नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक बार में तीन तलाक देने को दंडनीय अपराध बनाने संबंधी अध्यादेश की संवैधानिक वैधता को चुनौती देनेवाली याचिकाओं पर विचार करने से शुक्रवार को इनकार कर दिया. यह अध्यादेश 19 सितंबर को जारी किया गया था.
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ के समक्ष मुस्लिम महिला (विवाह में अधिकारों का संरक्षण) अध्यादेश को चुनौती देनेवाली याचिकाएं शुक्रवार को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध थीं. पीठ ने याचिकाकर्ताओं के वकीलों से कहा कि अध्यादेश की उम्र छह महीने ही होती है. पीठ ने कहा कि वैसे भी संसद का शीतकालीन सत्र होनेवाला है. पीठ ने कहा, हम इस पर विचार करने के इच्छुक नहीं हैं. इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने याचिकाएं वापस ले लीं. केंद्रीय मंत्रिमंडल की 19 सितंबर की बैठक के चंद घंटों के भीतर ही यह अध्यादेश जारी किया गया था. एक ही बार में तीन तलाक देने की प्रथा को तलाक-ए-बिद्दत भी कहते हैं.
उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल 22 अगस्त को एक बार में तीन तलाक देने की प्रथा को पवित्र कुरान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ करार देते हुए कहा था कि इससे शरियत कानून का उल्लंघन होता है. इस अध्यादेश के तहत एक बार में तीन तलाक को गैरकानूनी और अवैध घोषित करते हुए दंडनीय अपराध बनाया गया है. इस अपराध के लिए पति को तीन साल की सजा का प्रावधान है. इस कानून के दुरुपयोग की आशंक को दूर करते हुए सरकार ने इसमें मुकदमे की सुनवाई से पहले आरोपी के लिए जमानत के प्रावधान को भी शामिल किया है. याचिकाकर्ताओं में से एक के वकील ने कहा कि यह अध्यादेश संविधान के साथ धोखा है.
एक अन्य याचिकाकर्ता केरल स्थित मुस्लिम संगठन, समस्त केरल जमीयतुल उलेमा ने अपनी याचिका में दावा किया कि केंद्र ने मनमाने और पक्षपातपूर्ण तरीके से यह अध्यादेश लागू किया है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14 सहित कई प्रावधानों का हनन होता है. इसके अलावा इसी मुद्दे को लेकर दो अन्य याचिकाएं भी शीर्ष अदालत में दायर की गयी थीं.