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जीवनसाथी की मौत के बाद भूख का अत्याचार क्यों?

<figure> <img alt="विधवा" src="https://c.files.bbci.co.uk/4E5E/production/_108726002_b8affe8e-5ab8-4ab8-b8c9-57eb65571505.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>किसी के लिए भी जीवनसाथी का गुज़र जाना बेहद तकलीफ़देह होता है. लेकिन दुनिया में ऐसे कई रिवाज हैं जो विधवाओं की ज़िंदगी और नरक बना देते हैं. ख़ास तौर से खाने के मामले में.</p><p>कई संस्कृतियों में विधवाओं को खान-पान के संस्कार से दूर ही रखा […]

<figure> <img alt="विधवा" src="https://c.files.bbci.co.uk/4E5E/production/_108726002_b8affe8e-5ab8-4ab8-b8c9-57eb65571505.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>किसी के लिए भी जीवनसाथी का गुज़र जाना बेहद तकलीफ़देह होता है. लेकिन दुनिया में ऐसे कई रिवाज हैं जो विधवाओं की ज़िंदगी और नरक बना देते हैं. ख़ास तौर से खाने के मामले में.</p><p>कई संस्कृतियों में विधवाओं को खान-पान के संस्कार से दूर ही रखा जाता है. उन्हें अच्छा और पोषक तत्वों से भरपूर खाना नहीं दिया जाता. बल्कि उन्हें नुक़सान पहुंचाने वाली ख़तरनाक खाने-पीने की चीज़ें खाने को मजबूर किया जाता है.</p><p>अफ्रीकी देश घाना में उन विधवाओं को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ सहनी पड़ती है जो ग़रीब होती हैं. </p><p>हालांकि घाना ने विधवाओं के मातम मनाने की नुक़सान पहुंचाने वाली परंपराओं से मुक्ति पाने की कोशिश की है. लेकिन अभी भी कई विधवाओं को जान-बूझकर पोषण युक्त खाना खाने से रोका जाता है. </p><p>इतना ही नहीं, उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जाता है.</p><p>कई इलाक़ों में विधवाओ को ऐसा सूप पीने को मजबूर किया जाता है, जिसमें उनके दिवंगत पति के शरीर के हिस्से मिले होते हैं.</p><p>उत्तरी घाना के एक स्वयंसेवी संगठन ‘विडोज़ ऐंड ऑरफ़न्स मूवमेंट’ के निदेशक फाती अबुद्लाई बताते हैं कि, &quot;ये सूप बनाने के लिए मृतक के बाल और नाखूों का इस्तेमाल होता है. शव को नहलाने के लिए जो पानी इस्तेमाल होता है, उसी से सूप बनाकर विधवाओं को पीने को मजबूर किया जाता है.&quot;</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/science-38981913?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">ज्यादा तेल-घी वाला खाना भी करता है लिंग भेद</a></p><figure> <img alt="विधवा" src="https://c.files.bbci.co.uk/DEE6/production/_108726075_71187d3b-7de8-41c3-831d-e66fb156fe5d.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Katie Horwich/BBC</footer> </figure><p>कुछ विधवाएं पैसे देकर इस घिनौने रिवाज से ख़ुद को बचा सकती हैं. लेकिन घाना की ज़्यादातर विधवाएं बेहद ग़रीबी में जीवन बसर करती हैं. </p><p>ऐसे में उनके पास इस घिनौने सूप से बचने के लिए देने को पैसे नहीं होते. </p><p>चूंकि घाना में ये परंपरा है कि मरने वाले की संपत्ति उसके परिवार को मिलती है. तो बहुत सी महिलाओं से अपने पति के खेत भी छिन जाते हैं. वो अपने खेत तभी बचा पाती हैं जब अपने गुज़र चुके शौहर के किसी परिजन से शादी कर लें.</p><p>एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ दुनिया भर में क़रीब 28.5 करोड़ विधवाएं हैं. इन में से 10 फ़ीसदी बेहद ग़रीबी में जीवन बिताती हैं. बहुत से देशों में विधवा होना शर्मिंदगी की बात होती है. </p><p>संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि विधवाएं जिस शोषण की शिकार होती हैं, वो मानवाधिकारों के उल्लंघन के सबसे गंभीर मामलों में से एक है.</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-37453561?