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एक राष्ट्र-एक चुनाव की अवधारणा

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com सुनने में ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ बड़ा सुंदर लगता है, लेकिन क्या इसके पीछे का प्रस्ताव भी उतना ही सुंदर है? क्या देशभर में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव पांच साल में एक बार एक साथ करवाने का प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा कदम है? पहली नजर […]

योगेंद्र यादव

अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

yyopinion@gmail.com

सुनने में ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ बड़ा सुंदर लगता है, लेकिन क्या इसके पीछे का प्रस्ताव भी उतना ही सुंदर है? क्या देशभर में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव पांच साल में एक बार एक साथ करवाने का प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा कदम है? पहली नजर में बड़ा सीधा प्रस्ताव है.

देशभर में हर पांच साल बाद लोकसभा चुनाव होना तय है, लेकिन विधानसभा के चुनाव का कैलेंडर लोकसभा से जुड़ा हुआ नहीं है. इसलिए केंद्र सरकार के पांच साल के कार्यकाल में हर साल एक या दो बार कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होते हैं.

चुनाव आचार संहिता लागू होते ही उन राज्यों में केंद्र सरकार की फाइलें भी रुक जाती हैं. केंद्र सरकार के कामकाज में व्यवधान पड़ता है. सरकार चुनाव के दबाव में काम करती है. इसलिए कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाती. यूं भी राज्य और केंद्र के चुनाव अलग-अलग करवाने से खर्चा भी दोहरा हो जाता है.

इसलिए प्रस्ताव यह है की पांच साल में एक बार एक साथ सभी राज्यों की विधानसभा और लोकसभा के चुनाव कराये जाएं, ताकि अगले पांच साल तक बिना किसी विघ्न के सरकारें अपना काम करें. सुन कर लगता है कि कई झंझटों से एक बार ही छुटकारा मिल जायेगा, लेकिन यह प्रस्ताव इतना सरल-सीधा नहीं है. यह प्रस्ताव सिर्फ चुनाव की तिथि बदलने का प्रस्ताव नहीं है.

इसे केवल प्रशासनिक परिवर्तन से लागू नहीं किया जा सकता. इस प्रस्ताव को मानने का मतलब होगा हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन करना. हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी परिस्थिति को देखते हुए अमेरिका की राष्ट्रपति पद्धति को नामंजूर कर ब्रिटेन का संसदीय लोकतंत्र का ढांचा अपनाया. हमारे संसदीय ढांचे में यह अनिवार्य है कि देश के प्रधानमंत्री को संसद में बहुमत प्राप्त हो.

अब सोचिए कि अगर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है और अगर किसी राज्य में या केंद्र में कोई सरकार दो या चार साल बाद सदन में बहुमत खो देती है, तो क्या होगा? क्या उस सरकार को पांच साल तक चलने दिया जायेगा?

अगर ऐसा नियम बन भी जाता है, तो कोई सरकार कैसे राज करेगी, अगर वह सदन में अपना बजट ही पास नहीं करवा सकती? क्या दोबारा चुनाव करवाये जायेंगे, लेकिन सिर्फ बची हुई अवधि के लिए? यानी कि अगर कोई सरकार चार साल के बाद गिर जाती है, तो क्या राज्य में या देश में सिर्फ एक साल की सरकार चुनने के लिए नये चुनाव होंगे? सवाल है कि यह प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र की समस्याओं को घटायेगा या कि उसे और बढ़ायेगा?

अगर हर स्तर पर चुनाव अलग-अलग होते हैं, तो वोटर हर स्तर के लिए अपनी अलग सोच बना कर वोट दे सकते हैं, लेकिन जब अलग-अलग स्तरों के चुनाव एक साथ होते हैं, तो कहीं-न-कहीं दोनों मत एक-दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं. बेशक, आज वोटर पहले से ज्यादा जागरूक हैं.

ओड़िशा का चुनाव यह दिखाता है कि एक साथ वोट करने के बावजूद भी वोटर लोकसभा के लिए भाजपा को ज्यादा वोट देते हैं, तो विधानसभा के लिए बीजद को पसंद करते हैं. फिर भी, जब दो अलग-अलग स्तरों का चुनाव प्रचार और मतदान एक साथ होता है, तो दोनों में घालमेल की स्थिति बनती है. एक साथ चुनाव के प्रस्ताव से हमारी राजनीति के स्थानीय और आंचलिक चरित्र को धक्का लगेगा.

सवाल यह भी है कि क्या चुनावी कैलेंडर की समस्याओं को सुलझाने के लिए हमें देश की संवैधानिक व्यवस्था में इतना बड़ा बदलाव करने की जरूरत है? मुझे लगता है कि अगर चुनावी कैलेंडर में तीन सुधार कर दिये जाएं, तो हमें ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ जैसे बड़े संवैधानिक बदलाव की कोई जरूरत नहीं रहेगी.

पहला, चुनाव की आचार संहिता में बदलाव किया जाना चाहिए, ताकि किसी राज्य में विधानसभा चुनाव के समय केंद्र सरकार का सामान्य कामकाज न रुके. दूसरा, चुनाव आयोग मतदान की अवधि को कम कर सकता है. अगर चुनाव मतदान की प्रक्रिया एक सप्ताह में पूरी कर ली जाए, तो सरकार के कामकाज में व्यवधान कम पड़ेगा. तीसरा, अगर चुनाव आयोग चाहे, तो अपने आप ही कई राज्यों के चुनाव को एक-दूसरे के साथ जोड़ सकता है.

संविधान के तहत चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के छह महीने पहले तक कभी भी चुनाव करवा सकता है. इस तरह से केंद्र सरकार के पांच साल के कार्यकाल में आठ से 10 बड़े विधान चुनाव होने की बजाय केवल चार या पांच बड़े विधानसभा चुनाव हुआ करेंगे.

अब रही बात चुनावों में होनेवाले बेतहाशा खर्चे को कम करने की, तो इसके लिए चुनाव के कैलेंडर को बदलने की जरूरत नहीं है. चुनाव में बेतहाशा खर्च का असली कारण है चुनाव की कानूनी सीमा से अधिक होनेवाला खर्च. इसलिए चुनाव आयोग को चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू करना चाहिए.

निष्कर्ष साफ है. चुनावी कैलेंडर के कारण होनेवाली असुविधा और तमाम राजकाज की दिक्कतों को बिना ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के भी खत्म किया जा सकता है. इसलिए सवाल यह है कि इसके बाद भी सरकार इस प्रस्ताव को क्यों ला रही है और वह भी अपने नये कार्यकाल में सबसे पहले? आखिर इसकी जरूरत क्या है?

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