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आखिर गोत्र है क्या

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com इन दिनों राजनीति में गोत्र पर बहुत सवाल-जवाब हो रहे हैं. गोत्र की जड़ है, मनुष्यों का एक खास समूह. प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में युवा स्त्रियों के समूह को जनि और पुरुषों के समूह को जन कहा गया है. इन दोनों के समागम से उत्पन्न जीवों […]

मृणाल पांडे

ग्रुप सीनियर एडिटोरियल

एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड

mrinal.pande@gmail.com

इन दिनों राजनीति में गोत्र पर बहुत सवाल-जवाब हो रहे हैं. गोत्र की जड़ है, मनुष्यों का एक खास समूह. प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में युवा स्त्रियों के समूह को जनि और पुरुषों के समूह को जन कहा गया है. इन दोनों के समागम से उत्पन्न जीवों को जात यानी संतान का नाम दिया गया है.

आज जात का सीधा मतलब जाति से जुड़ गया है. संस्कृत के धर्मग्रंथों में आये गोत्र शब्द के मायने भी भारत में लगातार बदलते गये हैं. ऋषि पतंजलि के अनुसार मूल गोत्र सिर्फ आठ हैं. और वे सात ऋषियों (सप्तर्षियों) से उपजे हैं, जिनके साथ मुनि अगस्त्य का नाम भी जोड़ दिया गया. विश्वामित्र, भारद्वाज, जमदग्नि, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य. मूल गोत्रों के नाम इनसे ही बने और आगे चलते गये. कालांतर में आबादी बढ़ी, जातियों की उपजातियां बनीं, तो कई नये गोत्र भी निकल आये. व्याकरणाचार्य पाणिनि ने कहा है कि उनके समय (ईसा पूर्व पांचवीं सदी) में गोत्रों की तादाद तीन करोड़ थी.

हरिवंश और महाभारत दोनों में मातृनाम ही बच्चे की पहचान हैं. प्रजापति की संतानों के जितने नाम हैं, सब माताओं के नाम से बने हैं. इस तरह दैत्यगण अपनी मां दिति के नाम से, मरुत अपनी मां मरुत्मती के नाम से बताये गये हैं. इसलिए मारुतिनंदन हनुमान के गोत्र पर बहस बेबुनियाद है. गोत्र को आज का पितृसत्तात्मक समाज मोटे तौर से पति से अपनी पत्नी तथा बच्चों को दिया जानेवाला बताता है.

पुत्र का गोत्र आजीवन पिता का ही रहता है, पर बेटी का गोत्र शादी के बाद पति के गोत्र में बदल जाता है. यह हमेशा ऐसा नहीं था. क्योंकि मूल आठ गोत्र चलानेवाले सभी ऋषियों के पिता अज्ञात हैं. वे अपने पिता से नहीं, मां के नाम से जाने गये. जैसे गौतमी के पुत्र गौतम, काश्यपी के कश्यप आदि. गीता में कृष्ण भी अर्जुन को पांडव नहीं, कौन्तेय यानी कुंती का बेटा कहते हैं.

गोत्र का पहला जिक्र सबसे पुराने वेद ऋग्वेद (1500-1000 ईसा पूर्व) में आता है. पर उसकी कई ऋचाओं में गोत्र का मतलब वह नहीं, जो आज है. गोत्र यानी ‘गायों (गो) की रक्षा (त्राण) के लिए बनाया गया एक बाड़ा’. फिर हम आते हैं ब्राह्मण ग्रंथों के प्रमाण पर, जो वेदों के बाद ईसा पूर्व 800-500 के माने जाते हैं.

तब तक परिवारों के समूह एक ही गांव या नगर में बसने लगे थे. सो अब गोत्र का मतलब बन गया था- एक बड़ा संयुक्त परिवारोंवाला कबीला, जो अपनी गायें चोरों से बचाने को एक ही गोशाला में रखता था. इसके बाद आया उपनिषद काल, जो कि ईसा पूर्व 660-200 माना जाता है. तब तक कई महत्वाकांक्षी बड़े राजा साम्राज्य बनाने लगे थे और समृद्धि के बल पर जाति विशेष में दाखिला लेना कठिन नहीं रह गया था. लिहाजा कई ताकतवर राजा, व्यापारी और भूस्वामी तब सवर्ण जातियों में आकर उनकी तादाद और शोभा बढ़ाने लगे थे.