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">ज़मीन पर खाना खाती महिला और ‘ज़मींदोज़ व्यवस्था'</a></p><figure> <img alt="खाना" src="https://c.files.bbci.co.uk/C38E/production/_108726005_7991bb64-18f2-494c-9df9-622d847bc383.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Thinkstock</footer> </figure><h3>मछली, अंडे और मांस खाने पर पाबंदी</h3><p>दुनिया के कई हिस्सों में उन विधवाओं के साथ भी नाइंसाफ़ी होती है, जो समाज के बेहद अमीर तबक़े से आती हैं. </p><p>बंगाली खान-पान की इतिहासकार चित्रिता बैनर्जी के मुताबिक़ पश्चिम बंगाल के हिंदू समाज में आज से कुछ दशक पहले तक समाज के सबसे ऊंचे तबक़े से ताल्लुक़ रखने वाली विधवाओं को भी अपने पति के गुज़र जाने के बाद कई प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता था.</p><p>चित्रिता बैनर्जी बताती हैं, &quot;विधवाओं को अच्छे खान-पान से महरूम रखा जाता था. उसके साथ ऐसा बर्ताव होता था जैसे कि वो उस परिवार से ताल्लुक़ ही न रखती हो. जैसे कि उनके पति की मौत उन्हीं की वजह से हुई हो, जिसका उन्हें पश्चाताप करना पड़ता था और ये पश्चाताप उसे अच्छे खाने से दूर रख कर कराया जाता था.'</p><p>चित्रिता ने अपने बचपन में ख़ुद अपनी दादी के साथ ऐसा बर्ताव होते हुए देखा था. </p><p>वो उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं, &quot;विधवा होने के बाद दादी की ज़िंदगी में जो बदलाव आया, वो मुझे सदमा देने वाला था. उन्होंने चमकदार और चटख रंगों वाली साड़ियां पहननी छोड़ दीं. सारे गहने उतार दिए और केवल सफ़ेद साड़ी पहनने लगीं. मेरी दादी ने परिवार के बाक़ी लोगों के साथ खाना छोड़ दिया. वो खाने में बनी सारी चीज़ें नहीं खा सकती थीं क्योंकि अब कुछ व्यंजन उनके लिए प्रतिबंधित हो गए थे. लेकिन, जब वो ख़ुद खाना पकाती थीं, तो उनकी बनाई कई चीज़ें बेहद स्वादिष्ट होती थीं.&quot;</p><p>खान-पान की इतिहासकार के तौर पर अब चित्रिता बैनर्जी को ये समझ में आता है कि उनकी दादी ने खाने की कई चीज़ों का विकल्प मसालों में तलाश लिया था. </p><p>वो बताती हैं, &quot;मेरी दादी प्याज नहीं खा सकती थीं. तो वैसा ही स्वाद लाने के लिए वो हींग का इस्तेमाल करती थीं.&quot;</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-41223190?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">वो औरतें परिवार के साथ क्यों नहीं खातीं?</a></p><figure> <img alt="विधवा" src="https://c.files.bbci.co.uk/105F6/production/_108726076_d251d835-4b61-448c-8751-5337a6dbc3cc.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Chitrita Banerjee</footer> <figcaption>चित्रिता बैनर्जी की मां और दादी</figcaption> </figure><p>भले ही हम दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, मातम के दौर से गुज़रते हुए हमें पोषण से भरपूर खाने की ज़रूरत होती है ताकि हमें खाने से कुछ तो सुकून मिल सके. लेकिन हम जिस इंसान के साथ खाते हुए सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारते हैं, उसका गुज़र जाना, खाने के समय को और भी तकलीफ़देह बना देता है. इसका हमारी शारीरिक और मानसिक सेहत पर बहुत बुरा असर होता है.</p><p>चीन, यूरोप और अमरीका में हुई रिसर्च में ये बात सामने आई है कि बुज़ुर्गों के बीच, विधवाओं का ताल्लुक़ अक्सर घटिया दर्जे के खाने से होता है. विधवाओं का खाना नीरस होता है. उनमें विविधता कम होती है. इससे उनका वज़न कम हो जाता है.</p><p>पोषण की रिसर्चर एलिसाबेथ वेसनावेर ने कनाडा की 70 से 80 साल के दौर की विधवाओं के खान-पान पर बड़ी गहराई से रिसर्च की है. </p><p>एलिसाबेथ बताती हैं, &quot;मेरी दो दादियां थीं. दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल ही विपरीत ध्रुवों पर खड़ी हुई थीं. एक के पति की मौत के महज़ दो साल बाद ख़ुद उनकी मौत हो गई,जबकि उन्हें कोई बीमारी नहीं थी. लेकिन उन्होंने अपने मरहूम पति के खाने के मुताबिक़ ख़ुद को भी ढाल लिया था, जबकि उनके पति बीमार थे. वहीं, दूसरी तरफ़ मेरी नानी थीं, जो खाने को दवा की तरह खाती थीं. ये ख़ुद की देखभाल का उनका अपना तरीक़ा था.