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श्रद्धांजलि: जोहरा सहगल,एक कामयाब जिंदगी

जोहरा सहगल की जीवनी में उनकी बेटी ने लिखा है कि जोहरा अपनी घड़ी हमेशा वक्त से पांच मिनट आगे रखती थीं. यह एक व्यंजना भी है उस अजीम अदाकारा और शानदार शख्सियत की जो अपने दौर से हमेशा कुछ कदम आगे रहीं. सहारनपुर के एक समृद्ध, लेकिन पारंपरिक परिवार में सात भाई-बहनों के बीच […]

जोहरा सहगल की जीवनी में उनकी बेटी ने लिखा है कि जोहरा अपनी घड़ी हमेशा वक्त से पांच मिनट आगे रखती थीं. यह एक व्यंजना भी है उस अजीम अदाकारा और शानदार शख्सियत की जो अपने दौर से हमेशा कुछ कदम आगे रहीं. सहारनपुर के एक समृद्ध, लेकिन पारंपरिक परिवार में सात भाई-बहनों के बीच गुजरे पाबंद बचपन से उन्होंने अपने हिस्से की मस्तियां चुरायीं और फिर उस दौर में जब उनकी हमजोलियां बंद डोलियों में नैहर से ससुराल तक की यात्राओं में अपनी जिंदगी गर्क कर देती थीं, वह जर्मनी पहुंच गयीं बैले सीखने.

अपने जमाने के बेहद मशहूर उदय शंकर के बैले ट्रूप के साथ जुड़ कर उनकी उम्मीदों और ख्वाबों को जो पर लगे, तो परवाज दुनिया के कोने-कोने तक पहुंची. 1940 में लौट कर हिंदुस्तान आयीं तो उनकी शोहरत कला की दुनिया में एक बेहतरीन नृत्यांगना के रूप में फैल चुकी थी. यहां जिंदगी ने एक और मोड़ लिया और जोहरा ने एक और ऐसा फैसला लिया, जो अपने वक्त तो क्या हमारे वक्त से भी आगे का है. एक गैर मजहब के मर्द से शादी का. कामेश्वर सहगल साहब साइंसदां भी थे, चित्रकार भी और नर्तक भी.

जोहरा से उनकी दोस्ती इश्क के मुकाम तक पहुंची और परिवार तथा समाज के जबरदस्त विरोध के बावजूद 14 अगस्त, 1942 को उन दोनों से शादी करने का फैसला किया. यह केवल इश्क का जूनून नहीं था. जोहरा सहगल के तरक्कीपसंद ख्यालात का सफर एक गहरी राजनीतिक समझदारी पर आधारित था, जो धर्म-जाति के भेदभाव से इनकार करती थी और औरत होने के नाते अपने लिए दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति को ठहाकों में उड़ा देती थी.

यही वजह रही कि जब हिंदुस्तान दो हिस्सों में तकसीम हुआ, तो उन्होंने अपने अजीज भाइयों और बहनों की तरह मुल्क छोड़ने के बारे में सोचा भी नहीं, बल्कि उन्हें रोकने की पुरजोर कोशिश की. इसी दौर में वह इप्टा से भी जुड़ीं और बंबई के रंगमंच पर खूब सक्रिय हुईं. रंगमंच से उनका यह प्रेम आखिरी सांस तक चला. पृथ्वी थियेटर के साथ कोई चौदह साल तक काम करने के अलावा उन्होंने देश-विदेश के तमाम हिंदी-अंगरेजी नाटकों में काम किया. असल में उनके फिल्मी सफर की शुरुआत भी इप्टा से जुड़ाव के चलते ही हुई. ख्वाजा अहमद अब्बास इप्टा के सहयोग से धरती के लाल बना रहे थे.

जोहरा से उन्होंने इसमें एक भूमिका के लिए कहा और उन्होंने खुशी-खुशी यह काम किया. बाद में नीचा नगर में भी उन्होंने काम किया. उसके बाद तो 1946 से लेकर 2012 तक उन्होंने थियेटर के साथ-साथ ढेर सारी हिंदी-अंगरेजी फिल्मों में काम किया. इस लम्बे और कहकहों से भरे सफर में यह मुमकिन नहीं कि मुश्किलात न आयी हों. उनके कई साक्षात्कारों में और बेटी द्वारा लिखी गयी जीवनी में उनका जिक्र आता भी है, लेकिन इन सबका सामना जोहरा सहगल ने, जो सबकी जोहरा आपा थीं, अपने मस्त ठहाकों और जिंदादिल रवैये से किया.

जनता से उन्हें बेपनाह मुहब्बत मिली तो सरकार ने भी पद्मभूषण और पद्मविभूषण दिये. मुझे नहीं याद आता कि मैंने उनकी कोई उदास तस्वीर देखी हो. हिंदुस्तान जैसे मुल्क में, जहां आज भी औरतें तमाम गैरबराबरी झेलने के लिए मजबूर हैं, उन्होंने अपने हिस्से की आजादी हासिल भी की और हमेशा औरतों के हक में आवाज भी बुलंद की. अगर आजादी, खुशी, संघर्ष और मुहब्बत का कोई मिला-जुला चेहरा होगा, तो वह बिल्कुल जोहरा आपा जैसा होगा. एक भरपूर जिंदगी जीने के बाद उन्होंने दुनिया ए फानी को रुखसत कहा है. यह गमजदा होने का नहीं, बल्कि उनकी शानदार जिंदगी का उत्सव मनाने का मौका है. जोहरा सहगल नहीं रहीं, जोहरा सहगल जिंदाबाद.

।। अशोक कुमार पांडे ।।

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