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हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है

अमेरिका के शिकागो में दिया गया ऐतिहासिक भाषण हो, या मद्रास की साहित्य समिति और कलकत्ता में दिया गया व्याख्यान, स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर मानव समाज से जुड़े विषयों पर अपने विचारों से भारत ही नहीं, पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया. उनके भाषणों में भविष्य के भारत की तसवीर थी, तो युवाओं के लिए […]

अमेरिका के शिकागो में दिया गया ऐतिहासिक भाषण हो, या मद्रास की साहित्य समिति और कलकत्ता में दिया गया व्याख्यान, स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर मानव समाज से जुड़े विषयों पर अपने विचारों से भारत ही नहीं, पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया. उनके भाषणों में भविष्य के भारत की तसवीर थी, तो युवाओं के लिए शिक्षा और ज्ञान का अथाह सागर भी. पेश है उनके भाषणों के कुछ अंश..

शिकागो-भाषण

अमेरिका निवासी भगिनी तथा भ्रातृगण!

जिस सौहर्दता और स्नेह के साथ आपने हम लोगों का स्वागत किया, उसके फलस्वरूप मेरा हृदृय अकथनीय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा है. संसार के प्राचीन महर्षियों के नाम पर मैं आपको धन्यवाद देता हूं तथा सब धर्मो की माता स्वरूप हिंदू-धर्म एवं भिन्न-भिन्न संप्रदाय के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद प्रकट करता हूं.

मैं उन सज्जनों के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने इस मंच पर से प्राच्य-प्रतिनिधियों के संबध में आपको यह बतलाया है कि ये दूर देशवाले पुरुष सर्वत्र सहिष्णुता का भाव प्रसारित करने के निमित्त यश और गौरव के अधिकारी हो सकते हैं. मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को ‘सहिष्णुता’ तथा ‘सब धर्मो को मान्यता प्रदान’ करने की शिक्षा दी है. हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते हैं, वरन् समस्त धर्मो को सच्चा मान कर ग्रहण करते हैं. मुङो आपसे यह निवेदन करते गर्व हो रहा है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंगरेजी शब्द exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं. मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मो के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया है. मुङो यह बतलाते गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का पवित्र मंदिर रोमन-जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष अभिजात यहूदी आश्रय लेने दक्षिण भारत में आये और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगा कर शरण दी. ऐसे धर्म में जन्म लेने का मुङो अभिमान है. जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है. भाईयों, मैं आप लोगों को एक स्नेत्र के कुछ पद सुनाता हूं, जिसे मैं बचपन से गाता रहा हूं और जिसे प्रतिदिन लाखों मनुष्य गाया करते हैं.

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।

-’जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्नेतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभु! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं.’

यह सभा, जो संसार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सभाओं में से एक है, जगत् के लिए गीता के उस अद्भुत उपदेश की घोषणा एवं विज्ञापन है, जो हमें बतलाता है-

ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वत्र्मानुर्वतते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।-गीता, 4.11.

-’जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रत्यन्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं.’

सांप्रदायिक, संकीर्णता और इनसे भयंकर धर्म-विषयक उन्मत्तता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं. इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी, इन्होंने अनेक बार मानव रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली और समस्त जातियों को हताश कर डाला. यदि यह सब न होता, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. पर अब उनका भी समय आ गया है, और मैं पूर्ण आशा करता हूं कि जो घंटे आज सुबह इस सभा के सम्मान के लिए बजाये गये हैं, वे समस्त कट्टरताओं, तलवार या लेखनी के बल पर किये जानेवाले समस्त अत्याचारों तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की

पारस्परिक कटुताओं के लिए मृत्यु-नाद ही सिद्ध होंगे.

धर्म-महासभा : स्वागत के उत्तर में

(11 सितंबर,1893)

हमारा उद्देश्य क्या है?

