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चीन-पाकिस्तान मतभेद के मायने

प्रो पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com तुर्की ने सीरिया में जो हमला किया है, उसमें एक बात सामने आयी है कि पुराने दोस्त और एक-दूसरे के प्रति सामरिक जरूरतों को समझनेवाले चीन और पाकिस्तान के बीच गंभीर मतभेद उभर रहे हैं. मगर भारत के लिए यह तसल्ली या खुशी का सबब नहीं हो […]

प्रो पुष्पेश पंत

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

pushpeshpant@gmail.com

तुर्की ने सीरिया में जो हमला किया है, उसमें एक बात सामने आयी है कि पुराने दोस्त और एक-दूसरे के प्रति सामरिक जरूरतों को समझनेवाले चीन और पाकिस्तान के बीच गंभीर मतभेद उभर रहे हैं. मगर भारत के लिए यह तसल्ली या खुशी का सबब नहीं हो सकता.

सीरिया में जो कुछ भी हो रहा है, उसकी असली जिम्मेदारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की है. जैसे ही उन्होंने यह ऐलान किया कि वह अमेरिकी फौजी-दस्तों को उन इलाकों से हटा लेंगे, तो तुर्की को यह मौका मिल गया कि वह कुर्दों के खिलाफ वंशनाशक अिभयान शुरू कर दे. कुर्द अब तक सीरिया में लगभग अमेरिकी संरक्षण में अपनी लड़ाई लड़ रहे थे. इन कुर्दों को अब लग रहा है कि ट्रंप ने उनके साथ विश्वासघात किया है.

अब चाहे ट्रंप कितना ही लाल-पीला क्यों न हों और तुर्की को यह धमकी दें कि वे उसकी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देंगे, लेकिन जो नुकसान होना था हो चुका. हजारों कुर्द अपनी जान गंवा चुके हैं और इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान उस जमीन के बड़े हिस्से पर काबिज हो सकेंगे.

हमें यह समझ लेना जरूरी है कि कुर्दों के मामले में चीन और पाकिस्तान एक-राय नहीं हो सकते. पाकिस्तान में जिस तरह का वहाबी इस्लामी कट्टरपंथ अपनी जहरीली जड़ें फैला चुका है, उसके मद्देनजर इस्लाम को माननेवाले किसी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ पाकिस्तान के सुन्नी शासकों की हमदर्दी नहीं हो सकती.

यह याद रखने लायक है कि कुर्द समुदाय नस्लीय आधार पर भी पाकिस्तान, ईरान, तुर्की और सीरिया की बहुसंख्यक आबादी से अलग जातीय पहचान वाला है.

कुर्द लोग जब भी अपने लिए स्वतंत्र अलग देश की बात करते हैं, तो उनकी नस्लीय, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान उन सभी संप्रभु देशों को अपनी एकता और अखंडता के लिए खतरा नजर आती है, जहां-जहां इनकी मौजूदगी है. पाकिस्तान स्वयं इस समय पख्तूनों, बलूचों और सिंधियों के साथ पश्चिमोत्तरी सीमांत वाले आदिवासी बहुल इलाकों में बगावत से परेशान है. पाकिस्तान के लिए यह श्रेष्ठ विकल्प है कि तुर्की बल प्रयोग द्वारा कुर्दों का सफाया कर दे और उसे अपनी एकता-अखंडता की रक्षा के लिए इस रणनीति को तर्कसंगत साबित करने का मौका मिल जाये.

जहां तक चीन का प्रश्न है, उसके लिए कुर्दों की उपयोगिता सिर्फ सामरिक है. मध्य-पूर्व में यानी अरब जगत में चीन का मानना है कि फिलहाल जो भी ताकतें तेल की राजनीति से संचालित इस क्षेत्र को अमेरिकी प्रभुत्व से मुक्त कराने में सहायक हो सकती हैं, उनके साथ गठजोड़ किया जा सके.

इसी सोच के अनुसार चीन ने ईरानियों, हिज्बुल्लाह की सैन्य टुकड़ियों के साथ-साथ कुर्दों का सहकार स्वीकार कर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया. अब तुर्की इस रणनीति में जब विघ्न डालता नजर आ रहा है, तब चीन की नाराजगी स्वाभाविक है.

तुर्की भले ही अपने को एक इस्लामी राज्य मानता है, उसकी पहचान कमोबेश पश्चिमी मिजाज की जनतांत्रिक राज्य वाली रही है. कमाल अतातुर्क के जमाने से ही तुर्की का आधुनिकीकरण खिलाफत के खात्मे के साथ शुरू हुआ था और वहां धर्मनिरपेक्षता बनाम इस्लामी कट्टरपंथी की लड़ाई काफी पुरानी चल रही है.

दिलचस्प यह है कि एर्दोगान एक ओर तो फौज के समर्थन से सत्ता में बने हुए हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें इस्लामी तत्वों का भी समर्थन प्राप्त है. विडंबना यह है कि अमेरिका में शरण लिये जो इस्लामी उलेमा एर्दोगान का प्रतिरोध कर रहे हैं, उनके प्रति भी पाकिस्तान भले ही आत्मीय रिश्ता बरकरार रखने को आतुर हो, लेकिन चीन की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है.

हम इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते कि चीन इस समय अमेरिका के साथ एक कठिन वाणिज्य युद्ध की चुनौती झेल रहा है. चीन को राजनयिक दृष्टि से अपने हित में लगता है कि तुर्की में और शेष अरब जगत में भी अमेरिका कमजोर पड़े. यदि तुर्की अमेरिका की शह पर कुर्दों पर हमला बोलता है (जैसा उसने कर दिया है), तब यह चीन की नजर में एक तीर से दो शिकार है.

एक ओर तुर्की की अर्थव्यश्वस्था तहस-नहस होने से सामाजिक अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल का सूत्रपात होगा, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका की स्थिति बहुत कमजोर होगी और चीन को पैर पसारने का मौका मिलेगा. इस समय ट्रंप महाभियोग के कठघरे में भी खड़े हैं और तुर्की को तबाह करने की उनकी धमकी काफी हद तक अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है.

उधर, यदि संयोगवश ब्रेक्जिट की गुत्थी सुलझ भी जाती है, तो देर तक फ्रांस या जर्मनी (जो तुर्की शरणार्थियों को लेकर परेशान रहे हैं) तुर्की की तरफ ध्यान देने की स्थिति में नहीं होंगे.

यह आशा करना व्यर्थ है कि पुतिन तुर्की में दखलअंदाजी की कोई चेष्टा करेंगे. कश्मीर मसले पर जिन गिने-चुने इस्लामी देशों ने पाकिस्तान का साथ दिया था, उनमें तुर्की एक है. तुर्की का समर्थन पाकिस्तानी इस्लामी तानाशाहों की मजबूरी है. चीन अपने शिनजियांग के उग्यूर में इस्लामी कट्टरपंथी के संकट से न तो अपरिचित है, न ही निकट भविष्य में हांगकांग के सिरदर्द से मुक्त होनेवाला है.

पाकिस्तान की ललक यह भी है कि वह खुद को एक आधुिनक इस्लामी राज्य के रूप में पेश कर सके. इसलिए तुर्की का पतन और ईरान का अमेरिका के निशाने पर होना पाकिस्तान को दुस्साहसिक राजनयिक के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. कुल मिलाकर, भारत-पाक संबंधों के संदर्भ में इस मतभेद से कोई अंतर पड़नेवाला नहीं है.

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