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चंद्रशेखर : भीड़ में अकेले!

– हरिवंश – पिछले कई दशकों से अराजक और अशासित होते देश को देखता हूं. स्टेट पावर (राजसत्ता) के कोलैप्स (ध्वस्त )होने की आहट सुनता हूं, तो मुझे दो लोग याद आते हैं. पहले हैं, प्रो गुन्नार मिर्डल, क्लासिक ‘एशियन ड्रामा’ के लेखक, इस रचना पर नोबेल पुरस्कार पानेवाले दुनिया के प्रख्यात अर्थशास्त्री और दूसरे […]

– हरिवंश –
पिछले कई दशकों से अराजक और अशासित होते देश को देखता हूं. स्टेट पावर (राजसत्ता) के कोलैप्स (ध्वस्त )होने की आहट सुनता हूं, तो मुझे दो लोग याद आते हैं. पहले हैं, प्रो गुन्नार मिर्डल, क्लासिक ‘एशियन ड्रामा’ के लेखक, इस रचना पर नोबेल पुरस्कार पानेवाले दुनिया के प्रख्यात अर्थशास्त्री और दूसरे चंद्रशेखर.
एक अर्थशास्त्री. दूसरे 1980 के बाद देश की रहनुमाई करनेवालों की भीड़ में एकमात्र ‘स्टेट्समैन’. वह व्यावहारिक थे. ग्रासरूट की अद्भुत समझ थी. नाजुक मामलों की बारीकियां जानने और उन्हें संभालने की दक्षता और नैसर्गिक प्रतिभा उनमें थी. और सबसे बड़ी बात थी, जोखिम लेने का साहस.
प्रो गुन्नार मिर्डल ’60 के दशक में ‘एशियन ड्रामा’ में लिख गये कि भारत की असल समस्या ‘साफ्ट स्टेट’ (कमजोर सत्ता) होना है. गुजरे पचास वर्षों में यह धारणा पुष्ट हुई है. इसके पिछड़ेपन, अंदरूनी बिखराव, अराजकता और अविकास के मूल में है, इसका लगातार अशासित होते जाना. सरकारें हैं, ढांचा है, पूरी व्यवस्था है, प्रधानमंत्री से लेकर गांव तक. फिर भी देश में टूट, बिखराव और कलह है. राज का इकबाल या प्रताप चुक रहा है. राजनीतिक नेतृत्व के पास शासन-कौशल हो, जरूरी अलोकप्रिय निर्णय लेने का साहस हो, इस देश की मिट्टी से जिसका नाभि-नाल का रिश्ता हो, इतिहास की व्यापक समझ हो, और भविष्य का विजन हो, तो शासन-कौशल से देश की तकदीर बदल सकता है. बिना दुनिया से भीख मांगे. विश्व बैंक और पश्चिमी देशों की सहायता के बगैर.
लोकसभा में 50 सांसदों के समर्थन से 1990 नवंबर में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. तब देश जल रहा था, मंदिर और मंडल की आग में. चंद्रशेखर की पहली प्राथमिकता थी, स्थिति सामान्य करना. उनके पास विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने संदेश भेजा कि वे मिलना चाहते हैं. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि तुरंत आ जाइए, प्रधानमंत्री निवास या कार्यालय में ही.
तत्काल आने पर विश्व हिंदू परिषद में अनिर्णय था. यह जान कर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि आप लोगों की बैठक में मैं आ जाऊं? विश्व हिंदू परिषद के लोग हैरान व स्तब्ध. प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे लोग परेशान व बेचैन. चंद्रशेखर विश्व हिंदू परिषद की बैठक में पहुंच गये. साथ में कोई दूसरा नेता नहीं. राजमाता विजयराजे सिंधिया के घर पर यह बैठक हो रही थी. परिषद के सारे बड़े नेता जमा थे.
प्रधानमंत्री बीच बैठक में आये थे. अशोक सिंघल बोल रहे थे. अत्यंत उत्तेजना में. उग्र भाषा. खून की नदियां बहेंगी, वगैरह-वगैरह. बैठक के तापमान, बड़ी-बड़ी बातों और उन ‘डरावनी’ घोषणाओं का उन पर कोई असर नहीं. एकदम अप्रभावित, सामान्य, अविचलित और निर्विकार.
चंद्रशेखर के व्यक्तित्व की खासियत थी. उनमें अदम्य साहस था. संवेदना इतनी कि एक चिड़िया मर जाये, तो उसके लिए बेचैनी. पर भयंकर से भयंकर विषम परिस्थितियों में भी अविचलित. मार्मिक अवसरों पर वह अंदर से अत्यंत व्यग्र-बेचैन हों, तब भी उनके चेहरे से भांप नहीं सकते. उत्तेजक माहौल में भी उनके बोलने के टोन में कोई उतार-चढ़ाव नहीं.
कुछ कहने के लिए उनसे आग्रह किया गया. उठे. वहां एक विचार, एक आंदोलन, एक जमात के लोग थे. चंद्रशेखर अकेले. पहली ही पंक्ति कही, गर्जना के स्वर में बड़ी-बड़ी वीरता की बातें-घोषणाएं हुईं. मुझे भी थोड़ा-बहुत इतिहास मालूम है. 15-16 बार गजनी के हमले हुए.
एक पंडे ने भी जान नहीं दी. अतीत में मत जाइए. किसी का भला नहीं होगा. आप जान लीजिए कि अयोध्या में मसजिद की एक ईंट भी गिराने की कोशिश हुई, तो दसों हजार लोगों को मारना होगा, सरकार मरवा देगी. संविधान और भारत संघ के ऊपर कोई नहीं है. कानून और संविधान की रक्षा, सरकार का अहम पवित्र दायित्व है.
यह सुनते ही वहां स्तब्ध, बेचैन करनेवाली खामोशी. मौन टूटा. विश्व हिंदू परिषद की ओर से पूछा गया कि क्या अब कोई रास्ता नहीं बचा?
चंद्रशेखर ने कहा कि रास्ता है. आप तैयार हों तो सरकार, बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी से भी बात करेगी. बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी के लोगों को भी प्रधानमंत्री ने बुलवाया. कहा, देखिए देश में तकरीबन छह लाख गांव हैं. 5.50 लाख गांवों में हिंदू-मुसलमान एक साथ रहते हैं. उन गांवों तक दंगे पसरेंगे. तनाव होगा. भारत सरकार अपनी पूरी ताकत (पुलिस, अर्द्धसैनिक बल) भी झोंक दे, तो हरेक व्यक्ति की हिफाजत नहीं हो सकती. इसलिए हल ढूंढ़िए.