संसार ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जीवन-समस्या गहरी और व्यापक हो रही है. उस पुराने जमाने में जबकि समस्त जगत् के अंखडत्वरूप वैदांति सत्य का प्रथम आविष्कार हुआ था, तभी से उन्नति के मूलमंत्रों और सारतत्वों का प्रचार होता आ रहा है. विश्वब्रह्मांड का एक परमाणु सारे संसार को अपने साथ बिना घसीटे तिल भर भी नहीं हिल सकता. जब तक सारे संसार को साथ-साथ उन्नति के पथ पर आगे नही बढ़ाया जायेगा, तब तक संसार के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है, और दिन प्रतिदिन यह और भी स्पष्ट हो रहा है कि किसी प्रश्न की मीमांसा सिर्फ जातीय, राष्ट्रीय या किन्हीं संकीर्ण भूमियों पर नहीं टिक सकती. प्रत्येक विषय को तथा प्रत्येक भाव को तब तक बढ़ाना चाहिए, जब तक उसमें सारा संसार न आ जाये. प्रत्येक आकांक्षा को तब तक बढ़ाते रहना चाहिए, जब तक वह समस्त मनुष्य जाति को ही नहीं, वरन् समस्त् प्राणि-जगत् को आत्मसात् न कर ले. इससे विदित होगा कि क्यों हमारा देश गत कई सदियों से वैसा महान नहीं रह गया है, जैसा वह प्रचीनकाल में था. हम देखते हैं कि जिन कारणों से वह गिर गया है, उनमें से एक कारण है, दृष्टि की संकीर्णता तथा कार्यक्षेत्र का संकोच.

जगत् में दो ऐसे आश्चर्यजनक राष्ट्र हो गये हैं, जो एक ही जाति से प्रस्फुटित हुए हैं, परंतु भिन्न परिस्थितियों और घटनाओं में स्थापित रह कर प्रत्येक ने जीवन की समस्याओं को अपने ही निराले ढंग से हल कर लिया है-मेरा मतलब प्रचीन हिंदू और प्राचीन यूनानी जातियों से है. भारतीय आर्यो की उत्तरी सीमा हिमालय की उन बर्फीली चोटियों से घिरी हुई है, जिनके तहमें समभूमि पर समुद्र सी स्वच्छतया सरिताएं हिलोरें मार रही हैं और वहां वे अनंत अरण्य वर्तमान हैं, जो आर्यो के संसार के अंतिम छोर से प्रतीत हुए. इन सब मनोरम दृश्यों को देख कर आर्यो का मन सहज ही अंतर्मुखी हो उठा. आर्यो का मुख सूक्ष्म-भावग्राही था, और चारों ओर घिरी महान दृश्यावली देखने का यह स्वाभाविक फल हुआ कि आर्य अंतस्तत्व के अनुसंधान में लग गये, चित्त का विेषण भारतीय आर्यो का मुख्य ध्येय हो गया. दूसरी ओर यूनानी जाति संसार के एक दूसरे भाग में पहुंची, जो उदात्त की अपेक्षा सुंदर अधिक था. यूनानी टापुओं के भीतर के वे सुंदर दृश्य, उनके चारों ओर की वह हास्यमयी किंतु निराभरण प्रकृति देख कर यूनानी का मन स्वाभावत: बहिर्मुख हुआ और उसने ब्रह्म-संसार का विश्लेषण करना चाहा. परिणामत: हम देखते हैं कि समस्त विश्लेषणात्मक विज्ञानों का विकास भारत में हुआ और सामान्यीकरण के विज्ञानों के विकास यूनान में. हिंदुओं का मानस अपनी ही कार्य-दिशा में अग्रसर हुआ और उसने अद्भुत परिणाम प्राप्त किये. यहां तक कि वर्तमान समय में भी, हिंदुओं की वह विचारशक्ति-वह अपूर्व शक्ति जिसे भारतीय मस्तिष्क अब तक धारण करता है-बेजोड़ है. हम सभी जानते हैं कि हमारे लड़के दूसरे देश के लड़कों से प्रतियोगिता में सदा ही विजय प्राप्त करते हैं. परंतु साथ ही, शायद मुसलमानों के विजय प्राप्त करने की दो शताब्दी पहले ही जब हमारी जातीय-शक्ति क्षीण हुई, उस समय हमारी यह जातीय प्रतिभा ऐसी अतिरंजित हुई कि वह स्वयं ही अधोपतन की ओर अग्रसर हुई और वहीं अधोपतन अब भारतीय शिल्प, संगीत, विज्ञान आदि प्रत्येक विषय में दिखायी दे रहा है.

