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लाश को दफन कीजिए
– हरिवंश – विश्वविद्यालयों, कॉलेजों की स्थिति देखिए, गंदगी के ढेर में चल रहे हैं, खंडहर बन रहे हैं. कूड़ा जगह-जगह कैंपस में. क्लास रूमों में जाले फैले हुए. धूल से भरे फर्नीचर. हर जगह लाइब्रेरी बुरी स्थिति में. पटना विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में शायद रात में लोग सोते हैं. वहां पुराने, लुप्तप्राय ग्रंथ (रेयर […]
– हरिवंश –
विश्वविद्यालयों, कॉलेजों की स्थिति देखिए, गंदगी के ढेर में चल रहे हैं, खंडहर बन रहे हैं. कूड़ा जगह-जगह कैंपस में. क्लास रूमों में जाले फैले हुए. धूल से भरे फर्नीचर. हर जगह लाइब्रेरी बुरी स्थिति में. पटना विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में शायद रात में लोग सोते हैं. वहां पुराने, लुप्तप्राय ग्रंथ (रेयर मैनुस्क्रीप्ट ) होंगे.
पर कहीं कोई बेचैनी, चिंता नहीं. भारत की शिक्षण संस्थाओं के दुर्लभ ग्रंथ गायब होकर विदेश पहुंचते रहे हैं. हमें अंगरेजों ने विरासत में जिन समूह, संस्थाओं को सौंपा, उन्हें भी हम कंगाल कर चुके हैं. नहीं संभाल सके अपनी अक्षमता-अयोग्यता से. लुर न होने के कारण.
एक हिंदी राज्य के विधानसभाध्यक्ष ने आत्मपीड़ा सुनायी. कार्यालय के अधिकारी, क्लर्क या कर्मचारी काम करना नहीं जानते. एक शुद्ध ड्राफ्ट नहीं तैयार कर सकते. बोला हुआ, लिख नहीं सकते.
किसी ने ड्राफ्ट तैयार कर दिया, तो कंपोजिटर (पहले के टाइपिस्ट) शुद्ध कंपोज नहीं कर पाते. कानून के ड्राफ्ट गलत तैयार हो जाते हैं. फाइल में गंभीर त्रुटियां होती हैं, पर त्रुटि करनेवाले को न अफसोस है, न शर्म. न डर और न भय. वह साहस के साथ गलती करता है.
त्रुटि बताने पर बेशर्म होकर कहता है, कोई बात नहीं सर !
फिर मुलाकात हुई एक हिंदी राज्य के कुलपति से. उन्होंने कहा, यह संस्थान अब अपने गौरवशाली अतीत का कंकाल भर है. अत्यंत पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में वह कुलपति हैं. उनके कार्यालय में एक डीन ने बताया कि विश्वविद्यालय में एक शुद्ध ड्राफ्ट नहीं बन पा रहा. क्लर्क, (चपरासी से भी लोग क्लर्क बने हैं) या अन्य ऑफिस बाबू न दो-चार पंक्ति शुद्ध लिख सकते हैं और न सही-सही ड्राफ्ट तैयार कर पाते हैं. एक विज्ञप्ति सही-सही तैयार करा पाना कठिन होता है. ऊपर से तुर्रा यह कि आप किसी से कुछ बोल नहीं सकते. एक तो करैला, ऊपर से नीम चढ़ा.
यह दो संस्थाओं के प्रमुख लोगों का आत्मरूदन या यथार्थ निरूपण है. एक संस्था, जिसे लोकतंत्र में मंदिर का दर्जा है यानी विधानसभा. जहां नीतियां बनती हैं, जो समाज या राज्य को संकट में नेतृत्व देता है. उक्त संस्था की बौद्धिक क्षमता या बौद्धिक संपदा दरिद्र है. यानी वहां की मानव संपदा (जो कामकाज करनेवाले अफसर-कर्मचारी हैं) अंदर से खोखली, ज्ञानविहीन, अकुशल और अयोग्य है.
दूसरी संस्था, जो इनसान गढ़ती है. अनगढ़ छात्रों को तेजस्वी, उर्वर और योग्य बनाती है. जहां देश-समाज का भविष्य गढ़ा जाता है, वहां क्या हाल है? अयोग्यों की जमात एकजुट हो गयी है. अगर विश्वविद्यालयों में ठीक-ठीक नोट, ड्राफ्ट या विज्ञप्ति तैयार करनेवाले दुर्लभ हो रहे हैं, तो इससे वर्तमान की स्थिति तो साफ होती ही है. भविष्य की झलक भी मिलती है.
क्या ऐसी संस्थाओं के बल ‘हिंदी राज्य’ बीमारू हालत से उबरेंगे ? 21वीं सदी को ‘ज्ञान की सदी’ (नॉलेज एरा) माना जा रहा है. उस दौर में इस तरह की बीमार, अक्षम, अयोग्य मानव संपदा के बल हम समाज, राज्य का पुनर्निर्माण कर पायेंगे ?
एक सप्ताह पहले मुंबई में ‘वर्ल्ड इकानामिक फोरम’ की बैठक हुई. 40 देशों से 700 लोग आये. वर्ल्ड इकानामिक फोरम की बैठकों में दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों से लेकर टॉप सीइओ, वैज्ञानिक और अपने-अपने क्षेत्र के शिखर के लोग एकजुट होते रहे हैं. यह अत्यंत चर्चित मंच है. बहरहाल भारत के प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री इस बैठक में नहीं गये. जो लोग भारत को अगला सुपर पावर घोषित करते हैं, उन्हें जान कर निराशा होगी कि इस मंच पर भारत की अक्षमता, अक्रियाशीलता, अगति और भ्रष्टाचार की चर्चा हुई.
