जाती ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
जी हां, काशी से चुनकर आने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने शायद कबीर की यह पंक्तियां अपने मंत्रियों तक नहीं पहुंचायी. अभी कल की ही बात है, जब राज्यसभा में प्रधानमंत्री ने साध्वी निरंजन ज्योति के बयान पर खेद जाहिर किया. वे संसद के अनुभवी सांसदों से माफी की गुहार लगा रहे थे. उनके शब्दों एवं वाणी में वह ओज और गर्जना नहीं थी, जो आम तौर पर उनके चुनावी भाषणों में होती है. राज्यसभा में बोलते हुए उन्होंने बतलाया कि कैसे उन्होंने भाजपा सांसदों को इस तरह के बयान से बचकर रहने की सलाह दी है. राज्यसभा के जब वो बोल रहे थे, तो पूरा ना सहीं पर आंशिक तौर पर उनका मंत्रिमंडल उपस्थित था. समाचार पत्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, डिजिटल मीडिया, इंटरनेट हर जगह उनके बयान को जगह मिली. कुल मिलाकर प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में बोलते हुए यह संदेश देने की कोशिश की कि हरेक पार्टी, हर सांसद, हर मंत्री को ऐसे बयान से बचना चाहिए.
मोदी, मोदी हैं. भाजपा में नमो-नमो की गूंज है. स्वभाविक तौर पर राज्यसभा में मोदी के बयान ने पार्टी की ऑफिसियल लाइन तय कर दी.
आज भी लोकसभा में अपनी बात रखते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के बयान को खारिज किया. परंतु मंत्री की सामाजिक पृष्ठभूमि पर जोर दिया.
मंत्री की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है?
यह जानने के लिए आप प्रधानमंत्री की नहीं उनके वरिष्ठ मंत्रियों के बयान को सुनिए. रामविलास पासवान ने साध्वी की पृष्टभूमि को रेखांकित करते हुए बतलाया कि साध्वी पिछड़ी जाति से हैं, तो मोदी सरकार के दूसरे मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने उन्हें महिला एवं दलित बतलाया.
भारतीय राजनीति में यह पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसे अनेकों उदाहरण हैं. भाजपा के पास साध्वी हैं, तो कांग्रेस के पास सैम पित्रोदा. बाकी दलों की भी यही कहानी है.
तो मूल प्रश्न क्या है?
जाति एवं धर्मविहीन समाज की रचना का आह्वान करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, क्या कबीर की इन पंक्तियों के मर्म को अपने मंत्रियों और पार्टी तक पहुंचा पायेंगे, जो थोड़ी बहुत राजनैतिक बढ़त के लिए ऐसे बयानों का सहारा लेते हैं? कुछ नया कर गुजरने की चाह रखने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असली चुनौती उस राजनैतिक शुद्धता की पुर्नस्थापना है, जो हाल के वर्षों में तेजी से विलुप्त हो रही है.