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राजा राममोहन राय: सती प्रथा के खिलाफ समाज से लड़ जाने वाले महान व्यक्ति, आज पुण्यतिथि है

नयी दिल्ली: हिन्दुस्तान एक तरफ औपनिवेशिक सत्ता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर गुलाम बना लिया था. यहां दो बातें थीं. एक तरफ तो भारत गुलाम था एक विदेशी कंपनी का वहीं दूसरी तरफ हिन्दुस्तान खुद भी रूढ़िवाद, धार्मिक संकीर्णता, सामाजिक […]

नयी दिल्ली: हिन्दुस्तान एक तरफ औपनिवेशिक सत्ता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर गुलाम बना लिया था. यहां दो बातें थीं. एक तरफ तो भारत गुलाम था एक विदेशी कंपनी का वहीं दूसरी तरफ हिन्दुस्तान खुद भी रूढ़िवाद, धार्मिक संकीर्णता, सामाजिक कुरीतियों, और दमघोंटू प्रथाओं के बोझ तले दबा हुआ था.

तभी एक मसीहा अवतरित हुआ जिसने तमाम बुराइयों को चुनौती दी और आखिरी सांस तक बदलाव के लिये लड़ा. ये मसीहा था राजा राममोहन राय. इन्हें दुनिया आज भारत में सामाजिक सुधारों के अग्रदूत के तौर पर याद करती है. इस लेख में हम जानेंगे राजा राममोहन राय के व्यक्तिगत जीवन और उनके सामाजिक सुधारों के लिए किये गए कार्य के बारे में.

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में हुआ था जन्म

राजा राम मोहन का जन्म पश्चिम बंगाल स्थित हुगली जिले के राधानगर गांव में हुआ था. तारीख थी 22 मई साल 1772 ईस्वी. पिता रमाकांत राय शुद्ध वैष्णव परंपरा को मानने वाले थे, वहीं माता तारिणी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं. पूरा परिवार कट्टर हिन्दु परंपराओं का हिमायती था लेकिन राममोहन राय को बिना तर्क किसी भी बात को नहीं मानने की आदत बचपन से ही थी. इसलिए जब केवल 15 साल के थे तो उन्होंने मूर्ति पूजा को लेकर सवाल खड़े कर दिये. साथ ही अन्य प्रथाओं की भी आलोचना करनी आरंभ कर दी.

प्रथाओं पर सवाल उठाने पर पिता से मतभेद

हिन्दू परंपराओं का विरोध करना शुद्ध वैष्णव परंपरा को मानने वाले पिता रमाकांत को नागवार गुजरी. पिता-पुत्र में गहरा मतभेद हो गया. राममोहन राय को पढ़ने के लिए पटना भेज दिया गया. यहां उन्होंने बांग्ला, पारसी, अरबी, संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया. यहां भी वो हिन्दू परंपराओं और प्रथाओं को तर्क की कसौटी पर परखते रहे और सवाल उठाते रहे.

परिवार परेशान था. उन्हें लगा, उनका राममोहन गलत संगत में है और बिगड़ रहा है. बेटा सुधर जाए इसलिए उनकी शादी करवा दी ताकि उसका मन घर-गृहस्थी में लगा रहे. लेकिन कैसे? राममोहन राय का जन्म किसी महान उद्देश्य के लिए हुआ था.

समाज में व्याप्त बुराइयों का गहन अध्ययन किया

पढ़ाई पूरी करने के बाद राममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व विभाग में नौकरी कर ली. यहां वे कई अंग्रेजों के संपर्क में आये. उनकी सभ्यता, सोच और तौर-तरीकों को करीब से महसूस किया. उन्होंने समझ लिया कि पश्चिमी सभ्यता विकास की प्रक्रिया में काफी आगे निकल गयी है जबकि हिन्दुस्तान इसके मुकाबले सदियों पीछे जी रहा है. उन्होंने यहां नौकरी करते हुए अंग्रेजी और लैटिन भाषायें सीखीं. उन्होंने इस्लाम और इसाई धर्म के बारे में गहन अध्ययन किया. भारतीय ग्रंथों का भी गहराई से अध्ययन किया. उन्हें एक बात समझ आयी कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में वो कतई नहीं लिखा है जो पोंगा पंडित, लोगों को बता रहे हैं.

अखबारों के जरिये समाज का जगाने का प्रयास

उन्होंने महसूस किया कि भारतीय जनमानस अपने ग्रंथों की मूलभावना से काफी अनजान है. ऐसा इसलिए था क्योंकि धर्मग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे और लोगों की पहुंच से दूर थे. इसलिए उन्होंने धर्मग्रंथों का हिन्दी, बांग्ला, अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया. लोगों की सामान्य पहुंच तक पहुंचाया. उन्होंने अपने अखबारों ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरात-उल-अखबार’ में लेखों के जरिये आम जनमानस को जागरूक करने का प्रयास किया.

आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाने, लोगों को जागरुक करने और उन्हें नाना प्रकार की रुढ़िवादी परंपराओं से बाहर निकालने के लिए राममोहन राय ने साल 1814 में आत्मीय सभा, और फिर 1828 में ब्रह्मसमाज की स्थापना की. इन संस्थाओं के जरिये वे लोगों तक गये और शिक्षा के जरिये उनमें बदलाव लाने की कोशिशें कीं. उन्होंने लोगों को अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित किया.

भाभी के सती होने पर व्यथित हुए थे राममोहन राय

एक बार वे किसी काम से विदेशी दौरे पर गये. इसी बीच हिन्दुस्तान में उनके बड़े भाई का देहांत हो गया. परंपरा के मुताबिक गांव वालों ने पंडितों के साथ मिलकर उनकी भाभी को सती हो जाने के लिए मजबूर किया. उन्हें मृतक के साथ उसी चिता में जिंदा जला दिया गया. इस घटना से राममोहन राय बहुत दुखी हुए. उन्होंने पूरे हिन्दुस्तान में ऐसी क्रूर प्रथा को धर्म के नाम पर खुलेआम होते देखा.

इससे पहले जब उनके पिता का देहांत हुआ था तब उन्होंने देखा था कि समाज विधवाओं के साथ कैसा व्यवहार करता है. विधवाओें का सिर मुंडवा दिया जाता था. उन्हें रंगहीन सफेद कपड़ा पहनना पड़ता था. उन्हें बेस्वाद खाना खाने के लिए मजबूर किया जाता था. उन्हें परिवार या समाज के सार्वजनिक आयोजनों से दूर रखा जाता था. इन दोनों बातों ने राममोहन राय को अंदर तक व्यथित किया.

सती प्रथा के खिलाफ राममोहन राय ने छेड़ी जंग

उन्होंने ठान लिया कि वे भारतीय समाज के इन बुराइयों को दूर कर के रहेंगे. इसलिए उन्होंने सती प्रथा उन्मूलन और विधवा पुनर्विवाह कानून बनाने की मुहिम छेड़ दी. जहां वे कानून बनाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को मनाने में लग गए वहीं इन प्रथाओं के खिलाफ लोगों को जागरुक करना भी शुरू कर दिया. इसमें उन्हें तात्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक से खूब सहायता मिली. विलियम बैंटिक की मदद से ही राममोहन राय 1829 में सती प्रथा निरोधक कानून बनवा पाने में सफल हुए.

वहीं उन्होंने विधवा पुनर्विवाह कानून, बाल विवाह तथा बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ भी कानून बनाने में सफलता हासिल की. इस वजह से राममोहन को समाज में काफी विरोध का सामना करना पड़ा. केवल समाज ही नहीं बल्कि उनके परिवार ने भी उनका बहिष्कार किया. लेकिन कोई भी विरोध राममोहन राय को उनके इरादों से डिगा नहीं सका.

मुगल बादशाह ने राममोहन को दी राजा की उपाधि

इन सफलताओं के बाद एक नयी चुनौती सामने आ गयी. दरअसल किसी ने सती प्रथा उन्मूलन कानून के खिलाफ याचिका डाली और कानून को बदलने की मांग की. राममोहन राय ये कतई नहीं होने देना चाहते थे. इसी बीच मुगल बादशाह ने उन्हें आर्थिक सहायता संबंधी किसी काम के लिए ब्रिटेन भेजा. इसी मुगल बादशाह ने उनको राजा की उपाधि भी दी. राममोहन राय इस यात्रा के लिए तैयार हो गये क्योंकि वो ब्रिटेन जाकर अधिकारियों को इस बात के लिए तैयार करना चाहते थे कि सती प्रथा निरोधक कानून को पलटा ना जाये.

1833 में ब्रिटेन में राममोहन राय का निधन हो गया

ब्रिटेन में उन्होंने कई सभायें कीं. आम जन के बीच अपनी व्यक्तव्य दिया. अधिकारियों से मुलाकात की और भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों से उनको अवगत करवाया. यहां के बाद उनका इरादा अमेरिका जाने का था. लेकिन वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये. ब्रिटेन स्थित ब्रिस्टल के समीप स्टाप्लेटन में 27 सिंतबर 1833 को राजा राममोहन राय का निधन हो गया. चूंकि यहां दाह संस्कार की अनुमति नहीं थी इसलिए उनके पार्थिव शरीर को दफना दिया गया. लेकिन मरने से पहले समाज सुधार का ये पहरुआ, हिन्दुस्तान को एक नई राह दिखा गया. आज इनकी पुण्यतिथि है…

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