और इस तरह अयोध्या-विवाद हल करने के लिए सात दिनों के अंदर बातचीत शुरू हो गयी. जो एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलते थे, वे एक टेबुल पर बैठे, हल निकालने. यह शासन-कला है. राजसत्ता का प्रताप. अयोध्या की जो आग आज तक दहक रही है, जिसमें देश का भविष्य, आर्थिक प्रगति और सपने दफन हो रहे हैं, उसे हल करने की ओर सबसे सार्थक, ठोस, अर्थपूर्ण और गंभीर कदम चंद्रशेखर ने उठाया. 50 सांसदों की सरकार ने उठाया. एक ऐसे प्रधानमंत्री ने उठाया, जिसके पीछे न संगठन बल था, न ताकतवर दल था और न सांसदों का गणित पक्ष में था.
चंद्रशेखर ने शरद पवार, भैरोसिंह शेखावत और मुलायम सिंह यादव को इस बातचीत से जोड़ा. रोज मॉनिटरिंग और प्रगति का दायित्व सौंपा. आरकोलॉजिकल सर्वे को बातचीत में शामिल किया. सुप्रीम कोर्ट से सरकार ने कहा कि एक माह में फैसला दे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन माह में फैसला देंगे. फैसला एडवायजरी (सलाह) न होकर मैंडेटरी (बाध्यकारी) हो, केंद्र सरकार ने यह भी मान लिया.
चंद्रशेखर सरकार ने दोनों पक्षों से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानना होगा. जो भी फैसला होगा, उसे लागू करना सरकार का फर्ज है, चाहे इसके लिए कोई भी कठोर कदम उठाना पड़े.
सभी पक्ष हल निकालने के लिए सहमत हो गये. इसी बीच दो सिपाहियों के सवाल पर चंद्रशेखर सरकार ने इस्तीफा दे दिया. दरअसल उनकी सरकार जाने के पीछे अंदरूनी कारण कुछ और थे. उनमें से एक कारण अयोध्या-विवाद था. राजनीति के बड़े दिग्गज भांप गये कि अयोध्या-विवाद के सुलझने का श्रेय चंद्रशेखर को मिलेगा, फिर राजनीति के लिए मुद्दा क्या बचेगा? चंद्रशेखर को श्रेय मिलना, कुछ ताकतवर लोगों को स्वीकार नहीं था.
शरद पवार रोज ही कांग्रेस आलाकमान को इस प्रगति की सूचना देते थे, तो भैरोंसिंह शेखावत भाजपा को. न कांग्रेस इसका हल चाहती थी और न भाजपा.
इसी तरह कश्मीर, पंजाब में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद और उत्तर-पूर्व के उग्रवाद पर चंद्रशेखर सरकार ठोस कदम उठाने में जुटी थी. सार्थक पहल की कोशिश हो रही थी, ताकि दशकों के ये नासूर ठीक हो सकें. प्रधानमंत्री बनते ही चंद्रशेखर सार्क सम्मेलन के लिए मालदीव गये.
वहां पाकिस्तान से नवाज शरीफ आये थे. पहली ही भेंट में चंद्रशेखर ने उन्हें अपना प्रशंसक बना लिया. वह ‘बड़े भाई’ कह कर पुकारने लगे. अनौपचारिक चर्चा में कश्मीर प्रसंग पर चंद्रशेखर जी ने नवाज शरीफ से कहा, कश्मीर, कश्मीर की रट लगाते रहते हो आपलोग. चलो भारत कश्मीर आपको दे देगा, पर उसके साथ एक और समस्या सौगात मिलेगी. भारत धर्मनिरपेक्ष मुल्क है, कश्मीर उसका प्रतीक है. जिस दिन भारत से कश्मीर उधर गया कि सांप्रदायिक उभार, उफान और बाढ़ को रोकना मुश्किल होगा.
तब अगर दूसरे राज्यों के अल्पसंख्यक भारी मात्रा में पाक जायेंगे, तो उन्हें रखने-बसाने और आबाद करने की क्षमता पाकिस्तान में है? नवाज, इस नाजुक मसले पर इस नयी दृष्टि को सुन कर चुप हो गये. हां, उनके भाषणों (पाक के अंदर या बाहर) में कश्मीर पर पाक के हक का उल्लेख बंद हो गया. इस प्रसंग के बाद चंद्रशेखर ने नवाजशरीफ से कहा, हमारा अतीत एक रहा है.
मिट्टी एक है. साझी संस्कृति रही है. अनेक चीजें हमें जोड़ती हैं, क्यों न हम जोड़नेवाले मुद्दों के पुल से गुजरें और बेहतर भारत-पाक बनायें. प्रधानमंत्री के रूप में उनके पास पूरा बहुमत होता और कार्यकाल लंबा होता, तो वे भारत-पाक संबंधों को पुख्ता और बेहतर करने के लिए साहस भरे कदम उठाते.
चंद्रशेखर सीधे प्रधानमंत्री बने थे. पहले कभी सरकार में नहीं रहे. कई विभागों में आशंका थी. प्रधानमंत्री कैसे संवेदनशील मामलों को ‘हैंडिल’ करेंगे. विदेश मंत्रालय में भी यह संशय था. चंद्रशेखर की तत्काल निर्णय क्षमता, हाजिरजवाबी, बहुत कम समय में जड़ पकड़ने की बौद्धिक तेजस्विता और टू द प्वाइंट (मुद्देवार) बातचीत से नौकरशाही पूरी तरह वाकिफ नहीं थी. विदेशी संबंधों या राजनय में उनकी बारीक पकड़ हतप्रभ करनेवाली थी.
इंग्लैड से लेबर पार्टी के नेता और उनके चार-पांच सांसद आये. लेबर पार्टी के नेता, यानी ब्रिटेन के भावी प्रधानमंत्री. इसके पहले लेबर पार्टी के दूसरे महत्वपूर्ण नेता (डिप्टी लीडर पार्लियामेंट) काफमैन पाकिस्तान गये थे. वह पाक-अधिकृत कश्मीर भी गये. भारत के खिलाफ जहर उगला. वहां से काफमैन भारत आना चाहते थे. विदेश मंत्रालय उन्हें ‘वीसा’ देने के पक्ष में था. डर था कि इंग्लैंड की लेबर पार्टी के महत्वपूर्ण नेता को वीसा न देने से भारत को नुकसान होगा.
