-इंटरनेट डेस्क-
जब से केंद्र में नयी सरकार का गठन हुआ है, एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है. यह विवाद है कार्यकाल समाप्त होने से पहले कई राज्यपालों से इस्तीफा मांगे जाने का. जब से नयी सरकार सत्ता में आयी है, ऐसी चर्चाएं तेज हैं कि पूर्व सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को अब हटा दिया जायेगा. इस बात में कोई नयापन भी नहीं है, क्योंकि हमेशा से यही होता आया है.
जब भी केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है, राज्यपाल भी बदल दिये जाते हैं. यह बात दीगर है कि हमारे देश में अधिकतर समय कांग्रेस ने शासन किया है, इसलिए वह खुद अपनी ही सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को नहीं हटाती है. लेकिन इस बारकेंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है. कांग्रेस की सरकार चली गयी है और भाजपा की सरकार बनी है.
ऐसे परिदृश्य में केंद्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने कुछ राज्यपालों से इस्तीफा देने का अनुरोध किया है. इस अनुरोध के बाद उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने अपना इस्तीफा दे दिया. आज छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने भी अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दिया. जिस दिन बीएल जोशी ने इस्तीफा दिया था, उस दिन ऐसी खबरें भी आयीं थी कि असम और कर्नाटक के राज्यपाल भी इस्तीफा देंगे, लेकिन बाद में उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया.
केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी इस्तीफा मांगे जाने पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. ऐसे में एक बार फिर देश में यह बहस तेज हो गयी है कि आखिर राज्यपालों की नियुक्ति किस आधार पर की जाती है और किस आधार पर उन्हें पदच्युत कर दिया जाता है.
क्या है संविधान में प्रावधान
संविधान की धारा 155 और 156 के अनुसार एक राज्य के गर्वनर की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह तब तक अपने पद पर बना रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति चाहें. अगर राष्ट्रपति चाहें, तो कोई राज्यपाल अपने पांच साल के कार्यकाल को पूरा कर सकता है, लेकिन अगर वे ऐसा न चाहें, तो राज्यपाल को अपना पद छोड़ना पड़ सकता है. अब यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्यपाल अपने पद पर तभी तक बना रह सकता है, जब तक कि राष्ट्रपति की इच्छा हो. चूंकि हमारे देश में राष्ट्रपति की इच्छा प्रधानमंत्री और उसके कैबिनेट द्वारा निर्धारित की जाती है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल तभी तक अपने पद पर बना रह सकता है, जबतक कि केंद्र सरकार चाहे.
क्या है सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या
वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने बीपी सिंघल और भारत सरकार मामले में यह व्यवस्था दी कि राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि किसी भी राज्य के राज्यपाल को बिना कारण बताये पद से हटा सकते हैं. लेकिन यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्यपाल को पदच्युत अकारण, मनमाने ढंग से या फिर सिर्फ इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि उनकी नियुक्त पूर्व सरकार ने की है.
कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसा शायद ही देखने को मिला है कि कोई राज्यपाल केंद्र सरकार की पॉलिसी और उसके सिद्धांतों को विरुद्ध कार्य करता हो. कोर्ट ने संवैधानिक प्रावधानों की जिस प्रकार व्याख्या की है, उससे यही कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार राज्यपालों की नियुक्ति और उन्हें हटाये जाने का पूरा अधिकार रखती है, बशर्ते कि राज्यपाल को हटाये जाने का निर्णय अकारण और पक्षपातपूर्ण न हो.
गौरतलब है कि वर्ष 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में आयी थी और उसने भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त किये गये उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गोवा और गुजरात के राज्यपालों को पद से हटा दिया था, तब कोर्ट में इस निर्णय के खिलाफ अपील की गयी थी. उस वक्त कोर्ट ने उक्त व्यवस्था दी थी.
क्या कहते हैं संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप
केंद्र में कोई भी नयी सरकार सत्ता में आती है, तो पहले की सरकारों द्वारा नियुक्त राज्यपाल के स्थान पर नये राज्यपाल नियुक्त करने की परिपाटी पुरानी है. हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के बाद एनडीए की सरकार पर्याप्त बहुमत से बनी है. ऐसे में परिपाटी के मुताबिक ही नयी सरकार यूपीए के शासनकाल में नियुक्त राज्यपालों को यह संदेश दे रही है कि वे पद छोड़ दें. यूपीए सरकारों के दौरान 18 राज्यपाल नियुक्त किये गये थे.
संवैधानिक प्रावधान भी यही है कि जब भी केंद्र सरकार (या राष्ट्रपति) किसी राज्यपाल को पद से हटाना चाहेगी, तो उसे पद से हटना पड़ेगा. यह कानून सम्मत दृष्टि से भी सही है और नैतिकता के तकाजे पर भी. कानून सम्मत दृष्टि से इसलिए, क्योंकि केंद्र सरकार की सिफारिश पर ही राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है.
ऐसे में वे केंद्र सरकार की मर्जी के बिना राज्यपाल राज्यों में बने नहीं रह सकते. चूंकि आजकल सत्तारूढ़ राजनीतिक दल द्वारा अपनी पसंद के लोगों को ही राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जाता है, इसलिए नैतिकता का तकाजा भी यही है कि नयी सरकार के कहने पर वे पद से हट जायें.राज्यपालों के हटाये जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने भी पहले ऐसा ही किया था.