इसी बैठक में प्रधानमंत्री के सलाहकार (इन्फारमेशन, इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इन्नोवेशन) सैम पित्रोदा ने एक बात कही कि 20वीं सदी की संस्थाएं, 21 वीं शताब्दी की आकांक्षाओं-सपनों को पूरा करने में विफल हैं.
उन्होंने कहा ‘डू नॉट फिक्स द अनफिक्सेबुल ओल्ड सिस्टम. लेट समथिंग्स डाइ’ (पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त या ठीक मत करिए, वह हो नहीं सकती. कुछ चीजों को खत्म हो जाने दीजिए. मर जाने दीजिए). यही बात लागू होती है, हिंदी इलाकों की सड़-गल चुकी संस्थाओं के संदर्भ में. जो शिक्षण संस्थाएं, विश्वविद्यालय, विद्या अर्जन के केंद्र नहीं, राजनीति के अखाड़े हो जाते हैं.
उन्हें मर जाने दीजिए, खत्म हो जाने दीजिए. इन शिक्षण संस्थाओं से बृहस्पति या आइंस्टीन नहीं पैदा हो रहे. जो शिक्षण संस्थाएं बेहतर क्लर्क, अफसर, शिक्षक वगैरह पैदा नहीं कर सकतीं, उन पर अरबों-अरब रुपये लुटाने का क्या औचित्य? ऐसी संस्थाएं समाज के कंधे पर लाश हैं. इन्हें ढोने का क्या लाभ? मैकाले ने इन्हें बेहतर क्लर्क पैदा करने के लिए उपयुक्त माना था. अगर क्लर्क या ऑफिस बाबू भी अपढ़, अक्षम और बोझ पैदा हो रहे हैं, तो इन संस्थाओं को क्यों ढोना?
इन संस्थाओं का ‘माइंडसेट ‘ क्या है? अयोग्य छात्रों को पैदा करना, अध्यापक समूहों द्वारा समाज, सरकार से जबरन तनख्वाह लेना. यह पद्धति पूंजीवादी देश अमेरिका में भी नहीं है.
बेंगलुरु में एक पूर्व संपादक (अत्यंत प्रतिष्ठित) ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने बड़े शान से कहा कि मैंने सात वर्षों से एक भी कक्षा नहीं ली. नहीं पढ़ाया. अब अगर प्राध्यापक पढ़ा भी रहे हैं तो क्वालिटी क्या है? किस योग्यता, हुनर या कौशल के लोग समाज या देश को मिल रहे हैं ? किस तरह के शोध हो रहे हैं? पैसे लेकर शोध करानेवाले अनेक अध्यापकों के हुनर सामने आ चुके हैं ?
विश्वविद्यालयों, कॉलेजों की स्थिति देखिए, गंदगी के ढेर में चल रहे हैं, खंडहर बन रहे हैं. कूड़ा जगह-जगह कैंपस में. क्लास रूमों में जाले फैले हुए. धूल से भरे फर्नीचर. हर जगह लाइब्रेरी बुरी स्थिति में.
पटना विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में शायद रात में लोग सोते हैं. वहां पुराने, लुप्तप्राय ग्रंथ (रेयर मैनुस्क्रीप्ट ) होंगे. पर कहीं कोई बेचैनी, चिंता नहीं. भारत की शिक्षण संस्थाओं के दुर्लभ ग्रंथ गायब होकर विदेश पहुंचते रहे हैं. हमें अंगरेजों ने विरासत में जिन समूह, संस्थाओं को सौंपा, उन्हें भी हम कंगाल कर चुके हैं. नहीं संभाल सके अपनी अक्षमता-अयोग्यता से. लुर न होने के कारण.
समाज में कहीं भी बैठिए, हर आदमी व्यवस्था का दोष गिनाता है. खासतौर से विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में तो और. पठन-पाठन का गंभीर कामकाज तो रह नहीं गया. बस पॉलिटिक्स करनी है. पर खुद जहां हैं, वहां क्या कर रहे हैं ? जहां हजारों-लाखों छात्रों का बाहुबल और श्रम संपदा हो, क्या वहां महीने में हम एक दिन अपने लिए सफाई नहीं कर सकते? श्रमदान से. अंतत: उस सफाई से किसको लाभ मिलेगा?
इसके लिए भी रोना रोयेंगे, सरकार नहीं करा रही. इस अकर्म की पीड़ा कौन भुगतेगा? अकर्मण्य समाज, सब सुख चाहता है. पर खुद कठोर धैर्य, श्रम और अनुशासन के लिए तैयार नहीं है. हमारा मानस हो गया है कि सरकार ‘माइ-बाप है.’ वह हर चीज करे. जादू की तरह. हम सिर्फ आत्मकेंद्रित रहें. समाज व सरकार का शोषण करें. क्यों युवा इस मानस के खिलाफ नहीं बोलते?विद्रोह नहीं करते?
राजनीतिज्ञ, रहनुमा होते हैं. भविष्यद्रष्टा. वे सब जानते हैं, पर वे साफ-साफ नहीं बोल सकते, क्योंकि उन्हें सत्ता की राजनीति करनी है. कुरसी चाहिए, तो अप्रिय सच आप नहीं बोल सकते. आज की राजनीति (खास तौर से हिंदी इलाके में) में कबीर चाहिए, जो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आंदोलन का आवाहन करे. हिंदी राज्यों में एक नये पुनर्जागरण आंदोलन की जरूरत है. 1942 के माइंडसेट से 2011 का समाज नहीं चलनेवाला.
दिनांक : 20.11.2011
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