-हरिवंश-
डॉ लोहिया की सबसे बड़ी देन है कि उन्होंने सदियों से पिछड़े गरीब-गुरबों में आत्मसम्मान की भूख पैदा की. व्यवस्थागत शोषण के प्रति सात्विक आक्रोश पैदा किया और उन्हें देश के विराट सपनों के साथ जोड़ा. महारानी के खिलाफ सुखो रानी मेहतरानी को लड़ा कर, दलितों में भी राज करने की भूख पैदा की. दिल्ली की संसद में तीन आने की आय के बाद कोई ऐसी बहस नहीं हुई, जिससे गांव का आदमी यह महसूस करे कि मौजूदा व्यवस्था में उसका अस्तित्व और अहमियत है. दिल्ली के सांसद उसके रखवार और हितैषी हैं.
मूलत: डॉ लोहिया सृजनशील और मौलिक विचारक थे. देश की राजनीति को जनोन्मुख बनाने के लिए उन्होंने समय-समय पर अनेक सिद्धांत और नीतियां गढ़ीं. छोटी मशीनों की टेक्नोलॉजी, चौखंबा राज्य, दाम बांधो, जाति तोड़ो, गैर कांग्रेसवाद, भारत-पाक महासंघ, पिछड़ों के लिए आरक्षण, हिमालय बचाओ, अंगरेजी हटाओ- मातृभाषा लाओ, साम्राज्यवादी मूर्तियां हटाओ, कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ आदि अवधारणा के प्रतिपादक डॉ लोहिया ही रहे हैं. केंद्रीकृत समाज की बुराइयों के प्रति उन दिनों लोग सजग नहीं थे. समाजवाद और पूंजीवाद दोनों व्यवस्थाओं के जनक देश बड़ी मशीनों के मिथक के मोहपाश में बंधे थे.
उन दिनों जब डॉ लोहिया छोटा मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था की बात करते थे, तो लोगों को उनकी बातें अटपटी लगती थीं. उन्हें सिरफिरा कहा गया. अब अमेरिका और रूस दोनों में केंद्रीकृत व्यवस्था के प्रति मोहभंग हो रहा है. विकेंद्रित अर्थव्यवस्था और केंद्रीकृत लोकतंत्र दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते. यह लोहिया बहुत पहले कहा करते थे. अब योजना आयोग अपनी विफलताओं से मजबूर होकर जिला स्तर पर नियोजन की बात कर रहा है. दूसरी ओर पंचायतों के चुनाव के माध्यम से लोकतंत्र को गांव-गांव पहुंचाने के नारे लग रहे हैं. विवश और हताश लोग अब यह महसूस करने लगे हैं कि ऊपर बैठे मुट्ठी भर लोग लोकतांत्रिक ताकत को अपने कब्जे में रखेंगे, तो केंद्र टूट जायेगा. रोजाना पंजाब, दार्जिलिंग, त्रिपुरा जैसी समस्याएं पैदा होंगी. अत: लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था को नये सिरे से विकेंद्रित करने की बात सरकारी पक्ष से उठ रही है.
जैसे हर युग में चिंतक और विचारक समाज के व्यवस्था पोषक वर्ग के हमले के शिकार हुए हैं. लोहिया भी हुए. आजाद भारत के लिए हर कुरबानी देनेवाले उस व्यक्ति को क्या नहीं सहना पड़ा. लांछना, प्रताड़ना, हमला और निंदा! सब कुछ उन्होंने सहज भाव से स्वीकार किया. 20 वर्ष के कांग्रेसी शासन में वह 30 बार गिरफ्तार किये गये. 1944 में गिरफ्तारी के बाद लाहौर किले में अंगरेजों ने उन्हें भयंकर यातनाएं दी थीं. आजाद भारत के एक जेल में उन पर लाठियां बरसायी गयीं. 1954 के बाद एक ऐसा दौर आया, जब डॉ लोहिया के अभिन्न साथी एक-एक कर अलग हो गये. सत्ता का तिलिस्म उन्हें बांध चुका था. कुछ लोग नये दर्शन की तलाश में साथ छोड़ गये. फिर भी डॉ लोहिया अकेले समाजवाद का अलख जगाते रहे. 1963 में फर्रुखाबाद से चुने जाने के बाद पहली बार उन्होंने नेहरू सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद की.
1963 में उन्होंने लोकसभा में तीन आना बनाम पंद्रह आने के सवाल पर ऐतिहासिक बहस की. आधुनिकता के नाम पर पश्चिमीकरण का तीव्र विरोध किया.राजनीति में भले ही डॉ लोहिया के पुराने मित्र साथ छोड़ गये, लेकिन मुद्दों पर आधारित उनकी राजनीति के कारण उनके साथ भारी तादाद में नये लोग जुड़े. युवकों-विद्यार्थियों में नयी चेतना पैदा करने का कार्य समाजवादी युवजन सभा (सयुस) ने अनोखे ढंग से किया.