चंद्रशेखर सरकार ने तय किया, ‘वीसा’ नहीं देना है. उसी समय यह डेलीगेशन आया था. विदेश मंत्रालय परेशान था कि प्रधानमंत्री से बातचीत में प्रश्न उठेगा, तो भारत का क्या जवाब होगा?
डेलीगेशन आया. महत्वपूर्ण अवसर था. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से बात शुरू हुई. औपचारिकताओं के बाद चंद्रशेखर ने ही टिप्पणी की. लेबर पार्टी का भारत की आजादी में बड़ा योगदान रहा है. लेबर पार्टी, दुनिया में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आंदोलन में जुड़ी रही है, पर हाल के दिनों में इसमें क्या परिवर्तन हुए हैं? आपके यहां काफमैन कौन हैं, जो भारत के बारे में अनाप-शनाप टिप्पणियां करते हैं? पूरा ब्रिटिश डेलीगेशन बचाव की मुद्रा में.
वे सफाई देने लगे. भारत का विदेश मंत्रालय स्तब्ध, पर आ“ह्लादित. स्तब्ध इस प्रसंग में कि प्रधानमंत्री ने ‘अद्भुत मैच्युरिटी’, कौशल और आत्मविश्वास का परिचय दिया. ब्रिटिश डेलीगेशन अत्यंत प्रभावित, भविष्य के रिश्ते और सुदृढ़ करने के प्रस्ताव के साथ लौटा. ऐसे अनेक प्रसंग हैं, विदेश मंत्रालय के तत्कालीन बड़े अफसर सुनाते हैं.
इस देश के लोग जानते हैं कि भारत में ऐसे भी पूर्व प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने की अर्जी दी, अमेरिका गये, फिर भी समय नहीं मिला. आज अमेरिकी इशारों पर भारतीय राजनीति के नृत्य के दृश्य (पक्ष-विपक्ष दोनों) दो दशकों पहले तक शर्मनाक माने जाते. याद करिए चंद्रशेखर के समय, कांग्रेस, वीपी सिंह की सरकारों द्वारा सौगात में दिया गया अर्थसंकट था. चंद्रशेखर की सरकार के पास मजबूत राजनीतिक समर्थन और संगठन नहीं था. तब का एक प्रसंग.
भारत-पाक सीमा पर 35 घुसपैठिये मारे गये थे. इसे लेकर अमेरिका के सीनेटरों ने भारत के खिलाफ मुहिम चलायी. मानवाधिकार के उल्लंघन के सवाल उठाये. भारत को अलग-थलग करने की कोशिश हो रही थी. उसी समय अमेरिका के तत्कालीन उपराष्ट्रपति भारत आये. विदेश विभाग बेचैन कि यह प्रसंग उठेगा ही. भारत क्या कहेगा? प्रधानमंत्री को विदेश मंत्रालय की चिंता की सूचना मिली.
अमेरिकी उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिलने आये. इधर-उधर की चर्चा के बाद, वह मुद्दा उठा बैठे. कहा, आपकी सीमा पर 35 लोग मारे गये, इससे अमेरिकी सीनेटर काफी चिंतित व बेचैन हैं. चंद्रशेखर ने नपे-तुले शब्द में कहा कि महाशय आपके सीनेटरों से अधिक मैं अपनी सीमा, देश और समस्याओं को जानता हूं, जो लोग 100 वर्षों बाद भी बदला लेते हैं, उस कौम को हमें नसीहत-सलाह देने का हक नहीं है.
सारे लोग स्तब्ध. फिर बराबरी पर बात हुई. अच्छे माहौल में बातचीत का सुखद अंत. याद रखिए, चंद्रशेखर को विरासत या सौगात में जर्जर अर्थव्यवस्था मिली थी. कंगाल और दिवालिया. उन दिनों लगातार चंद्रशेखर अपने भाषण में, बातचीत में कहते थे – हम अपने को इतना हीन, कमजोर और असहाय क्यों समझते हैं? दुनिया की मदद हमें चाहिए, तो हम भी 90 करोड़ की आबादी (1991 की आबादी) वाले देश हैं, हमारी मदद भी दूसरों को चाहिए. दूसरों को भी हमारी उतनी ही जरूरत है, जितनी हमें दूसरों की. बराबरी, समता और सम्मान का रिश्ता हो. दाता और याचक का नहीं.
चंद्रशेखर के इन तर्कों को मैं सुनता, तो मुझे दिल्ली के सत्ता गलियारों में उन्हीं दिनों की एक चर्चित घटना याद आती. विश्व बैंक के एक वाइस प्रेसीडेंट भारत आये थे. वह पाकिस्तानी मूल के थे. बाद में पाकिस्तान की राजनीति में थोड़े समय के लिए शिखर तक पहुंचे. ‘कर्टसी काल’ में वह प्रधानमंत्री से मिलने आये. बातचीत में उन्होंने विश्व बैंक के बाजारवाद, उपभोक्तावाद और ऐसे आर्थिक कदमों के बारे में चर्चा की. भारत के लिए सुझाव दिये. कहा कि विश्व बैंक, भारत को ‘फेवर’ करता है. चंद्रशेखर ने विश्व बैंक के अर्थदर्शन पर अपनी टिप्पणी की. विश्व बैंक के अर्थदर्शन व जड़ों पर प्रहार. उसके पीछे की राजनीति की ओर इशारा.
उस वाइस प्रेसीडेंट ने कहा कि योर ऑनर, अगर विश्व बैंक अपनी सारी मदद बंद कर दे, तो भारत का क्या करेगा?
तब भारत गहरे अर्थसंकट में था. बैलेंस ऑफ पेमेंट की स्थिति नाजुक थी. प्रधानमंत्री का जवाब था : तुरंत टीवी-रेडियो पर जाऊंगा. देश को संबोधित करूंगा. कहूंगा कि सारे आयात बंद कर रहा हूं, जीवन रक्षक दवाएं व आवश्यक पेट्रोलियम उत्पादों के सिवा और हम अपने देशज हल ढूंढ़ लेंगे.
इसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि मिस्टर वाइसप्रेसीडेंट, मैं एक बात कहूं?
क्या आपके विश्व बैंक या पश्चिमी देशों में ताकत है कि वे भारत के बाजार को नजरअंजाद कर दें. आप कंज्यूमर मार्केट चाहते हैं, इसलिए यहां आते हैं. याद रखिए कि आज भी भारत के 30 फीसदी लोगों का संबंध बाजार से नहीं है. नमक के सिवा वे दातून से खाने की चीजों तक, आपस में विनिमय करते हैं. यह भी याद रखियेगा कि आपके पश्चिमी बाजार को हमारी अधिक जरूरत है. आपको यहां बाजार चाहिए व उपभोक्ता चाहिए. वह हतप्रभ और अवाक रह गये, कहा, हमारा आशय यह नहीं था.
