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जौहर पर जौहर

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार जीवन पर साहित्य का कोई प्रभाव नहीं होता, आम लोग नहीं, बहुत-से साहित्यकार भी ऐसा ही समझते हैं. उनका खयाल है कि जीवन का तो साहित्य पर प्रभाव पड़ता है, पर साहित्य का जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अगर पड़ता, तो केवल साहित्य को ही समाज का दर्पण न बताया […]

सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
जीवन पर साहित्य का कोई प्रभाव नहीं होता, आम लोग नहीं, बहुत-से साहित्यकार भी ऐसा ही समझते हैं. उनका खयाल है कि जीवन का तो साहित्य पर प्रभाव पड़ता है, पर साहित्य का जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अगर पड़ता, तो केवल साहित्य को ही समाज का दर्पण न बताया जाता, समाज को भी साहित्य का दर्पण बताया जाता. वे अपनी रचनाओं में गालियों का जमकर प्रयोग इसीलिए करते पाये जाते हैं, क्योंकि समाज में ऐसा ही होता है. और ऐसा करते हुए उन्हें यह अपराध-बोध भी नहीं होता कि समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि साहित्य का तो उनके अनुसार समाज पर प्रभाव पड़ता ही नहीं.
स्कूल-कॉलेजों में साहित्य के विद्यार्थियों पर उसका प्रभाव तुरंत पड़ता है. साहित्य की पोथी पढ़ि-पढ़ि जिस जग के मरने और फिर भी पंडित न होने की बात कबीर करते हैं, वह कोई और नहीं, विद्यार्थियों का ही जग है. बेचारे क्लास में खुली आंखों से झपकी लेकर स्थिति से निपटने की कोशिश करते हैं, या फिर कॉपी-किताबों में अपने साथी छात्र-छात्राओं की तस्वीरें बनाकर. खुद मैं बहुत दिनों तक ‘गोदान’ को गाय पालने के तौर-तरीके सिखानेवाली किताब समझता रहा. अवधी में लिखा होने के बावजूद ‘पद्मावत’ भी मुझे बहुत कठिन लगता था.
मेरे खयाल से तो हमारे अध्यापक को भी वह समझ में नहीं आता था, क्योंकि जब भी मैं उनसे उसके ‘रत्नसेन-पद्मावती विवाह-खंड’ की ‘देखा चांद सूर जस साजा, अस्टौ भाव मदन जनु गाजा. हुलसे नैन दरस मदमाते, हुलसे अधर रंग-रस-राते…’ जैसी पंक्तियों का अर्थ समझाने काे कहता, तो वे मुझे झिड़क देते. छात्राओं को वे जरूर अलग से ट्यूटोरियल रूम में समझाने का आश्वासन देते. तब मैं उन्हें लड़के-लड़की में भेद न करने के सरकारी नारे की याद भी दिलाता, पर शायद वे सरकार से सहयोग भी नहीं करना चाहते थे.
उनके असहयोग के कारण ही मैं आज तक यह नहीं समझ सका कि पद्मावती-रत्नसेन के मिलन को जायसी ने राम द्वारा लंका पर चढ़ाई क्यों कहा और उसे राम-रावण-युद्ध के रूप में क्यों चित्रित किया?
साहित्य के जीवन पर धीरे-धीरे पड़नेवाले स्थायी प्रभाव का उदाहरण भी ‘पद्मावत’ से बढ़कर और क्या हो सकता है, जिसकी एक पात्र पद्मावती को आज लगभग पौने पांच सौ साल बाद ऐतिहासिक माना जा रहा है और संजय लीला भंसाली द्वारा उस पर फिल्म बनाने को लेकर हंगामा बरपाया जा रहा है, और सरकार इतनी बेबस है कि उनसे यह भी नहीं कह पा रही कि हंगामा क्यूं है बरपा? वैसे ‘भाइयों’ का जौहर पर जौहर मचाना उचित है.
अपनी औरतों के मामले में वे उनके जौहर के सिवा कुछ नहीं देख सकते. आखिर वे उनसे इतना प्यार जो करते हैं कि जब ‘लव’ प्रेम के अर्थ में भारत में चलन में आया भी नहीं था, तब भी वे अपनी औरतों को ‘लवसा’ नाम की लोहे की पैंटी पहनाकर और उस पर ताला जड़कर ही बाहर निकलते थे.

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