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कांग्रेस के लिए चुनाव के संदेश

प्रभु चावला वरिष्ठ पत्रकार prabhuchawla@newindianexpress.com कांग्रेस मर चुकी है. कांग्रेस का विचार अमर रहे! वर्ष 2019 के एग्जिट पोल ने ये दोहरा संदेश दिया है कि हालांकि राज्य विधानसभाओं तथा संसद में इस ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ की जगह अब काफी तंग हो चुकी है, पर भारत के सभी कोनों में इसके कार्यकर्ता जीवित तथा सक्रिय […]

प्रभु चावला
वरिष्ठ पत्रकार
prabhuchawla@newindianexpress.com
कांग्रेस मर चुकी है. कांग्रेस का विचार अमर रहे! वर्ष 2019 के एग्जिट पोल ने ये दोहरा संदेश दिया है कि हालांकि राज्य विधानसभाओं तथा संसद में इस ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ की जगह अब काफी तंग हो चुकी है, पर भारत के सभी कोनों में इसके कार्यकर्ता जीवित तथा सक्रिय हैं.यदि 19 मई की चुनावी अटकलें नतीजों के दिन उलटी-पुलटी भी हो जायें, तो इतना तय है कि कांग्रेस केंद्र के सत्ता सोपान के प्रथम पायदान से भी मीलों दूर ही रहेगी.
फिर भी, लोकतंत्र की अबूझ चालें अपना यह विशेषाधिकार तो सुरक्षित रखती ही हैं कि 23 मई के दिन कोई अदृश्य-सी भूमिगत तरंग किसी एक गांधी को सिंहासन पर आसीन कर दे.
सर्वाधिक उदार से लेकर सबसे कठोर तक किसी भी चुनावी विशेषज्ञ ने इस महान पार्टी को 90 से अधिक सीटें नहीं दी हैं. पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी छोटी-बड़ी 150 से भी ज्यादा रैलियां और रोड शो करते हुए 100 दिनों से भी अधिक सड़कों पर बिताये.
उनकी बहन प्रियंका पार्टी की आधिकारिक प्रचारकर्ता के रूप में अपनी प्रथम भूमिका के तहत देश के विभिन्न हिस्सों के दौरे करते हुए मोदी के जादू की काट की कोशिशें करती रहीं. पर गांधी परिवार के इन दो वारिसों द्वारा 130-वर्षीय पुरानी पार्टी पर पारिवारिक पकड़ की लोकतांत्रिक पुष्टि प्राप्त करने के प्रयासों को नजरअंदाज करते हुए सभी टीवी चैनल गुजरात के गौरव पर ही गौर करते दिखे.
वर्ष 1989 के चुनावों में पार्टी को मिली उस अपमानजनक पराजय के पश्चात, जब महज पांच साल पहले उसे मिली चार सौ सीटों की जगह जनता ने सिर्फ दो सौ सीटें देना ही स्वीकार किया था, गांधी परिवार से कोई अन्य साउथ ब्लाक स्थित सत्ता सिंहासन पर अब तक भी आसीन न हो सका. तब से तीन दशक बीत जाने पर भी उनके द्वारा नीत पार्टी आज भी प्रासंगिक तो है, परंतु उनका पारिवारिक नाम अब अपनी चमक खो चुका है.
अतीत के अपने उस रुतबे के विपरीत, जब इंदिरा गांधी किसी खंभे को भी पार्टी उम्मीदवार बनाकर उसे जीत दिला सकती थीं, अब यह परिवार केवल कांग्रेस के बूते ही अपनी सियासी पहचान कायम रख पाने में समर्थ है. सोनिया से लेकर प्रियंका तक किसी भी वर्तमान गांधी में वह चुंबकीय शक्ति नहीं रही कि वह जनता को आकृष्ट कर सके.
विरासत में मिली इस पार्टी को वे उसके सिकुड़ते आधार के बावजूद एकजुट रख पाने में तो सफल हैं, पर अब वे चुनावी विजेता नहीं रहे. अमित शाह के विपरीत, जिन्होंने पांच वर्षों से भी कम समय में भाजपा को विश्व की सबसे पड़ी पार्टी में तब्दील कर एक विश्व रिकॉर्ड रच दिया, राहुल और उनकी अनाम टीम कांग्रेस की सदस्यता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज नहीं करा सकी.
राष्ट्रीय एवं राज्य दोनों स्तरों पर संगठन निष्प्रभावी तथा गुटबाजी का शिकार बना पड़ा है. संभवतः एकजुटता की इसी कमी की वजह से पार्टी अधिकतर राज्यों में भाजपा सरकार के बावजूद सरकार विरोधी भावना का लाभ न ले सकी.