शिल्प में अब वह व्यापक परिकल्पना नहीं रह गयी है, भावों की वह उदात्तता तथा रूपाकार के सौष्ठव की वह चेष्टा अब और नहीं रह गयी है, किंतु उसकी जगह अत्यधिक अलंकरण तथा भड़कीलेपन का समावेश हो गया है. जाति की सारी मौलिकता नष्ट हो चली है. संगीत में चित्त को मस्त कर देनेवाले वे गंभीर भाव, जो प्राचीन संस्कृत में पाये जाते हैं, अब नहीं रहे-पहले की तरह उनमें से प्रत्येक स्वर अब अपने पैरों पर खड़ा हो सकता, वह अपूर्व एकतानता नहीं छोड़ सकता. प्रत्येक स्वर अपनी विशिष्टता खौ बैठा है. हमारे समग्र आधुनिक संगीत में नाना प्रकार के स्वर-रागों की खिचड़ी हो गयी है, उसकी बहुत ही बुरी दशा हो गयी है. संगीत की अवनति का यही चिह्न् है. इसी प्रकार यदि तुम अपनी भावात्मक परिकल्पनाओं का विश्लेषण करके देखो, तो तुमको वही अतिरंजना और अलंकरण की ही चेष्टा और मौलिकता का नाश मिलेगा, और यहां तक कि तुम्हारे विशेष क्षेत्र धर्म में भी, वही भयानक अवनति हुई है. उस जाति से तुम क्या आशा कर सकते हो, जो सैकड़ों वर्ष तक यह जटिल प्रश्न हल करती रह गयी कि पानी भरा लोटा दाहिने हाथ से पीना चाहिए या बायें हाथ से. इससे और अधिक अवनति क्या हो सकती है कि देश के बड़े-बड़े मेधावी मनुष्य भोजन के प्रश्न को लेकर तर्क करते हुए सैंकड़ों वर्ष बिता दें, इस बात पर वाद-विवाद करते हुए कि तुम हमें छूने लायक हो या हम तुम्हें, और इस छूत-अछूत के कारण कौन सा प्रायश्चित करना पड़ेगा? वेदांत के वे तत्व, ईश्वर और आत्मा संबंधी सबसे उदात्त महान सिद्धांत, जिनका सारे संसार में प्रचार हुआ था, प्राय: नष्ट हो गये, निबिड़ अरण्य निवासी कुछ संन्यासियों द्वारा रक्षित होकर वे छिपे रहे और शेष सब लोग केवल छूत-अछूत, खाद्य-अखाद्य और वेशभूषा जैसे गुरुत्तर प्रश्नों को हल करने में व्यस्त रहे! हमें मुसलमानों से कई अच्छे विषय मिले, इसमें कुछ संदेह नहीं, किंतु वे हमारी जाति में शक्ति का संचार नहीं कर सके.

