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पत्थलगड़ी संस्कृति और राजनीति

II डॉ अनुज लुगुन II सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in एक मुंडारी आदिवासी गीत है- ‘ओको बुरु लो तना रे सुकुल भईर नेलो ताना/ हय रे हय रे गातिंग रे नेली रेयो कय नेलोआ/ दिरी तेको थेन किया रे जनुम तेको रामे किया…’ अर्थात् ‘कौन सा जंगल जल रहा है, केवल धुआं […]

II डॉ अनुज लुगुन II
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
एक मुंडारी आदिवासी गीत है- ‘ओको बुरु लो तना रे सुकुल भईर नेलो ताना/ हय रे हय रे गातिंग रे नेली रेयो कय नेलोआ/ दिरी तेको थेन किया रे जनुम तेको रामे किया…’ अर्थात् ‘कौन सा जंगल जल रहा है, केवल धुआं दिखायी दे रहा है? ओह मेरे साथी! अब देखने से भी नहीं दिख रहे/ उसे पत्थर में सहेज दिया गया/ उसे झाड़ियों से घेर दिया गया.’ यह गीत आदिवासियों के औपनिवेशिक संघर्ष की दास्तां कहता है. इसमें मुंडाओं के द्वारा किये जानेवाले अंतिम संस्कार की रस्म है, जिमसें मृतक के कब्र पर ससम्मान पत्थर समर्पित किया जाता है.
यह ‘ससन दिरी’ कहलाता है. आदिवासियों में जन्म से लेकर मृत्यु तक होनेवाले संस्कारों में पत्थलगड़ी का महत्व है. इसके बारे में एक ऐतिहासिक जनश्रुति भी है. जब अंग्रजों ने जमीन की बंदोबस्ती शुरू की, तब मुंडाओं से उनका संघर्ष हुआ. कलकत्ता कोर्ट में मुंडाओं से अपनी जमीन का मालिकाना साबित करने के लिए सबूत पेश करने को कहा गया. तब मुंडाओं ने गांव के ‘ससन दिरी’ को ही सबूत के रूप में कोर्ट में पेश किया और कहा कि यह पत्थर दादा-परदादा के पहले के समय से हमारे गांव की रखवाली कर रहा है. इस तरह के पत्थर को पुरातत्ववेता ‘मेगालिथ’ भी कहते हैं.
इसी पत्थलगड़ी के नये स्वरूप पर इन दिनों राजनीतिक विवाद चल रहा है. हाल के घटनाक्रमों में कुछआदिवासी गांवों में विशाल पत्थरों पर संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों को अंकित कर बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.
सबसे विवादित मामला तब आया, जब झारखंड के खूंटी जिले के कांकी गांव में ग्रामीणों ने पुलिस और उनके एसपी स्तर के बड़े अधिकारियों को बारह घंटे से ज्यादा समय तक बंधक बनाये रखा. ग्रामीण आदिवासियों का कहना है कि ‘ग्राम सभा’ सर्वोच्च आधिकारिक संस्था है और उसकी अनुमति के बिना कोई भी बाहरी, सरकार हो या प्रशासन उनके गांव में प्रवेश नहीं कर सकता. अब पत्थलगड़ी एक आंदोलन का रूप ले लिया है और यह तेजी से उड़ीसा और छत्तीसगढ़ तक फैल रहा है. सरकार पत्थलगड़ी के इस कार्यक्रम को असंवैधानिक मान रही है. इसके नेताओं की गिरफ्तारी हो रही है.
पत्थलगड़ी आंदोलन संविधान के संदर्भ में ही अपने अधिकारों की व्याख्या कर आगे बढ़ रहा है. आदिवासी समुदाय संविधान की पांचवीं अनुसूची, अनुच्छेद 13(3), 19 (5)(6), अनुच्छेद 244 (1) और पेसा अधिनियम (पीईएसए) का संदर्भ देकर अपने गांवों में पत्थलगड़ी कर रहे हैं.
कहीं पर भी उन्होंने लिखित या मौखिक किसी भी तौर पर संविधान का अपमान नहीं किया है, बल्कि कई जगहों पर उनके पत्थरों पर ऊपर राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ है, उसके नीचे ‘सत्यमेव जयते’ लिखा हुआ है और उसके नीचे ‘भारत का संविधान’ लिखा हुआ है. आदिवासी धूम-धाम से उत्सव मनाते हुए पत्थलगड़ी करते हैं. 1996 में पेसा अधिनियम के पारित होने के बाद ‘भारत जन आंदोलन’ द्वारा ‘पत्थलगड़ी’ किया गया था, लेकिन तब कोई विवाद नहीं हुआ. तो अब क्यों हो रहा है?
