थिम्पू : भूटान में फिल्में बनाना आसान नहीं है. पर्वतीय भू-भाग वाले देश में न केवल आपको खुद फिल्म बनाने की मूलभूत कला सीखनी होगी बल्कि एक अस्थायी यानि चलते-फिरते सिनेमाघर की भी व्यवस्था करनी होगी जो गांव गांव घूमकर भूटान के फिल्म प्रेमियों का मनोरंजन करे. यही वजह है कि देश के शीर्ष निर्देशक शेरिंग वांग्यल फिल्म पूरी करने के बाद अपनी टीम के साथ मिलकर प्रोजेक्टर, तंबू, पर्दा और टिकट लेकर पूरे देश के दौरे पर निकल पडते हैं तथा महीनों घूमते रहते हैं.
बुनियादी संरचना के अभाव के बावजूद भूटान का 25 साल पुराना फिल्म उद्योग विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है. लोग बॉलीवुड के फॉमूर्ले और पारंपरिक बौद्ध शिक्षा के मिश्रण वाली फिल्मों को बहुत पसंद कर रहे हैं. वांग्यल ने राजधानी थिम्पू में कहा,’ इस समय हमें फिल्म दिखाने के लिए पूरे देश का दौरा करने में एक साल का समय लगता है. मैं हमेशा खुद ही यह काम करता था लेकिन अब अपने लोगों को भेजता हूं.’
उन्होंने कहा, ‘ पिछले साल मेरे लडकों ने एक कार, एक पर्दा, एक तंबू, एक प्रोजेक्टर लिया और अलग अलग जिलों में गए, हर आयोजन स्थल पर एक अस्थायी सिनेमाघर लगाया या स्कूल के सभागार का इस्तेमाल किया.’ फिल्में देखने के लिए लंबा इंतजार करने की वजह से पायरेसी उद्योग का भी विकास हुआ. अधीर दर्शक जोंगखा भाषा की फिल्मों की अवैध कॉपियां देखने को तैयार रहते हैं.
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद देश में फिल्म उद्योग का महत्वपूर्ण रुप से विस्तार हुआ है. जहां एक दशक पहले एक साल में तीन फिल्मों बनती थीं वहीं अब इस साल 15 फिल्में बनी हैं. भूटान में हर साल कुछ नए लोग निर्देशक के तौर पर पर्दापण करते हैं जिनमें से किले शेरिंग भी एक हैं. शेरिंग ने अपने एक दोस्त केब के बंगले को फिल्म के सेट में बदल दिया और अपनी पहली फिल्म ‘नगा धा चोई’ (तुम और मैं) बनाने के लिए अपने एक रिश्तेदार से पैसे लिए.
27 वर्षीय के शेरिंग ने कहा, ‘भूटान में फिल्म निर्माण एक सामुदायिक उद्यम है. दोस्त आपको अपना घर देते हैं, रिश्तेदार पैसे देते हैं, हर कोई सेट पर मदद करता है.’ स्थानीय फिल्मों की बढती लोकप्रियता ने हिंदी सिनेमा की फिल्मों के प्रशंसकों की संख्या कम कर दी है. दशकों तक देश के सिनेमाघरों में अकसर छाए रहने के बाद अब कुछ ही सिनेमाघरों में बॉलीवुड की फिल्में दिखायी जाती हैं.
हालांकि मुंबई स्थित फिल्म उद्योग का भूटानी फिल्मों पर काफी प्रभाव है.कुछ भूटानी फिल्मों को विदेशों में समीक्षकों की सराहना और व्यवसायिक सफलता भी मिली है जिनमें 1999 में आयी फिल्म ‘द कप’ शामिल है. इस फिल्म का निर्देशन एक तिब्बती बौद्ध लामा ने किया था. इसके बावजूद भूटानी दर्शक अब भी नृत्य संगीत प्रधान फिल्मों को ज्यादा पसंद करते हैं.
वांग्यल ने कहा,’ अगर कोई फिल्म बहुत कलात्मक हो या यथार्थवादी हो तो वह नहीं चलेगी. हमारे दर्शकों को फॉर्मूला फिल्में पसंद हैं जिनमें नाच-गाने, हंसी और आंसू हों.’ आलोचकों का मनाना है कि फॉमरूला सिनेमा के प्रचलन में होने की वजह देश का मुख्यधारा से अलग थलग रहना है, जहां 1999 में टेलीविजन आया. साथ ही इसकी वजह विश्व सिनेमा तक पहुंच ना होना भी था.
स्वतंत्र फिल्मकार ताशी ग्येलत्शेन ने कहा, ‘निराशाजनक बात यह है कि हम कहते हैं कि हमें अपनी संस्कृति पर गर्व है लेकिन जब आप हमारी फिल्में देखेंगे तो लगेगा कि हमने बॉलीवुड के वैनिटी केस से दर्पण का एक टूटा हुआ टुकडा उठा लिया है.’