वह वाइसप्रेसीडेंट प्रधानमंत्री से मिल कर अहमदाबाद लौटे. शाम में अहमदाबाद में सनत मेहता को फोन किया. श्री मेहता नर्मदा प्रोजेक्ट के प्रमुख थे. इसमें वर्ल्ड बैंक ने पैसा लगाया था. निजी बातचीत में सनत मेहता से इस वाइसप्रेसीडेंट ने कहा कि जब तक चंद्रशेखर इस देश के प्रधानमंत्री हैं, यहां कुछ संभव नहीं है. चंद्रशेखर के देशज सोच पर यह पश्चिमी ताकतों की टिप्पणी थी.
क्यों? क्योंकि वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार विकास की बात करते थे.
इसलिए विश्व बैंक ने उन दिनों भारत में नयी आर्थिक नीति लागू करने के संबंध में जो वैकल्पिक प्रस्ताव भेजे थे, प्रधानमंत्री रहते हुए चंद्रशेखर को वे नहीं दिखाये गये. नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह प्रसंग बहुत उछला. यह सवाल उठा कि विश्व बैंक के इशारे पर कैसे भारत की नौकरशाही ने चार महीने, विश्व बैंक के उस दस्तावेज को तत्कालीन प्रधानमंत्री से छिपाये रखा. अंदरूनी तथ्य यह है कि यह सिलसिला पहले से चल रहा था. वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे, तब अजीत सिंह ने नयी औद्योगिक नीति बनायी. यह नीति भी विश्व बैंक के दिशा-निर्देश के अनुरूप बनी थी. इससे भी पहले राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने नयी आर्थिक नीतियों का सूत्रपात किया.
वे भी विश्व बैंक की इच्छानुसार तय हुईं. तब से ही चंद्रशेखर इन अर्थनीतियों के खिलाफ अकेली आवाज बन गये. अपने दल की सरकार की औद्योगिक नीति (अजीत सिंह) के खिलाफ लोकसभा में अत्यंत प्रभावी बयान दिया. नरसिंह राव, मनमोहन सिंह की नयी अर्थनीति के खिलाफ पूरे देश में बहस चलवायी.
उदारीकरण की अर्थनीति पर 1993 में उन्होंने कहा था, ‘मैं आज यह बात नहीं कर रहा हूं. जब 1991 में हमारे देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री जोरों से यह कह रहे थे कि हमको दुनिया के बाजार से अपने आपको जोड़ना है, तो मैंने उस समय संसद में कहा था कि आप किस बाजार से अपने को जोड़ना चाहते हैं? वह बाजार जो दो विश्वयुद्धों के लिए जिम्मेदार है? वह बाजार जो गरीब देशों को आपस में लड़ाता है? वे लोग मौत के सौदागर हैं और भारत जिंदगी का संदेश देनेवाला देश है. दोनों का एक साथ कोई समझौता नहीं हो सकता.’
आज स्मरण करिए उनका यह स्टैंड! यह भी याद रखिए कि तब संसद में वाम से दक्षिण तक सब बाजार व्यवस्था के समर्थक बन गये थे.
दरअसल नव पूंजीवाद (नयी अर्थनीति के दौर को समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री नियो कैप्टलिज्म या बाजारवाद या ग्लोबलाइजेशन के नाम से भी पुकारते हैं) के इस दौर से चंद्रशेखर का पुराना बैर था. राजनीति में उनका उदय-विकास ही उस वैचारिक धरातल पर हुआ, जो निजी पूंजी के बढ़ते वर्चस्व को एक सुंदर समतामूलक समाज के लिए घातक मानता है. इसी आधार पर उनका युवा तुर्क आंदोलन परवान चढ़ा. बैंकों का राष्ट्रीयकरण या प्रिवीपर्स खत्म करने जैसे कदम या बिड़ला-टाटा के खिलाफ एकाधिकार के मामले, एक बड़े सपने को साकार करने की दिशा में उठे कदम थे. इस कारण हिंदुस्तान की बड़ी पूंजी, बड़े घराने, शुरू से ही उनके खिलाफ रहे. इसी बड़ी पूंजी ने एक बार राज्यसभा से उनका टिकट कटवाने की कोशिश की.
इन मामलों को भूपेश गुप्त व अन्य कई जानेमाने लोगों ने उन दिनों संसद में उठाया. इसी पूंजी ने उनकी सरकार को अस्थिर करने में भूमिका निभायी. 1990 में देश अर्थसंकट में था. उस दौरान चंद्रशेखर सरकार ने करीब 1200 करोड़ के कर कारपोरेट घरानों पर लगाये. इसमें से एक बड़े घराने पर सबसे बड़ा बोझ पड़ा. साधारण जनता पर कर नहीं लगाये गये. यह वह घराना था, जो आज राजनीति का भविष्य तय करता है.
वह अक्सर कहते थे कि देश संकट में है, तो जो संपन्न, समर्थ और ऊपर का तबका है, उसे अतिरिक्त कुर्बानी देनी होगी. बोझ उठाना होगा. बड़ी पूंजी या पूंजी के एकाधिकार के विरोध की भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. उनकी सरकार, हरियाणा के दो सिपाहियों द्वारा राजीव गांधी की चौकसी के कारण नहीं गयी.
पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमन (जो उन दिनों राष्ट्रपति थे) ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि राजीव गांधी ने कम-से-कम एक साल तक बिना शर्त चंद्रशेखर को समर्थन देने का आश्वासन दिया, तब चंद्रशेखर को सरकार बनाने के लिए न्योता गया. सरकार जाने के पीछे मूल कारण थे, बड़े घरानों द्वारा चंद्रशेखर के खिलाफ मुहिम, अयोध्या-प्रकरण पर हल के आसार, स्टेट्समैन और कुशल शासक के रूप में चंद्रशेखर का उदय, अमेरिकापरस्त ताकतों के खिलाफ मुहिम और प्रस्तावित बजट का भय.
