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कसौटी पर एनजीओ
– हरिवंश – ‘सिविल सोसाइटी’ के लिए जीएफके मोड द्वारा ‘एनजीओ’ के संबंध में किया गया सर्वे महत्वपूर्ण संकेतों से भरा है. जो राजनीति करते हैं या जो देश का गवर्नेस दुरुस्त करना चाहते हैं या जो भविष्य में भारत को महाशक्ति के रूप में देख रहे हैं, उन सभी के लिए यह सर्वे परिणाम […]
– हरिवंश –
‘सिविल सोसाइटी’ के लिए जीएफके मोड द्वारा ‘एनजीओ’ के संबंध में किया गया सर्वे महत्वपूर्ण संकेतों से भरा है. जो राजनीति करते हैं या जो देश का गवर्नेस दुरुस्त करना चाहते हैं या जो भविष्य में भारत को महाशक्ति के रूप में देख रहे हैं, उन सभी के लिए यह सर्वे परिणाम आंख खोलनेवाला है.
एनजीओ के समर्थन में आज देश का पब्लिक मूड है. पर यह पब्लिक रुझान किन कारणों से आज के समाज में एनजीओ समूहों की मुख्य भूमिका देखता है? इसकी जड़ में जायें, तो स्पष्ट होगा कि सरकारें या संस्थाएं या ‘स्टेट पावर’ के सभी अंग (आरगन) अपनी साख खो चुके हैं या खो रहे हैं. लोकतंत्र को जीवंत, विश्वसनीय और प्रभावी बनाने में सबसे अधिक राजनीतिक दल, विचार, नीतियां और नेता कारगर होते हैं. यह राजनीतिक ताकत या समूह, विधायिका (लेजिसलेटिव), कार्यपालिका (एक्जक्यूटिव) और न्यायपालिका के माध्यम से ‘पूरे स्टेट पावर’ को मजबूत, विश्वसनीय और प्रभावी बनाता है.
लेकिन आज इस पूरे सिस्टम (राजसत्ता) की साख दांव पर है. लोग राजनेताओं, राजनीतिक दलों पर विश्वास नहीं करते. कार्यपालिका अपनी अक्षमता और भ्रष्टाचार (इसके लिए भी राजनीतिक दल और सरकारें जिम्मेवार हैं) के कारण अविश्वसनीय बन गयी है. न्यायपालिका भी चुनौतियों से घिरी है. हालात यह है कि लोकतंत्र में ‘पब्लिक फेथ’ के जो-जो केंद्र बिंदु हैं, वे अविश्वसनीय होते गये हैं. इस गैप (सूनापन) को एनजीओ समूहों ने भरा है. पब्लिक को लगता है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण या शहरी विकास वगैरह के कार्य ‘एनजीओ’ के रूप में उभरा नया समूह या नयी लोक ताकत कर सकती है.
यह दोधारी तलवार है. बहुत पहले राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से चला 100 पैसा गांव पहुंचते-पहुंचते 16 पैसे रह जाते हैं. अब हालात बदतर ही हुए हैं. जो एनजीओ समूह स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास वगैरह कामों में लगे हैं, उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके माध्यम से होनेवाले कामों में यह स्थिति न हो. अब लोग शिक्षा या स्वास्थ्य या ग्रामीण विकास के कामों से तुरंत लाभ लेना चाहते हैं. लोग, अब बातों या आश्वासनों के सहारे नहीं जीना चाहते, वे रोज की जिंदगी में बेहतरी चाहते हैं. क्या एनजीओ समूह इस उम्मीद पर खरा उतरने की कोशिश कर सकता है? एनजीओ समूहों के अच्छे कामों से आकर्षित हो कर लोग एनजीओ समूहों के पक्ष में नहीं खड़े हो रहे, बल्कि अन्य लोकतांत्रिक समस्याओं की विफलता और अविश्वसनीयता के कारण लोग एनजीओ समूहों की ओर नयी उम्मीद में देख रहे हैं.
राजनीतिक शब्दावली (टर्मनालाजी) में कहें, तो जैसे एक सत्तारूढ़ पार्टी से नाराज हो कर लोग, निगेटिव मूड में किसी दूसरे दल को सत्ता सौंप देते हैं, जिसे निगेटिव वोटिंग कहा जाता है, यह भी कुछ वैसा ही है. चूंकि राजसत्ता या सरकार से जुड़ी समस्याएं अविश्वसनीय हो गयी हैं, इसलिए लोग नये विकल्प के रूप में एनजीओ समूहों की ओर देख रहे हैं.