क्षत्रियत्व पाकर राजा अपनी किसी बड़ी जीत के बाद राजसूय यज्ञ करते थे. जो ब्राह्मण उसका विधिपूर्वक संचालन कराते थे, उनका गोत्र पढ़े-लिखे ब्राह्मण पुजारियों की एक नयी शाखा बनाने लगी. तैत्तिरीय संहिता में जिक्र है कि क्षत्रिय राजा ने ब्राह्मण श्वेतकेतु और उद्दालक को शिक्षा दी.

जाति परंपरा कुछ कम लचीली बनने लगी. पर धार्मिक या पारिवारिक कामों के लिए नियम बनानेवाले आश्वलायन गृह्यसूत्र जैसे ग्रंथों में उल्लेख है कि किस तरह कोई ब्राह्मण गोत्र अगर कभी अधिक विशिष्ट बन गया, तो दुनियादार ब्राह्मण अपना गोत्र बदलकर बड़े गोत्र में अपना विलय करवा लेते थे. कई बार आपदा आने पर लोग गोत्र का गलत नाम बता देते थे, जैसे महाभारत में, ब्राह्मण वेशधारी धर्मराज युधिष्ठिर ने राजा विराट् द्वारा गोत्र पूछने पर खुद को ब्राह्मणों के वैयाघ्रपद गोत्र का बताया.

ऐतरेय ब्राह्मण के लिखे जाने तक गोत्र की ब्रांडिंग राजकीय सत्ता से पक्की तरह से जुड़ने लगी थी. सो अब कई अन्य ताकतवर क्षत्रियों ने और खूब संपत्ति कमा चुके वैश्यों ने भी खुद को गोत्र परंपरा में इस या उस गोत्र से जुड़वाने की बात सोची.

ताकतवर जजमान गाहक को किसी भी युग में मना करना खतरनाक होता है, लिहाजा व्यवहार कुशल पंडितों ने विधान कर दिया कि चूंकि यह दोनों जातियां काम के सिलसिले में बाहर भ्रमण करती हैं, उनको अपना गोत्र याद नहीं रहेगा, पर एक तरीका यह है कि कोई धार्मिक काम करना हो, तो वे बतौर राइट्स ऑफ एटोर्नी अपनी सेवाएं उनके लिए पेश कर सकते हैं.

उस स्थिति में जजमान राजा या वणिक का गोत्र ऑटोमैटिक रूप से यज्ञ के होता, पुजारी, का माना जायेगा. संस्कार प्रकाश ग्रंथ (पृ. 550) तो यह भी कहता है कि कोई गोत्रनाम न याद रहे, तो पुरोहित महोदय कश्यप गोत्र कहकर काम चला ले जायें.

अब जाट के गोत्र की बात. जाट ताकतवर जुझारू जाति रही है. गोत्र के नाम पर वहां कितने सर फूटे और कथित ऑनर किलिंग्स हुई हैं. इस जाति का उदय महाभारत काल के बाद हुआ. जाटों के गोत्र खापों से निकले बताये जाते हैं.

जब 14वीं सदी में तैमूर लंग ने पश्चिम भारत में हमला किया और जरूरत हुई कि उनका एकजुट विरोध किया जाये, तो 84 गांवों को जोड़कर उनकी कई खाप बनायी गयी और यह घोषित हो गया कि मूल खापों के सदस्य भाई और उनके बच्चे भी सगोत्री भाई-बहन माने जायेंगे, लिहाजा उनमें शादी-ब्याह नहीं हो सकता.

आज जब कृत्रिम बुद्धि और जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से मानव मन और भ्रूण के आनुवंशिक गुणसूत्र तक वैज्ञानिक मनमाने ढंग से बदलने की तकनीक ईजाद कर चुके हैं, आनेवाले वक्त में गोत्र का यह जटिल सवाल समाज, राजनीति या व्यापार विपणन में बुद्धिमानों के लिए कितना तार्किक महत्व या आकर्षण रखेगा, सोचने का विषय है.

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