इसके पश्चात शुभ के लिए हो, चाहे अशुभ के लिए, भारत में अंगरेजों की विजय हुई. किसी जाति का विजित होना नि:संदेह बुरी चीज है, विदेशियों का शासन कभी भी कल्याणकारी नहीं होता. किंतु फिर भी, अशुभ के माध्यम से कभी-कभी शुभ का आगमन होता है. अतएव, अंगरेजों की विजय का शुभ फल ये है: इंग्लैंड तथा समग्र यूरोप को सभ्यता के लिए यूनान के प्रति ऋणी होना चाहिए, क्योंकि यूरोप के सभी भावों में मानो यूनान का ही प्रतिनिधित्व सुनायी दे रहा है. यहां तक कि उसके प्रत्येक मकान में, मकान के प्रत्येक फर्नीचर में यूनान की ही छाप दिखायी पड़ती है. यूरोप के विज्ञान, शिल्प आदि सभी यूनान ही के प्रतिबिंब हैं. आज वहीं प्राचीन यूनान तथा प्राचीन हिंदू भारत-भूमि पर मिल रहे हैं. इस प्रकार धीर और नि:स्तब्ध भाव से एक परिवर्तन आ रहा है और आज हमारे चारों ओर जो उदार, जीवनप्रद पुनरुत्थान का आंदोलन दिखायी दे रहा है, वह सब इन दो विभिन्न भागों के सम्मिलन का ही फल है. अब मानव जीवन संबंधी अधिक व्यापक और उदार धारणाएं हमारे सम्मुख हैं. यद्यपि हम पहले कुछ भ्रम में पड़ गये थे और भावों को संकीर्ण करना चाहते थे, पर अब हम देखते हैं कि आजकल ये जो महान भाव और जीवन की ऊंची धारणाएं काम कर रही हैं, हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखे हुए तत्वों की स्वाभाविक परिणति ही है. ये उन बातों का यथार्थ न्यायसंगत कार्यान्वयन मात्र है, जिनका हमारे पूर्वजों ने पहले ही प्रचार किया था. विशाल बनना, उदार बनना, क्रमश: सार्वभौम भाव में उपनीत होना- यही हमारा लक्ष्य है. परंतु हम ध्यान न देकर अपने शास्त्रोपदेशों के विरुद्ध दिनोंदिन अपने को संकीर्ण से संकीर्णतर करते जा रहे हैं.

हमारी उन्नति के मार्ग में कुछ विघ्न हैं और उनमें प्रधान हैं, हमारी यह धारणा कि संसार में हम सर्वोच्च जाति के हैं. मैं हृदय से भारत को प्यार करता हूं. स्वदेश के हितार्थ मैं सदा कमर कसे तैयार रहता हूं, पूर्वजों पर मेरी आंतरिक श्रद्धा और भक्ति है, फिर भी मैं अपना यह विचार नहीं त्याग सकता कि संसार से हमें भी बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त करनी है, शिक्षा-ग्रहणार्थ हमें सब के पैरों तले बैठना चाहिए, क्योंकि ध्यान इस बात पर देना आवश्यक है कि सभी हमें महान शिक्षा दे सकते हैं. हमारे महान श्रेष्ठ स्मृतिकार मनु महराज की उक्ति है, ‘नीच जातियों से भी श्रद्धा के साथ हितकारी विद्या ग्रहण करनी चाहिए और निम्नतम अन्त्यज ही क्यों न हो, सेवा द्वारा उससे भी श्रेष्ठ धर्म की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए.