चंद्रशेखर सरकार को बजट नहीं बनाने दिया गया. क्योंकि बड़े घरानों और समर्थक राजनीतिक दल के बीच यह चर्चा व चिंता का विषय था कि 1990 के अर्थसंकट से निबटने के लिए चंद्रशेखर सरकार जो देशज रास्ता ढूंढ़ रही थी या चंद्रशेखर अपने विचारों और अर्थदर्शन के अनुरूप बजट तैयार करवा रहे थे, उससे देश में आर्थिक मुद्दों पर मोरचाबंदी हो जाती. धर्म और जाति की राजनीति पीछे छूट जाती. भारत का ताकतवर इलीट क्लास, पूंजी-घराने और बड़े दल ऐसा नहीं चाहते थे. इसलिए चंद्रशेखर की सरकार गयी.
शासन करने की उनकी समझदारी (कॉमनसेंस), संपन्न विवेक और प्रति-उत्पन्नमति बेमेल थे. परदेश में अपनी छाप छोड़ने का वक्त उन्हें नहीं मिला.
जब वह प्रधानमंत्री थे, जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ नेता और सांसद सोज की लड़की का अपहरण हुआ. सूचना यही थी कि लड़की का अपहरण उग्रवादियों ने किया है. उसे अधिकृत कश्मीर में रखा गया है.
सोज ने चंद्रशेखर जी को फोन किया. एक पिता की परेशानी! बेटी का सवाल! चंद्रशेखर ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन किया. पता चला, वह बीजिंग (चीन) में हैं. शाम को अचानक एक पार्टी में भारत स्थित पाक के राजदूत अब्दुल सत्तार उन्हें मिल गये. जो बाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने और चंद्रशेखर के प्रशंसक.
चंद्रशेखर ने बिल्कुल अनकन्वेंशनल काम किया. सत्तार से कहा, नवाज शरीफ को मेरा संदेश भिजवा सकते हो? सत्तार ने कहा – हां सर! कहा, यह संदेश अधिकारियों या प्रॉपर चैनल की जानकारी में नहीं है. संदेश था कि जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ सोज की लड़की का अपहरण हुआ है. पाक टीवी और रेडियो पर तीन दिनों तक यह प्रचार हो कि जिन लोगों ने भी उक्त निर्दोष लड़की को अगवा किया है, अत्यंत गलत काम किया है. यह इसलाम के आदर्शों के अनुरूप नहीं है. लड़की को छोड़ दिया जाये. तीन दिनों तक पाक रेडियो व टीवी के बुलेटिन में यह प्रचार हुआ. लड़की मुक्त हो गयी.
अब कांग्रेसी नेता, रेणुका चौधरी तब तेलुगुदेशम सांसद थीं. कांग्रेसी जनार्दन रेड्डी आंध्र के मुख्यमंत्री थे. तेलुगुदेशम के नेताओं के घरों पर हमले हो रहे थे. एनटीआर का सिनेमाहाल जला दिया गया था. रेणुका चौधरी का घर बलवाइयों ने घेर लिया. उपद्रवी आग लगाना चाहते थे. परेशान सांसद चौधरी ने अपने उसी घिरे घर से सीधे चंद्रशेखर को फोन किया. वह एकदम बेचैन और बदहवास थीं. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने आंध्र के मुख्यमंत्री जनार्दन रेड्डी को ढूंढ़वाया. वह कहीं बाहर थे. फोन पर अनुपलब्ध. चंद्रशेखर जी के निर्देश पर सीधा भारतीय सुरक्षा बल (बीएसएफ) को वहां पहुंचने के लिए कहा गया. आदेश जाने के 15 मिनट के अंदर बीएसएफ ने रेणुका चौधरी के घर की सुरक्षा का काम संभाल लिया. बलवाई भाग गये.
असम और पंजाब चुनाव के फैसले करने थे. सारी आशंकाओं के बावजूद चंद्रशेखर सरकार ने दोनों राज्यों में चुनाव कराना तय किया. यह अलग बात है कि नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनते ही चुनाव आयोग व कांग्रेस के सौजन्य से पंजाब के चुनाव टाल दिये गये.
असम चुनाव के दौरान उल्फा उग्रवादियों से निबटने का प्रसंग उठा. मामला प्रधानमंत्री तक पहुंचा.
पूरी जानकारी लेने के बाद प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि सीमित ऑपरेशन में इन्हें ‘फ्लशआउट’ कराएं. केंद्र सरकार के इस कठोर फैसले की सूचना किसी तरह असम के उग्रवादियों तक पहुंची. वे बांग्लादेश भाग गये. असम में चुनाव के दौरान संभावित भारी हिंसा की सारी आशंकाएं निर्मूल सिद्ध हुईं. शांतिपूर्ण चुनाव हुए.
उनके शासन काल का एक दूसरा पक्ष भी था. पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के मामलों पर गुवाहाटी में पहली महत्वपूर्ण बैठक हुई. पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री, भारत सरकार के वरिष्ठ अफसर, मंत्री और प्रधानमंत्री मौजूद थे. पूर्वोत्तर राज्यों के त्वरित विकास के ‘ऑन द स्पाट’ फैसले देश की ‘हाइएस्ट अथारिटीज’ की बैठक में. यह प्रक्रिया शुरू कराने के पीछे चंद्रशेखर के निजी अनुभव थे. वह सांसद के रूप में पहले मणिपुर गये थे.
’70 के दशक में. युवा तुर्क नेता के रूप में. वहां के युवकों ने शिकायत की. दिल्ली-हमारे साथ भेदभाव करती है. उदाहरण दिया. दिल्ली में कितने फ्लाइओवर हैं और कितने नये बन रहे हैं? पर ब्रह्मपुत्र पर सिर्फ एक पुल? असम व अन्य राज्यों के बीच जनता के आने-जाने व संपर्क के लिए एक सेतु. दिल्ली के शासकों की कार-यात्रा सुगम हो, इसलिए कई फ्लाइओवर? यह सवाल वह अक्सर उठाते थे. उनकी कोशिश रही कि जन समस्याओं को प्राथमिकता मिले और कानून-व्यवस्था की जिम्मेवारी जिन एजेंसियों पर हैं, वे संभालें.
उदारीकरण के बाद क्षेत्रीय विषमता में वृद्धि के सवाल को उन्होंने लोकसभा में उठाया. महत्वपूर्ण बैठकों का आयोजन कराया, जिनमें इन मुद्दों पर व्यापक चर्चा हुई. देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच. आज चिराग लेकर ढूंढिए, किन दलों में या राजनेताओं द्वारा ऐसे सवाल उठ रहे हैं?