उन दिनों यह संगठन हर तेज-तर्रार युवक को अपनी ओर खींचता था. बहुत कम समय में ही बहस और वैचारिक ऊर्जा के केंद्र सयुस की जड़ें पूरे देश में फैल गयीं. ऐसे संगठनों के अभाव में अब प्रखर और मूल्यों के प्रति समर्पित युवक नहीं उभर रहे. एक पुराने सर्वोदयी-समाजवादी के शब्दों में ‘यह मिट्टी (युवा पीढ़ी) हो अनुर्वर हो गयी है. कोई भी बीज डालो. यह सड़ जाता है.’
डॉ लोहिया के व्यक्तित्व में अराजकता थी. हर प्रखर मनीषी में यह खोट मिलेगी. वह संगठनकर्ता नहीं थे. लेकिन यह हमारा दृष्टिदोष है कि एक व्यक्ति में ही हम गुण तलाशते हैं. उनके साथ चोटी के संगठनकर्ता रहे होते, तो आज भारत की राजनीति का स्वरूप अलग होता. समाजवादियों ने थोक भाव से उनकी अराजकता तो अपना ली, पर प्रखरता और तीक्ष्ण दृष्टि को भुला दिया. इस कारण उनका पराभव तो हुआ ही, सयुस जैसे उर्वर संगठनों की जड़ें सूख गयीं और समाजवादी सत्ता के बियाबान में गुम हो गये. डॉ लोहिया में एक और अनोखी बात थी. वह महज राजनीतिक सिद्धांत नहीं गढ़ते थे. व्यवहार के धरातल पर उन्हें क्रियान्वित करने का साहस भी उनमें था.
1961 में मिसीसिपी के जैक्शन शहर में वह मरते-मरते बचे. उन दिनों अमेरिका में खूंखार कू क्लस कान (गोरों का उग्रवादी-रंगभेदी दल) संगठन का आतंक था. ये लोग अपने विरोधियों में विश्वास करते थे. उन दिनों डॉ लोहिया रंगभेद की समस्याओं को देखने-समझने अमेरिका गया थे. जैक्शन के मेथाडस्टि मिनस्टिर रेवरेंड किंग उनके साथ थे. किंग सफेद चमड़ी के हैं. कुछ काले विद्यार्थियों के साथ डॉ लोहिया बैठे थे, तो उन्हें सूचना मिली की विश्व प्रसिद्ध स्टोर ऊलवर्थ में काले लोगों को नाश्ता-कॉफी नहीं मिलता.
डॉ लोहिया ने वहां बैठे अपने साथियों से पूछा कि क्या उनमें से कोई उनके साथ वहां जा कर सत्याग्रह करने के लिए तैयार है. कू क्लस के आतंक से कोई तैयार नहीं हुआ. डॉ लोहिया अकेले वहां गये. पहले उनकी उपेक्षा हुई. फिर उन्होंने कॉफी मांगी. उन्हें तुरंत हटने के लिए कहा गया. पुलिस आयी. उन दिनों पुलिस और कू क्लस संगठन में आपसी तालमेल था. पुलिस कालों को सुविधानुसार छोड़ देती थी. इसके बाद कू क्लस के उग्रवादी उक्त व्यक्ति को पकड़ कर हत्या कर देते थे. ऐसे दर्जनों लोगों को मार कर उनके शव उन दिनों वहां बन रहे बड़े बांध के 30 फुट गहरे गड्ढे में डाल दिये गये. बाद में एफबीआइ (फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन) ने यह रहस्य पता लगाया. डॉ लोहिया की गिरफ्तारी हुई. इसकी सूचना रेवरेंड किंग ने वाशिंगटन भेजी.
उन्हें जब छोड़ा गया, तो बीच रास्ते में इस गोरे संगठन के खूंखार लोगों ने योजनानुसार घेर लिया. रेवरेंड किंग ने अंतिम क्षण चालाकी की. पूर्व निर्धारित कार में वह खुद बैठ गये थे. डॉ लोहिया को बिना बताये दूसरी कार दे दी. सफेद चमड़ी के उग्र युवकों ने रेवरेंड की कार पर ही धावा बोल दिया. शीशे तोड़ दिये. लोहिया को तलाशा, लेकिन लोहिया की कार काफी आगे निकल गयी थी. उन्हें रहस्य मालूम नहीं था. आज भी रेवरेंड के चेहरे पर गहरे जख्मों के निशान मौजूद हैं.
ऐसे थे डॉ लोहिया. अपनी प्रतिबद्धता के लिए मौत से भी लोहा लेनेवाले. स्वदेश लौट कर भी डॉक्टर साहब ने जुबान नहीं खोली कि रंगभेद के खिलाफ अमेरिका में उन्होंने कैसे लड़ाई लड़ी और कैसे मौत के मुंह से निकल आये. तब भारतीय राजनीति में व्यक्तिगत उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने की शुरुआत नहीं हुई थी. और डॉ लोहिया, वह तो कथनी-करनी में एका के पैरोकार थे. पिछले वर्ष मिसीसिपी गये एक भारतीय पत्रकार को रेवरेंड किंग मिले. उन्होंने डॉ लोहिया के मौत के इस साक्षात्कार का रहस्योद्घाटन किया.