अतएव, यदि हम मनु की सच्ची संतान हैं, तो हमें उनके आदेशों को अवश्य ही पालन करना चाहिए और जो कोई हमें शिक्षा देने के योग्य है, उसी से ऐहिक या पारमार्थिक विषयों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए हमें सदा तैयार रहना चाहिए. किंतु साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संसार को हम भी कोई विशेष शिक्षा दे सकते हैं. भारत का बाहर के देशों से संबंध जोड़े बिना हमारा काम नहीं चल सकता. किसी समय हम लोगों ने जो इसके विपरीत सोचा था, वह हमारी मूर्खता मात्र थी और उसी की सजा का फल है कि हजारों वर्षो से हम दासता के बंधनों में बंध गये हैं. हम लोग दूसरी जातियों से अपनी तुलना करने के लिए विदेश नहीं गये और हमने संसार की गति पर ध्यान रख कर चलना सीखा. यही भारतीय मन की अवनति का प्रधान कारण है. हमें पर्याप्त सजा मिल चुकी है, अब हमें ऐसा नहीं करना चाहिए. भारत से बाहर जाना भारतीयों के लिए अनुचित है-इस प्रकार की वाहियात बातें बच्चों की ही हैं. उन्हें दिमाग से बिल्कुल निकाल फेंकनी चाहिए. जितना ही तुम भारत से बाहर अन्यान्य देशों में घूमोगे, उतना ही तुम्हारा और तुम्हारे देश का कल्याण होगा. यदि तुम पहले ही से-कई्र सदियों से पहले ही से-ऐसा करते, तो आज उन राष्ट्रों से पदाक्रांत न होते, जिन्होंने तुम्हें दबाने की कोशिश की. जीवन का पहला और स्पष्ट लक्षण है विस्तार. अगर तुम जीवित रहना चाहते हो, तो तुम्हे विस्तार करना ही होगा. जिस क्षण से तुम्हारे जीवन का विस्तार बंद हो जायेगा, उसी क्षण से जान लेना कि मृत्यु ने तुम्हे घेर लिया है, विपत्तियां तुम्हारे सामने हैं.

(ट्रिप्लिकेन व्याख्यान)

नवयुवकों का आह्वान

प्रत्येक जाति के लिए उद्देश्य साधन की अलग-अलग प्रणालियां हैं. कोई राजनीति, कोई समाज सुधार और कोई किसी दूसरे विषय को अपना प्रधान आधार बना कर कार्य करती है. हमारे लिए धर्म की पृष्ठभूमि लेकर कार्य करने के सिवा दूसरा उपाय नहीं है. अंगरेज राजनीति के माध्यम से भी धर्म समझ सकते हैं. अमेरिकी शायद समाज सुधार के माध्यम से धर्म समझ सकते हैं. परंतु हिंदू राजनीति, समाज विज्ञान और दूसरा जो कुछ है, सबको धर्म के माध्यम से ही समझ सकते हैं. हमारे राष्ट्रीय जीवन संगीत का मानो यही प्रधान स्वर है. दूसरे तो उसी के कुछ परिवर्तित किये हुए गौण स्वर हैं. और इसी प्रधान स्वर के नष्ट होने की शंका हो रही थी. ऐसा लगता है मानो हम लोग अपने राष्ट्रीय जीवन के इस मूल भाव को हटा कर उसकी जगह एक दूसरा भाव स्थापित करने जा रहे थे. हम लोग जिस मेरूदंड के बल पर खड़े हुए हैं, मानो उसकी जगह दूसरा कुछ स्थापित करने जा रहे थे. अपने राष्ट्रीय जीवन के धर्मरूपी मेरूदंड की जगह राजनीति का मेरूदंड स्थापित करने जा रहे थे. यदि इसमें हमें सफलता मिलती, तो इसका पूर्ण फल विनाश होता. परंतु ऐसा होनेवाला नहीं था. यही कारण है कि इस महाशक्ति का आविर्भाव हुआ. मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि तुम इस महापुरुष को किस अर्थ में ग्रहण करते हो और उसके प्रति कितना आदर रखते हो, किंतु मैं तुम्हें यह चुनौती के रूप में अवश्य बता देना चाहता हूं, कि अनेक शताब्दियों से भारत में विद्यमान अद्भुत शक्ति का यह प्रकट रूप है.