कारगिल और क्रासबॉर्डर टेरेरिज्म’ पर उनका नितांत साफ और सपाट रुख था. कारगिल पर कहा, अजीब सरकार है. अपनी धरती पर, देश के अंदर अपनी सीमा में बाहरी सैनिक घुस आये. कई महीनों रहे. पर सरकार को मालूम नहीं.पता चला, तो अमेरिकी रुख के अनुसार कार्रवाई सीमित हुई. उस पर घोषणाएं ऐसी, मानो हम युद्ध जीत रहे हों. ठेठ सवाल. हमारे घर में कमरों पर दुश्मन कब्जा कर बैठा. पर हमें नहीं मालूम. जब पता चला, तो दुनिया से मदद मांग रहे हैं. अपने ही कमरे खाली करा कर जश्न मना रहे हैं, मानो दुश्मन देश की धरती कब्जे में आ गयी.
उन दिनों क्रासबोर्डर टेररिज्म (देश के अंदर आतंकवाद) पर केंद्र सरकार के नेता रोज चिल्ला रहे थे, पाकिस्तान रोके. अमेरिका से गुहार लगा रहे थे. चंद्रशेखर कहते थे कि भारत-पाक सीमा पर कुछ हो, तो समझ में आता है. पर सीमा से दिल्ली तक आतंकवादी आ जाते हैं.संसद पर हमले की तैयारी के साथ. तो क्या देश के अंदर की ऐसी घटनाओं को रोकने की जिम्मेवारी पाकिस्तान पर है या हमारी सरकार और व्यवस्था पर? जब वे सीमा पार कर दिल्ली पहुंच रहे थे, तब हम क्या कर रहे थे?
राजीव गांधी की हत्या हो गयी. उस दिन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ओड़िशा के सुदूर आदिवासी इलाकों में थे. देर रात प्रधानमंत्री का जहाज भुवनेश्वर से उड़ा, वह अपने केबिन में अकेले थे. मुझे बुलाया. इतना आहत, दु:खी और शोकमग्न न पहले उन्हें देखा और न उसके बाद.
हमारा जहाज आधी रात के आसपास दिल्ली पहुंचा. चंद्रशेखर जी शोकमग्न, पर एक-एक व्यवस्था में चौकस. सीधे हवाई अड्डे से दूरदर्शन व ऑल इंडिया रेडियो गये. शोक-संदेश रिकार्ड कराया. देशवासियों से अपील की. राजीव गांधी के शव रखने-दर्शन की व्यवस्था की एक-एक जानकारी ली. कितने ‘हेड ऑफ स्टेट’ (राज्याध्यक्ष) आ रहे हैं, उनकी अगवानी से लेकर ठहरने तक का जायजा. पूरी रात लगभग इसी तरह गुजर गयी.
इसी बीच दिल्ली उपराज्यपाल के यहां सूचना (या अफवाह) आयी कि जमुना पार से 250-300 लोग भांगड़ा करते-नाचते आ रहे हैं. राजीव गांधी के संस्कार स्थल तक जाने की चर्चा है. प्रधानमंत्री के यहां से निर्देश गया कि ऐसी भीड़ को गिरफ्तार करो. किसी भी हालत में स्थिति नियंत्रित रहे.
फिर सूचना आयी कि 200-250 लोग तीन मूर्ति पर जमा हैं. राजीव गांधी का शव रखने के सवाल पर विवाद है. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक महत्वपूर्ण आदमी को फोन किया. कहा, सुनिश्चित करिए कि वहां से भीड़ हटा दी जाये. लोग न मानें, तो लाठी चार्ज. हिंसा हो, तो फ्लैग मार्च और गोली चलवायें. उस अफसर ने कहा बिल्कुल ठीक, सर. पूछा, कि सर! इन कामों में ‘सिविल एडमिनिस्ट्रेशन’ अड़चन डालेगा. (कानून-व्यवस्था वैसे भी राज्यों के मामले हैं) तो? चंद्रशेखर ने कहा ‘आइ एम ए हाइएस्ट सिविल अथारिटी ऑफ दिस कंट्री’. मैं निर्देश दे रहा हूं. ब्लैंक पेपर लाइए, दस्तखत कर देता हूं. अफसर अभिभूत. इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी. कहा उस अफसर ने. सब नियंत्रित हो जायेगा और कहीं देश में कोई गड़बड़ी नहीं हुई.
यह थी सिर्फ 50 सांसदों के बल प्रधानमंत्री बने व्यक्ति की शासकीय दक्षता-क्षमता. सरकार गिर चुकी थी और एक चरण चुनाव हो चुके थे. फिर भी व्यक्ति का इकबाल! राजसत्ता के जीवंत होने का एहसास.
उत्तेजक माहौल में भी वह संयम-आपा नहीं खोते थे. वाणी कटु नहीं होती थी. अवसर के अनुसार भाषणों में उतार-चढ़ाव नहीं होता था. सपाट, मर्यादित और संयमित वाणी में वह अत्यंत गंभीर तथ्यों को उठाते थे. बुनियादी सवाल सामने रखते. आज एक ही शहर की दो सभाओं में भीड़ की रूझान के अनुसार एक ही बड़ा नेता, एक ही मुद्दे पर परस्पर विरोधी बयान देता है, घंटे भर में स्टैंड बदल देते हैं. पर एक ही मुद्दे पर एक ही स्टैंड चंद्रशेखर जी की खासियत थी.
हवा के अनुसार रुख बदलनेवाले नेताओं की भीड़ में इसलिए भी वह अकेले थे. उनके पूरे व्यक्तित्व में गंभीरता थी. वह ‘लूज टॉक’ (अनर्गल बातें) नहीं करते थे. दूसरों की मर्यादा रखने और सम्मान देने में वह बेजोड़ थे. आप गोपनीय से गोपनीय चीज उन्हें कह दें, उस गोपनीयता के धर्म का निर्वाह वह विलक्षण ढंग से करते थे. आप उनके कटु से कटु शत्रु हो जाइए, आपके बारे में उन्हें सब मालूम होगा. तब भी वह लूज बातें नहीं करेंगे. विरोधियों के सम्मान का धर्म, वह बखूबी निबाहते थे.
आप संकट में हों, तो बगैर किसी को बताये वह आपकी मदद करेंगे. आप उनके विरोधी हैं, तब भी आपके संकट और आवश्यक दुख के क्षणों में आपको साथ मिलेंगे. आपकी खुशी के क्षणों में वह आपके बीच हों या न हों, पर संकट-दु:ख में उनका कंधा पहला होता था. अनेक साथी जो उनके साथ रहे, बीच में चल बसे, तो उनके परिवार को संकट से उबारने और साबूत खड़ा कर देने की अनेक घटनाएं हैं.