&quot;</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>:</strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/international-46552974?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">#100WOMEN खाना पकाने से बदल गया ‘एक हिंसक व्यक्ति’</a></p><figure> <img alt="जीवनसाथी की मौत" src="https://c.files.bbci.co.uk/B7D6/production/_108726074_2660d84a-6eab-4bea-842e-047d0d27acbc.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Katie Horwich/BBC</footer> </figure><h3>विधवाओं पर मृत्यु दर का असर</h3><p>अपनी रिसर्च में एलिसाबेथ ने पाया कि विधवाएं हों या विधुर, दोनों के अपने जीवनसाथी की मौत के दो साल के अंदर मर जाने का ख़तरा होता है. ये अपने जीवनसाथी के गुज़र जाने का ऐसा असर है, जिससे हम सब वाक़िफ़ हैं. </p><p>एलिसाबेथ का मानना है कि इसका ताल्लुक़ खान-पान से है. वो कहती हैं कि, &quot;रिसर्च हमें बताता है कि विधवा होने के बाद खान-पान ही नहीं, उसमें मौजूद पोषक तत्वों की तादाद भी कम हो जाती है. हम ने देखा है कि विधवाएं कम खाती हैं. उनका वज़न बेइरादा कम होता जाता है. वो ख़ुश भी कम ही रहती हैं. वहीं, बुज़ुर्ग पुरुष अपने लिए खाना पकाना कभी नहीं सीखते.&quot;</p><p>हालांकि एलिसाबेथ ये भी कहती हैं कि मामला सिर्फ़ खाना बनाना आने का नहीं है. वो कहती हैं कि महिलाएं आम तौर पर नकारात्मकता के माहौल में भी सबको खाना बनाती खिलाती रहती हैं.</p><p>एक महिला ने रिसर्च करने वालों को बताया कि जब उनके पति की मौत हो गई तो उनका बिस्तर से उठने का मन ही नहीं करता था. कई बार तो वो सुबह 11 बजे या फिर दोपहर बाद तीन बजे तक बिस्तर पर ही पड़ी रहती थीं. उनका खाने-पीने का समय भी अनियमित हो गया था.</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/vert-fut-44344084?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">कोई साथ हो तो हम इसलिए खाते हैं ज़्यादा खाना</a></p><figure> <img alt="जीवनसाथी की मौत" src="https://c.files.bbci.co.uk/111AE/production/_108726007_bdd78dee-d34f-4625-a4aa-d66e63ec6ee9.jpg" height="549" width="976" /> <footer>PA</footer> </figure><p>एलिसाबेथ ने अपनी रिसर्च के दौरान ये देखा कि विधवा होने से पहले जो महिलाएं ख़ुशी-ख़ुशी खाना पकाती थीं, वो विधवा होने के बाद खाना बनाने में दिलचस्पी खो देती थीं. उनके लिए तो खुद खाना भी मुश्किल हो जाता था, जबकि उन्हें अपने लिए ही खाना था. </p><p>वहीं, जो महिलाएं विधवा होने से पहले से ही खाना बनाने से दूर रहती थीं, उनके लिए पति के गुज़र जाने के बाद ख़ुद को संभालना थोड़ा आसान होता पाया गया.</p><p>वहीं, कुछ मर्दों को विधुर होने के बाद नए हुनर सीखते हुए भी देखा गया है. </p><p>माइकल फ्रीलैंड एक फ्रीलांस पत्रकार हैं. उन्होंने अपनी पत्नी सारा के साथ विवाह के बाद 52 वर्ष साथ गुज़ारे थे. लेकिन छह साल पहले जब सारा की मौत हो गई, तो माइकल के लिए खाने का वक़्त सबसे मुश्किल हो गया. </p><p>वो कहते हैं कि, &quot;सारा के जाने के बाद खाने में कोई लुत्फ़ ही नहीं रह गया था.&quot;</p><p>उनका वज़न बहुत कम हो गया था. और दोबारा उसे हासिल करने में काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी. माइकल कहते हैं, &quot;मैं उस वक़्त बहुत ही कम खाने लगा था. लेकिन, धीरे-धीरे मुझे अंडे की भुर्जी बनानी आ गई.&quot;</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/india-49609387?