सवाल आदिवासी अस्मिता, अस्तित्व और स्वायत्तता से जुड़ा हुआ है. इसकी गहरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है और इसका मजबूत संवैधानिक आधार भी है. यह मूलतः संविधान के अनुच्छेदों, अनुसूची और उसमें प्रदत्त आदिवासी अधिकारों की व्याख्या से संबंधित है. हमारे संविधान में आदिवासी हितों के लिए पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची की व्यवस्था है. अनुसूचित क्षेत्रों के लिए आदिवासियों की रूढ़ि एवं प्रथा को विधि का बल प्राप्त है. आदिवासी समुदाय उसी के अनुरूप प्रशासनिक व्यवस्था की मांग कर रहे हैं.
झारखंड में औपनिवेशिक पूर्व आदिवासी समाज मुंडा मानकी, मांझी और पड़हा व्यवस्था से संचालित था. अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध आदिवासियों ने बड़ी लड़ाईयां लड़ी और उन्होंने कभी समर्पण नहीं किया. परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज ने उनकी स्वायत्तता को ध्यान में रखकर विल्किंसन रूल, एसपीटी एक्ट, सीएनटी एक्ट इत्यादि की व्यवस्था की. संविधान निर्माण के दौरान भी इन अधिनियमों को स्वीकृत किया गया. पेसा अधिनियम में आदिवासी अधिकारों को विस्तार देते हुए ‘ग्राम सभा’ को शक्तियां दी गयीं.
पांचवीं अनुसूची में राज्यपाल को आदिवासी हितों की सुरक्षा का जिम्मा है और अनुच्छेद 19(5),(6) के अनुसार यदि अनुसूचित क्षेत्र में बाहरी हस्तक्षेप से आदिवासियों के हित प्रभावित हो रहे हैं, तो विशेष कानूनी सुरक्षा देना सरकार का जिम्मा है. लेकिन, ऐसे किसी भी संवैधानिक प्रावधानों को संवेदनशील तरीके से लागू नहीं किया गया. परिणामस्वरूप, विकराल रूप में आदिवासी विस्थापित एवं उत्पीड़ित हुए. इस पर गांधीवादी विचारक डॉ बीडी शर्मा कहते थे, ‘लोकतंत्र की स्थापना के बाद लोकतंत्र के नाम पर इन क्षेत्रों में समाज की अस्मिता और संसाधनों पर आदिवासियों के उस अधिकार को भी नकार दिया गया, जिसे अंग्रेजी सरकार भी नहीं नकार पायी थी.’
संवैधानिक प्रावधानों के वैचारिक एवं दार्शनिक पहलुओं को भी देखना चाहिए. प्रसिद्ध मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की किताब ‘ए फिलोसोफी फॉर नेफा’ में इसकी प्रस्तावना लिखते हुए जवाहरलाल नेहरू ने आदिवासियों के विकास से संबंधित पांच सूत्र दिये हैं, जिसे ‘आदिवासी पंचशील’ के नाम से जाना जाता है. नेहरू कहते हैं, ‘प्रशासन और विकास कार्य के लिए शुरू में बाहर के तकनीकी जानकारों की जरूरत पड़ेगी, लेकिन हमें आदिवासी क्षेत्रों में बहुत ज्यादा बाहरी लोगों को भेजने से बचना चाहिए. हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से मुकाबला करके काम नहीं करना चाहिए, बल्कि उनसे तालमेल बिठाना चाहिए.’ क्या यह भावना आदिवासियों के संवैधानिक प्रावधानों में नीहित नहीं है?
क्या बड़े कॉर्पोरेट और औद्योगिक घरानों को संतुष्ट करने के चक्कर में आदिवासी हितों को ताक में नहीं रखा जा रहा है? अगर ऐसा नहीं है तो ‘ग्राम सभा’ को स्वायत्तता देकर प्रशासनिक व्यवस्था एवं प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग में स्थानीय भागीदारी सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती, जबकि संवैधानिक प्रावधान इसकी व्यवस्था देते हैं? दरअसल सरकार का बहिष्कार दशकों तक उसके द्वारा की गयी संवेदनहीनता का ही परिणाम है और यह भावना सैन्य दमन से दूर नहीं हो सकती.
संविधान की एक व्याख्या शासक वर्ग की है और दूसरी व्याख्या संघर्षरत आम जनता की है. पत्थलगड़ी के द्वारा आदिवासियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों की खुद व्याख्या करने की कोशिश की है. उस व्याख्या पर लोकतांत्रिक बहस होनी चाहिए, न कि उसे ‘देशद्रोह’ कहकर खारिज करना चाहिए.

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