भाजपा के पास सर्वाधिक संख्या में सांसद तथा विधायक हैं, वह 16 राज्यों में सत्तारूढ़ है और नरेंद्र मोदी पिछले पांच वर्षों से सत्ता शीर्ष पर बने हुए हैं. इसने कांग्रेस को लगभग प्रत्येक राज्य में पटखनी दी है. टीवी एंकर का विवेक यह बताता है कि चूंकि राज्यों में कांग्रेस की सीटें दहाई के पार नहीं हैं, इसलिए वह केंद्र में भी दहाई संख्या के परे सीटें नहीं पा सकती.
पिछले पांच सालों से कांग्रेस उत्तर, पश्चिम एवं पूर्व की अपनी भूमि अपने शत्रु के हाथों हारती जा रही है. पूरे देश में दो सौ से भी अधिक सीटों पर भाजपा के साथ सीधे संघर्ष के बाद भी इसने उनमें से 150 से भी ज्यादा गंवा दिये.
कांग्रेस का राजनीतिक क्षरण 1990 के दशक से शुरू हुआ, जब उसके क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपनी स्वयं की पार्टी बनाने को उससे विदा ले ली. तेलुगु देशम तथा तेलंगाना राज्य समिति जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने दक्षिण में उसे पहले ही जख्मी कर छोड़ा था. पिछले दो दशकों के दौरान यह उत्तर एवं पश्चिम में हिंदुत्व लहर के द्वारा बिलकुल हाशिये पर ला दी गयी. एक करिश्माई नेता के अभाव में पार्टी ने अल्पसंख्यकों, दलितों तथा यहां तक कि किसानों जैसे अपने पारंपरिक वोट बैंक भी गंवा दिये.
वर्ष 2004 में इसे सत्ता मिली भी, तो उसकी वजह किसी नेता अथवा नारे की चुंबकीय शक्ति नहीं, बल्कि सिर्फ सोनिया गांधी द्वारा दिखाया गया सौदेबाजी का वह हुनर थी, जिसके बूते कांग्रेस अवसरवादी रूप से सहानुभूति रखतीं क्षेत्रीय पार्टियों को पटा सकी.
वर्ष 2004 और 2009 में पार्टी को गांधी के ठप्पे ने नहीं, बल्कि सियासी इंजीनियरिंग एवं मनमोहन सिंह नीत सरकार के विश्वसनीय प्रदर्शन ने जिताया. फिर भाजपा ने वर्ष 2009 के चुनाव एलके आडवाणी जैसे एक बुजुर्ग के नेतृत्व में लड़े थे, जिनके पास युवा मतदाताओं को अपने पाले कर पाने योग्य नये विचारों से लैस कोई एजेंडा न था.
तभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक महानायक की भांति मोदी का अवतरण हुआ, जिनके पास आशाजनक नारे एवं देश पर लौह हाथों से शासन करने का निश्चय था. नतीजतन दिल्ली के सिंहासन तक की अपनी शानदार विजय यात्रा में मोदी को वंश मोह में पड़ी इस पार्टी से किसी प्रतीकात्मक प्रतिरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा.
कांग्रेस का पराभव उसके द्वारा स्वयं को समय के साथ परिवर्तित कर पाने की असमर्थता से पैदा होता है. यह खुद को नये विचारों और व्यक्तियों से विभूषित करने की बजाय केवल एक गांधी की जगह दूसरे को बिठाती रही है.
कांग्रेस के पास अब संतोष करने को केवल यही एक तथ्य शेष है कि कांग्रेस का विचार अब भी जिंदा है. राहुल गांधी को अब यह अपरिवर्तनीय वास्तविकता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि दिल्ली एवं राज्यों में सिर्फ एक सामूहिक नेतृत्व ही कांग्रेस को भाजपा के विकल्प में तब्दील कर सकता है.
कांग्रेस को विभिन्न राज्यों में वाम दलों द्वारा रिक्त किये गये स्थल की भरपाई करने पर गौर करना चाहिए. अब जब भारत चरम दक्षिणपंथ की ओर एक और निर्णायक करवट ले रहा है, भारत को एक बार फिर मध्यमार्गी स्थिति में लाने का तकरीबन असंभव कार्य भारत को आजादी दिलानेवाली यह पार्टी ही कर सकती है. गांधियों को भविष्य में एक बार फिर ब्रांड गांधी के पुनरोदय की प्रतीक्षा करनी चाहिए.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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