संकल्प और साहस के धनी डॉ लोहिया का व्यक्तित्व एकांगी नहीं, बल्कि बहुआयामी था. धर्म-दर्शन, पुराण, वेद, इतिहास, अर्थशास्त्री, कला-सौंदर्य, प्राचीन-साहित्य और भारतीय संस्कृति के संदर्भ में वह नये सिरे से चीजों की व्याख्या करते थे. जाति, भाषा और नर-नारी समता के बारे में विश्वसनीय ढंग से उन्होंने बहस आरंभ की. वह अद्भुत मानव प्रेमी थे. क्रोध और प्रेम का उनमें सुंदर समन्वय था. अन्याय के प्रति उनमें अहरह आग जलती थी. गरीब से गरीब कार्यकर्ता उनसे एकाकार महसूस करता था. हिंदुस्तान के शासक वर्ग-नौकरशाहों के प्रति उनमें अजीब घृणा भरी थी. वह मानते थे कि हिंदुस्तान की आन-बान और शानोशौकत को इसी वर्ग ने गिरवी रख दिया है. हजारों वर्षों से हिंदुस्तान के गुलाम और थके मन को उत्फुल्ल और आजाद बनाने के लिए वह सोचते और लड़ते रहे. बार-बार उन्हें राजनीतिक पराजय मिली, फिर भी उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य’ की अद्भुत व्याख्या की. अपने मामूली कार्यकर्ताओं को उन्होंने निराशा के बावजूद काम करते रहने की सीख दी. निर्गुण-सगुण, समष्टि-व्यष्टि और समता-स्वतंत्रता में समन्वय की तलाश करते रहे. बार-बार हार कर भी डटे रहने के संकल्प से ही समाज-राजनीति-देश, नये मुकाम पर पहुंचते हैं. हिंदुस्तान की स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में ऐसी जिजीविषा का दूसरा दृष्टांत नहीं है.
वह इतिहास चक्र के व्याख्याता थे. हिंदुस्तान के बुनियादी सवाल-समस्याएं बराबर उनके मन को मथती रहीं. वह सोचते थे कि भारत किन कारणों से बार-बार गुलाम होता रहा है? अपने चिंतन क्रम में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि देश की 90 फीसदी जनता का देश के शासन-राजकाज से कोई ताल्लुक नहीं है. वह निरपेक्ष-तटस्थ बन गयी है. जाति प्रथा ने ही समाज को अंदर से खोखला बना डाला है. इसी कारण देश के इतिहास में पानीपत, पलासी और बक्सर की लड़ाइयों की पुनरावृत्ति होती रही है. इस आत्मबोध की तलाश में ही वह ‘जाति तोड़ो’ के निष्कर्ष पर पहुंचे. पिछड़ों-दलितों के लिए ‘विशेष अवसर’ की वकालत की. वह मानते थे कि इसी रास्ते भारतीय समाज की हजारों वर्ष पुरानी जड़ता टूटेगी. भारतीय परिवेश में उन्होंने शोषकों के तीन मापदंड निर्धारित किये. संपत्ति, जाति और भाषा. इनमें से दो भी किसी के पास हैं, तो वह शासक-वर्ग का हिस्सा है. समाजवाद के सपने को साकार करने के लिए उन्होंने धर्म, पुराण और मिथक का सहारा लिया. वह मानते थे कि जनसाधारण में परिवर्तन की भूख जगाये बिना या उनकी चेतना परिष्कृत किये बिना समाजवाद फलित नहीं होगा.
कभी घोर निराशा के क्षण में डॉ लोहिया ने कहा था कि लोग मेरी बात सुनेंगे अवश्य, पर मेरे मरने के बाद. लेकिन चौथे आम चुनावों के दौरान ही लोगों ने उनकी आवाज सुनी. आंशिक सफलता ने उनकी तटस्थ मूल्यांकन दृष्टि और निर्लिप्त व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं किया. वह समझते थे कि परिवर्तन की लड़ाई लंबी है. इसके लिए वंश-परंपरा, जाति, धन, स्थिरता और धारावाहिकता की उन सभी प्रवृत्तियों से लड़ना और उनको पराजित करना होगा, जो परिवर्तन की दिशा का निर्धारण होने में बाधक हैं.
यह कटु यथार्थ है कि डॉ लोहिया के बाद संघर्ष और सृजन, फावड़ा और जेल की राजनीति के उत्स सूख गये हैं. इस कारण भारतीय राजनीति में लोहिया के गुजरने के दो दशक बाद भी परिवर्तन की दिशा आज तक तय नहीं हो पायी है.