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">मिड डे मील योजना भारत के लिए क्यों ज़रूरी है </a></p><figure> <img alt="जीवनसाथी की मौत" src="https://c.files.bbci.co.uk/15FCE/production/_108726009_6241dc4e-89f8-4e25-a727-9cbbc7d97381.jpg" height="549" width="976" /> <footer>PA </footer> </figure><p>माइकल के दोस्त और परिजन उनसे बहुत हमदर्दी रखते थे. इसलिए वो उन्हें अक्सर खाने पर बुलाया करते थे. </p><p>माइकल बताते हैं, &quot;मुझे इन डिनर पार्टियों में जाने पर अक्सर अफ़सोस होता था. ऐसा लगता था कि मैं लोगों की कृपा का पात्र बन गया हूं. मुझे ऐसा लगता था कि जैसे मैंने कोई किताब उधार ली है और मुझे उसे लौटाना होगा. फिर मैंने सोचा कि मुझे ख़ुद लोगों को दावत पर बुलाना चाहिए.&quot;</p><p>आख़िरकार माइकल के बच्चों ने उन्हें इस बात के लिए राज़ी किया कि वो खाना बनाने की क्लास लें. वो भी उम्र के आठवें दशक में.</p><p>कुकिंग की क्लास में जाने के बाद माइकल अंडों के अलावा और भी बहुत कुछ बनाने लगे. वो मछलियां पकाने लगे, कबाब बनाने लगे और एपल टार्ट बनाना भी उनको आ गया. उनके परिवार के सदस्यों ने भी अपने व्यंजनों की रेसिपी उन्हें बताई, जो उन्होंने बनाई भी.</p><p>माइकल ने बीबीसी को बताय कि ये एक अलग ही तजुर्बा था और इसने उनकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल दी.’ ये इंटरव्यू रिकॉर्ड होने के बाद अब माइकल की मौत हो चुकी है.</p><p><strong>ये भी पढ़ें</strong><strong>: </strong><a href="https://www.bbc.com/hindi/vert-fut-44635004?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">अगर पता चल जाए कि आप कब-कैसे मरने वाले हैं तो…</a></p><figure> <img alt="खाना" src="https://c.files.bbci.co.uk/69B6/production/_108726072_fbf3b17f-ba8e-47a9-8c7e-4d7b4ad27b88.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p><strong><em>तो हम उन लोगों की मदद कैसे कर सकते हैं, जिन्होंने अपना जीवनसाथी खो दिया है?</em></strong></p><p>अमरीका की राजधानी वॉशिंगट डीसी में रहने वाली पेस्ट्री शेफ और लेखिका लिसा कोल्ब इस बारे में कुछ सुझाव देती हैं. </p><p>लिसा के पति की शादी के 19 महीने बाद ही पहाड़ों पर चढ़ते वक़्त एक हादसे में मौत हो गई थी. उस वक़्त दोनों की उम्र केवल 34 बरस थी. </p><p>लिसा कहती हैं कि, &quot;अपने जीवनसाथी के साथ आप मिलकर खाना बनाते हैं. साथ में खाते हैं. दावतों में भी साथ जाते हैं. लेकिन, जब आप अपने जीवनसाथी को अचानक खो देते हैं, तो आप बेहद अकेले हो जाते हैं. फिर किचन की खाली टेबल पर नज़र पड़ते ही बेहद तकलीफ़ होती है.&quot;</p><p>लिसा का कहना है कि यूं तो अपने साथ किसी दावत में खाना लाना ऐसे में एक विकल्प हो सकता है. लेकिन इससे बेहतर होगा, लोगों को अपने यहां खाने पर बुलाना. </p><p>लोग ये सोचते हैं कि मैंने तो केवल छौंक लगा कर ये बनाया है, कोई इसे क्यों खाना पसंद करेगा? लेकिन ये सिर्फ़ सादा खाने का मामला नहीं है. बल्कि ये लोगों के बीच में होने का अच्छा एहसास है, जो लोगों को न्यौता देने पर मिलता है. फिर आप को लगता है कि आपका ख़याल रखने वाले लोग हैं.</p><p>अगर आप किसी शख़्स को जीवनसाथी के गुज़र जाने का शोक मनाते हुए देखते हैं और आप को ये समझ में नहीं आता कि आप क्या कहें? कैसे ढांढस बंधाएं? </p><p>ऐसे में उनके लिए खाना पकाना या फिर उन्हें अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित करना, उनसे हमदर्दी जताने का सबसे मज़बूत तरीक़ा हो सकता है.</p><p><strong><em>इस लेख में शामिल इंटरव्यू बीबीसी के पुरस्कार प्राप्त एपिसोड, ‘द </em></strong><strong><em>फ़ूड </em></strong><strong><em>चेन विडोड:</em></strong><strong><em>फ़ूड </em></strong><strong><em>आ</em></strong><strong><em>फ़्टर</em></strong><strong><em> लॉस’ का एक हिस्सा हैं.</em></strong></p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम </a><strong>और 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