर्वक समर्पित थे. यही वजह थी कि वे विचारपूर्वक इतना कुछ लिख सके.

उनका घर प्रबुद्ध गोष्ठियों का एक केंद्र जैसा था, जहां शाम के उस एक मुबारक घंटे में आमंत्रितों की तादाद और किस्म अत्यंत विरल ही हुआ करती. उस जमावड़े में भी जोर किसी सनसनी के सृजन से कहीं ज्यादा संजीदा संवादों पर ही रहा करता. यह सही है कि सुंदर अथवा असाधारण महिलाएं उनकी कमजोरी थीं, पर वे अमर्यादित होने से कोसों दूर रहते हुए उनके साथ अत्यंत सम्मानपूर्ण बरताव किया करते. इन मौकों पर उनकी पत्नी भी हमेशा मौजूद रहतीं, और उनके सामने ही कभी-कभार की गयीं उनकी दिलफेंक टिप्पणियां हमेशा सुरुचिपूर्ण ही होतीं.

जिसे वे सही समझते उसके विषय में- बगैर यह परवाह किये कि वह किन्हें बुरा लगेगा-लिखने अथवा बोलने की क्षमता खुशवंतजी की महानतम खूबी थी और कसौली में मैंने उनकी शख्सीयत के इसी पहलू पर अपनी सोच सामने रखी. उनका यकीन था कि किसी भी धर्म की कट्टरता गलत है. हालांकि, वे नास्तिकता के दावे किया करते, पर सच्चाई यह थी कि वे सभी धर्मों को उनकी आध्यात्मिकता एवं दर्शन के स्तर पर स्वीकारते हुए भी सिर्फ उनके रस्मो-रिवाज और उनकी अंध रूढ़िवादिता खारिज करते थे.

उनका यह भी यकीन था कि भारत के नागरिक के रूप में उन्हें सार्वजनिक महत्व के किसी भी विषय पर अपना मत प्रकट करने का अधिकार हासिल है, जिसके प्रयोग से वे कभी चूके नहीं. जहां तक व्यक्तिगत नैतिकता का सवाल था, वे एक मूर्तिभंजक थे. उन्हें पाखंड से नफरत थी और नैतिकता की रक्षा के उन स्व-घोषित ठेकेदारों को वे नीची नजर से देखा करते, जो किसी भी ऐंद्रिकता को ‘भारतीय’ मूल्यों के विरुद्ध समझते. उनका मानना था कि ऐसे लोग कामसूत्र एवं खजुराहो के आधारभूत दर्शन या फिर एक संतुलित जीवन के हिस्से के रूप में मानवीय मनोविज्ञान से दयनीय रूप से अनभिज्ञ थे. इस अर्थ में वे नैतिक प्रवचनकर्ता (वाइज) पर व्यंग्य की शक्तिशाली भारतीय परंपरा की एक कड़ी जैसे थे. जैसा अपने एक शेर में गालिब ने अर्ज किया-

कहां मयखाने का दरवाजा गालिब और कहां वाइज

बस इतना जानते हैं कि कल वो जाता था जब हम निकले

भारत में तो असहमति के अधिकार की भी एक सुस्थापित परंपरा है. आठवीं सदी में हिंदूवाद का पुनरुद्धार करनेवाले आदि शंकराचार्य महानतम चिंतक थे. उन्होंने कहा कि न धर्म, न अर्थ और न काम, न तो मोक्ष, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ ही महत्वपूर्ण है. बस जो एक मात्र महत्वपूर्ण है, वह है ‘चिदानंद रूपः’ और जिसने भी इसे समझ लिया, वह बोल उठेगा, ‘शिवोहं, शिवोहं!’

दुर्भाग्यवश, यदि आज खुशवंतजी होते, तो उन्हें अपने इन्हीं यकीनों की वजह से हत्या या राष्ट्रद्रोह के आरोपों का सामना करना पड़ता. दिल्ली में उनके अपार्टमेंट के प्रवेश पर एक सूचना टंगी होती, ‘यदि आपका आगमन अपेक्षित नहीं हैं, तो कृपया दरवाजे की घंटी न बजायें.’

कलबुर्गी के दरवाजे पर ऐसी कोई सूचना नहीं लगी थी. जब घंटी बजी, तो उन्होंने उसे खोला और गोलियां खायीं. दाभोलकर, पंसारे तथा गौरी लंकेश की हत्याएं भी इसी तरह हुईं.

संभवतः यह ठीक ही हुआ कि लगभग सौ वर्षों तक जीवित रहे खुशवंतजी की मृत्यु सही समय पर आयी. क्योंकि भारत की अवधारणा को ही जोखिम में डालता आज का माहौल स्वीकार कर पाना उनके लिए बहुत कठिन होता.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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