(कलकत्ता व्याख्यान)

आगामी भारत

भारत की संतानों, तुमसे आज मैं यहां कुछ व्यावहारिक बातें कहूंगा. तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव की याद दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है: कितनी ही बार मुझसे कहा गया कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता, अत: हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए. यह सच है. परंतु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है. अत: जहां तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओ. हमारे पूर्वज महान थे. पहले यह बात हमें याद करनी होगी. हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है. उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उसके कृतित्व पर भी. इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा. अवश्य ही यहां, बीच-बीच में दुर्दशा और अवनति के युग भी रहे हैं, पर उनको मैं अधिक महत्व नहीं देता. ऐसे युगों का होना आवश्यक था. किसी विशाल वृक्ष से एक सुंदर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सड़ा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से बड़ा हो जाये. अवनति के जिस युग के भीतर से भविष्य का भारत आ रहा है, वह अंकुरित हो चुका है. उसके नये पल्लव निकल चुके हैं और उस शक्तिधर विशालकाय ऊध्र्वमूल वृक्ष का निकलना शुरू हो चुका है. और उसी के संबंध में मैं तुमसे कहने जा रहा हूं.

किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुत्तर हैं. जाति, धर्म, भाषा, शासन-प्रणाली-ये ही एक साथ मिल कर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं. यदि एक-एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाये, तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं, वे संख्या में यहां के उपादानों से कम हैं. यहां आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं-मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं. भाषा का एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है. आचार-व्यवहारों के संबंध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं. हमारी एकमात्र सम्मिलन-भूमि है- हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म. एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगा. यूरोप में राजनीति विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है. किंतु एशिया में राष्ट्रीय ऐक्य का आधार धर्म ही है. अत: भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की आवश्यकता है. देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकार करना होगा. एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है ? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है. हम जानते हैं, हमारे विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांत तथा दावे चाहे कितने ही विभिन्न क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ सिद्धांत ऐसे हैं, जो सभी संप्रदायों द्वारा मान्य हैं. उनको ही स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है. और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन-निर्वाह के लिए संपूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है. हम लोग, कम से कम वे, जिन्होंने इस पर विचार किया है, यह बात जानते हैं और अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्यतत्व हम सब के सामने लाएं और देश के सभी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, उन्हें जानें समङों तथा जीवन में उतारें-यही हमारे लिए आवश्यक है. सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है.

अत: हम देखते हैं कि एशिया में और विशेषत: भारत में जाति, भाषा, समाज संबंधी सभी बाधाएं धर्म की इस एकीकरण शक्ति के सामने उड़ जाती हैं. हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है. धर्म ही भारतीय जीवन का मूलमंत्र है और हम केवल सबसे कम बाधावाले मार्ग का अनुसरण करके ही कार्य में अग्रसर हो सकते हैं. यह केवल सत्य ही नहीं कि धार्मिक आदर्श यहां सबसे बड़ा आदर्श है, किंतु भारत के लिए कार्य करने का एकमात्र संभाव्य उपाय यही है. पहले उस पथ को सुदृढ़ किये बिना, दूसरे मार्ग से कार्य करने पर उसका फल घातक होगा. इसीलिए भविष्य के भारत-निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान, जिसे युगों के उस महाचाल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता ही है. यह शिक्षा हम सबको मिलनी चाहिए कि हम हिंदू-द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी या अद्वैतवादी, अथवा दूसरे संप्रदाय के लोग, जैसे शैव, वैष्णव, पाशुपति आदि भिन्न-भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में कुछ समान भाव भी रखते हैं, और अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिए, अपनी जाति के हित के लिए, हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें. सचमुच ये झगड़े बिल्कुल वाहियात हैं. हमारे शास्त्र इनकी निंदा करते हैं. हमारे पूर्वजों ने इनके बहिष्कार का उपदेश दिया है. लड़ाई-झगड़े छोड़ने के साथ ही अन्य विषयों की उन्नति अवश्य होगी, यदि जीवन का रक्त सशक्त एवं शुद्ध है, तो शरीर में विषैले किटाणु नहीं रह सकते. हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है. यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध है तो सब कुछ ठीक है. राजनीति, सामाजिक, चाहे जिस किसी तरह की ऐहिक त्रुटियां हों, चाहे देश की निर्धनता ही क्यों न हो, यदि खून शुद्ध है, तो सब सुधर जायेंगे.
(भारत में दिया गया अंतिम भाषण)

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