पर एनजीओ समूहों के लिए यही सबक (लेशन) भी है. जिस तरह अधिसंख्य राजनीतिक दल, ‘परिवार लिमिटेड’ कंपनियों में बदल गये हैं, उससे पहला पाठ यह मिलता है कि एनजीओ समूहों को भी लोकतांत्रिक मूल्य-मर्यादा के अनुसार चलना पड़ेगा. परिवारवाद से बचना होगा, टांसप्रेंसी रखनी होगी. परिस्थितियों ने एनजीओ समूहों के प्रति लोक विश्वास पैदा किया है, अब एनजीओ समूहों को अपने काम के द्वारा समाज और जनता में विश्वसनीयता अर्जित करनी है.
इसके लिए जरूरी है कि एनजीओ समूह ‘सोशल आडिट’ के लिए तैयार हों. क्या एनजीओ दुनिया से जुड़े लोग अपने लिए कोई आचारसंहिता बना कर उसका पालन करेंगे? इसके लिए उन्हें पश्चिमी देशों की ओर न लौट कर गांधी की ओर लौटना होगा. गांधी ने अपने जीवन में अनेक रचनात्मक काम किये. पर जो कार्यकर्ता गांधी के ऐसे कामों से जुड़े, उनके लिए सख्त कसौटियां थीं.
सार्वजनिक हित या सेवा का व्रत लेने के बाद निजी प्राथमिकताएं गौण हो जाती थीं. साधन और साध्य के बीच तालमेल हो, यह कोशिश रहती थी. सार्वजनिक फंड के एक-एक पैसे का सही हिसाब रखा जाये, यह जरूरी था.
सार्वजनिक काम में लगे लोगों के आचरण, काम और उद्देश्य सार्वजनिक परीक्षा के विषय होते थे. बाद में विनोबा के साथ रहे रचनात्मक कार्यकर्ता या गांधी से प्रभावित लोग जिन राजनीतिक दलों में गये, उन्होंने राजनीति में भी एक विश्वसनीय मानदंड विकसित किया. धीरे-धीरे राजनीति उन मूल्यों-वसूलों से दूर होती गयी, इसलिए राजनीति अविश्वास का पात्र बन गयी. यह स्थिति एनजीओ समूहों के साथ न हो, यह उन्हें ध्यान रखना होगा.
यह सच है कि आज के भारत में एनजीओ समूहों की भूमिका बढ़ गयी है. कई एनजीओ समूह या इनसे जुड़े लोग समाज के लिए ‘रोल मॅाडल’ के रूप में दिखाई दे रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल अविश्वसनीय हो रहे हैं, तो नागरिक समूह खड़े हों. जिस सिविल सोसाइटी की हम कल्पना कर रहे हैं, उसे बनाने में एनजीओ समूहों की बड़ी भूमिका हो सकती है. लेकिन कुछेक एनजीओ समूहों को छोड़ कर अन्य के बारे में जो खबरें आती हैं, निराश करती हैं.
अनेक एनजीओ समूह फरजी तरीके से काम करने या फंड दुरुपयोग करने के कारण कपार्ट से दंडित हुए हैं. इसलिए जरूरी है कि समस्याओं के हल के लिए एक ‘पाजिटिव एप्रोच’ भी विकसित करने में एनजीओ समूह आगे आयें. गांधी जी की कसौटी थी कि पैसे आने के स्रोत और खर्च के विवरण सार्वजनिक हो. यह तरीका एनजीओ समूहों को अपनाना चाहिए. ‘सिविल सोसाइटी’ के सर्वेक्षण में लोगों की यह धारणा भी सामने आयी है कि एनजीओ समूह ‘पर्सनल एजेंडा’ या ‘पूर्वाग्रह’ से भी काम करते हैं. जनता की इस धारणा को बदलने की कोशिश भी एनजीओ समूहों को ही करना होगा.
एक धारणा यह भी है कि ‘सेमिनार’ या ‘डिबेट’ या ‘डिसकशन’ में ही इन समूहों का अधिक समय जाता है. धरातल पर काम में अगर यह ऊर्जा और संसाधन लगे, तो ज्यादा बेहतर हो. यह सही है कि मौजूदा भारतीय परिवेश में एनजीओ समूहों को एक ऐतिहासिक अवसर मिला है. क्योंकि सामान्य नागरिकों में किसी अन्य संस्था के प्रति आस्था नहीं है.
एनजीओ समूहों से लोग उम्मीद रखते हैं. पर यह उनके लिए परीक्षा की भी घड़ी है. अगर एनजीओ समूह ‘पारदर्शी’ तौर तरीके से कामकाज करने और अपने लोगों की जीवनपद्धति को ‘सार्वजनिक परीक्षा’ के तहत लाने का प्रयास करते हैं, तो एक नये समतापूर्ण-विकसित भारतीय समाज बनाने में उनकी भूमिका ऐतिहासिक होगी.
दिनांक : 15-03-07
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