और यह सब वह बखान नहीं करते थे. राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की एक से एक कमजोर बातें उन्हें मालूम रहती थीं. फिर भी आप उनसे एक शब्द नहीं सुन सकते थे. हजारों लोगों ने उन्हें सीढ़ी बनायी और कहां से कहां पहुंच गये! उन्होंने खुद किसी को नहीं छोड़ा, लोग आये और मतलब साध कर चले गये. भौतिक अर्थों में कहें तो मिट्टी से सोना बन गये.
क्या चंद्रशेखर इन चीजों से आहत नहीं होते थे?
कई बार इन बातों को सोचते हुए मैं विचलित होता हूं. मूलत: उनका व्यक्तित्व संवेदनशील था. कविता, साहित्य और शायरी में ढला व्यक्तित्व. उनकी इतिहास दृष्टि उन्हें ताकत देती थी. वह अक्सर कहते थे, मनुष्य का इतिहास देखो, लाखों वर्ष की इस यात्रा में गांधी सरीखे महापुरुष कामा या फुलस्टाप हैं, तो हम मामूली लोग कहां हैं? दिक्कत यह है कि हम अपने को इतिहास का अंतिम आदमी मान लेते हैं. पर भूल जाते हैं कि इतिहास-काल किसी को नहीं छोड़ते. उनमें सनातन धर्म का काल बोध अनूठा था. काल ही निर्णायक है. वही अर्जुन, वही गांडीव, पर भील विजयी हुए. काल से हठ-होड़ की मुद्रा में आज के कई बड़े राजनेता दिखाई देते हैं. वह ऐसे लोगों की बातों-दांवों पर हंसते थे.
वह प्रधानमंत्री थे. उनके साथ चेन्नई गया था. वह भोर (अति सुबह) में उठते थे. हम उठे, तो पता चला कि वह कहीं गये हैं. नास्ते के समय (यह प्रसंग अलग है. अगर आप उनके साथ हैं, तो आपकी एक-एक सुविधा का ध्यान रखते थे. आप खुद उतना अपना ध्यान नहीं रख सकते.
वह अकेले खाना-नाश्ता नहीं करते. उनके साथ हमेशा भीड़ रहती थी. वह समूह के व्यक्ति थे और समूह में ही जीते थे.) उन्होंने कहा कि तुम लोग सोये थे. सुबह मैं चेन्नई से कुछ दूर म्यूजियम गया था. डायनासोर की अस्थियां देखीं और अनेक चीजें देखीं. इन चीजों को देखने से लगता है कि ब्रह्मांड में मनुष्य की क्या हैसियत है? कितनी छोटी और कितनी नगण्य?
ग्लोबल इकॉनामी के इस दौर में राजनीतिक संस्कृति बदल गयी है. भारत में हालांकि राजीव गांधी युग के अवतरण के साथ ही राजनीतिक संस्कृति बदलने लगी थी. ‘पॉलिटिक्स के कारपोरेटाइजेशन’ (कॉरपोरेट हाउसों की तर्ज पर विकसित कारपोरेट पालिटिकल कल्चर, जिसमें नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच अफसर-मालिक व मजदूर का रिश्ता होता है) के इस युग में चंद्रशेखर अकेले थे, जो हजारों कार्यकर्ताओं को सीधे जानते थे. उनके बीच रहते थे. उनसे जीवंत संवाद रखते थे. वह चाहे एसपीजी के घेरे में रहें हों या बाद में बगैर एसपीजी के, उनके आसपास कार्यकर्ता-सामान्य लोगों की भीड़ मिलती थी.
वह डाटेंगे, फटकारेंगे, आजिज आ जायेंगे, पर रहेंगे उन्हीं के बीच. उन्होंने अपने घर के भाई-बंधुओं व रिश्तेदारों को राजनीति में नहीं उतारा. अब नेता, अपने दल को ‘कारपोरेट हाउसों’ की तरह चलाते हैं, जहां बड़े नेता कम सीइओ (चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर) समय से, दूर से, वैयक्तिक रास्ते नहीं (इमपर्सनल) औपचारिक रास्ते, जनता व कार्यकर्ताओं से संवाद-संबंध रखते हैं. दरअसल यह दो संस्कृतियों का टकराव है. आज ग्लोबल इकानामी की देन ग्लोबल पालिटिक्स और ग्लोबल कल्चर है, पर हमारी जड़ें अलग हैं.
भारत की राजनीति का दर्शन, गांधी ने गांवों की संस्कृति से जोड़ा. वहां कार्यकर्ताओं के बीच मानवीय रिश्ते थे. अनुभूतियों और संवेदनाओं के पुल से यह रिश्ता गुजरता है. अब ग्लोबल इकॉनामी ने इसे भारत में भी छिन्न-भिन्न कर दिया है. चंद्रशेखर उस पुरानी भारतीय राजनीति संस्कृति के अंतिम स्तंभ थे.
उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की एक खसियत थी. वह मूलत: संवेदनशील थे. पर उनकी राजनीति, भावनाओं के प्रवाह में कभी नहीं बही. वह आचार्य नरेंद्र देव के साथ रहे. जेपी से उनका सानिध्य रहा. इंदिरा जी से सौहार्दपूर्ण रिश्ते रहे, पर कभी भी इन महान नेताओं को भी सूरज, चांद या विवेकानंद (कानपुर में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उनके तत्कालीन वित्त मंत्री वीपी सिंह ने इन्हीं उपमाओं से विभूषित किया था. संजय गांधी भी दिग्गजों द्वारा ऐसे ही विशेषणों से पुकारे गये) उन्होंने नहीं कहा. संवेदना के साथ विवेक.
वह किसी चीज में यकीन नहीं करते थे, तो स्पष्ट कहते थे, सार्वजनिक तौर पर उनकी निजी मान्यताओं और सार्वजनिक स्टैंडों में फर्क नहीं था, जो इन दिनों भारतीय राजनीति की खासियत बन गयी है. उनके पहले एक प्रधानमंत्री बने. गांधी की तरह नंगे बदन तसवीर खिंचवायी. वह प्रचारित की गयी. फकीर कहे गये. पर प्रधानमंत्री पद की शपथ के ठीक पहले की रात, विशेष शेरवानी-अचकन और कपड़े सिले गये. विशेष दरजी से. चंद्रशेखर ने शपथ ली, तो वही कुरता, बंडी और चप्पल. तब मधु लिमये ने 1990 में चंद्रशेखर के इस वेषभूषा न बदलने पर सार्थक टिप्पणी की. यह महज कपड़े के बदलाव का मामला नहीं था. इससे एक व्यक्ति की जीवन शैली, चिंतन और व्यक्तित्व की झलक मिलती है.
प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्वनाथ प्रताप जी ने कहा कि वह सामान्य यात्री की तरह यात्रा करेंगे. इस घोषणा के बाद, वह सिर्फ एक बार बतौर प्रधानमंत्री सर्विस प्लेन से दिल्ली से पटना गये. उसमें भी लगभग पूरे जहाज की अग्रिम सरकारी बुकिंग कर ली गयी. इसी तरह एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) सुरक्षा का मामला था. वह एसपीजी सुरक्षा हटाना चाहते हैं, इसे लेकर बकायदे प्रचार अभियान चलवाया गया, ताकि वह नैतिक आभा मिल सके.
पर अंत तक वह एसपीजी से घिरे रहे, चंद्रशेखर नहीं. (यह सवाल उठाना चाहिए कि हमारे बड़े नेता ऐसी सार्वजनिक घोषणाएं क्यों करते हैं? किन प्रयोजनों के तहत करते हैं? जिन पर अमल नहीं कर सकते? ऐसा नहीं कि ये बड़े नेता सिस्टम की बारीकियों को नहीं जानते. फिर जानते हैं, तो ऐसी घोषणाएं किस मकसद से करवाते या करते हैं? जीवन में यह दोहरापन क्यों?) महज लोकलुभावन नारों से देश के शीर्षस्थ नेता भी देश चलाने का अभिनय करें, इससे अधिक देश का दुर्भाग्य क्या होगा? किसी से तो भरोसा या विश्वास का रिश्ता बने.
बहुत पहले अब्राहम लिंकन का एक पत्र पढ़ा था. वह पत्र प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को लिखा गया था, जहां उनका बेटा पढ़ता था. अद्भुत पत्र है. मानव समाज के लिए धरोहर. लिंकन ने उस पत्र में स्कूल के अध्यापक से इच्छा प्रकट की है कि किस तरह की शिक्षा मेरे पुत्र को दें. एक जगह उसमें उल्लेख है कि शिक्षा ऐसी, जो उसके अंदर विवेक, ऊर्जा और आत्मविश्वास दे कि जो भी वह सही समझे, उस पर अंतिम क्षण तक टिका रहे. भले ही पूरी दुनिया उसके खिलाफ हो. और वह अकेले हो. दुनिया के खिलाफ अपनी मान्यताओं पर अकेले टिके रहने का आत्मविश्वास. दुनिया की नियति तय करने वाले नेताओं की भी एक खासियत है.
जन भावनाओं में वे नहीं बहते. भीड़ की मानसिकता के अंग नहीं बनते. अनपापुलर डिसीजन (अलोकप्रिय और जोखिम भरे फैसले) लेने का साहस रखते हैं. वोट, सत्ता और भीड़ के व्याकरणानुसार अपनी नीति-धारा तय नहीं करते. इस कसौटी पर हाल के वर्षों में इंदिरा गांधी नेता थीं. और उनके बाद सिर्फ चंद्रशेखर.
जयप्रकाश आंदोलन शुरू हुआ. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इंदिरा जी से जेपी से टकराव न लेने के लिए कहा. इसकी कीमत भी चुकायी. जेपी से भी कहा – संपूर्ण क्रांति स्पष्ट नहीं है. जिस तरह के लोग साथ हैं, उनसे आदर्श समाज नहीं बन सकता. अब तो यह शोध का विषय है कि जेपी आंदोलन से निकले राजनीतिज्ञों ने देश की राजनीति को कितना नफा या नुकसान पहुंचाया? जब भी कोई गंभीर सवाल देश के सामने हो और उस पर बेलौस व दो टूक बातें कहनी हों, तो उनके जीते जी चंद्रशेखर के अलावा दूसरा नाम नहीं दिखाई देता था.
सिखों के खिलाफ (इंदिरा गांधी की हत्या के बाद) हुए दंगों में अकेले वह विवेक की आवाज थे. ऑपरेशन ब्लूस्टार के खिलाफ कही उनकी चेतावनी भरी बातें, भविष्यवक्ता की टिप्पणी हो गयीं. देश ने इसकी भारी कीमत चुकायी. और इन सवालों को साफ-साफ कहने के कारण कांग्रेस के कुछ खास लोगों ने, अरुण नेहरू की अगुवाई में बलिया में कैंप किया. 1984 लोकसभा चुनावों में सरकारी तंत्र के बल उन्हें चुनाव हरवाया और ‘बलिया के भिंडरावाले’ नारे लगवाये.
ऑपरेशन ब्लूस्टार व सिख विरोधी दंगों पर उनके ऐतिहासिक स्टैंड को तात्कालिक तौर पर उनके खिलाफ राजनीतिज्ञों ने इस्तेमाल किया. पर देश ने इसकी क्या कीमत चुकायी? आज वही भीड़, जनता और सारे नेता एक स्वर में कहते हैं कि चंद्रशेखर में दूरदृष्टि थी. जोखिम लेकर अपनी बातें कहने का साहस था.
विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार उनके दल की सरकार थी. कश्मीर में जगमोहन के जाने, औद्योगिक घरानों की इच्छानुसार अजीत सिंह की उद्योग नीति और नेपाल में लोकतांत्रिक ताकतों के विरोध नीति के खिलाफ उन्होंने अकेले मुखालफत की. आज की छोटी राजनीति ने देश को तबाही के जिस कगार पर ठेल दिया है, उसके खिलाफ हाल के वर्षों में वह एक मात्र विवेक की आवाज रहे हैं.
धर्म और जाति की नींव पर राजनीति करनेवालों को उन्होंने साफ-साफ इसके खतरे बताये. न्यायपालिका की अतिशय सक्रियता के बारे में उन्होंने ही अकेले देश को आगाह किया. आर्थिक नीतियों एवं विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ उनकी देशव्यापी यात्रा, उनकी शुरू की नीतियों का ही विस्तार था.
चाहे बिड़ला घराने के माध्यम से राजनीति में पूंजी के एकाधिकार का बढ़ता प्रसंग हो, सार्वजनिक क्षेत्रों को ताकतवर बनाने का मामला हो (बैंक राष्र्ट्रीयकरण या प्रिवीपर्स खात्मे की पहल जैसे कदम) या नयी अर्थनीति का प्रसंग हो, वह अकेले ही सक्रिय रहे.

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