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लॉकडाउन में मज़दूरों के पलायन के दर्द को बयां करती हैं डिज्नी हॉटस्टार की डॉक्युमेंट्री 1232 KM….

बीते साल इसी समय कोरोना और लॉकडाउन के बीच लाखों मज़दूर पलायन को मजबूर थे।सड़कों पर प्रतिदिन सैंकड़ों की तादाद में मजदूर कहीं पैदल तो कहीं अपनी पुरानी सायकिल से हज़ारों किलोमीटर का अपना सफर तय कर रहे थे। इसी दर्द को फ़िल्म निर्देशक विनोद कापड़ी की डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 1232 किलोमीटर बयां करती है. ये उन सात मजदूरों की कहानी है जिन्होंने गाज़ियाबाद से बिहार के सहरसा का सफर तय किया इस डॉक्युमेंट्री फ़िल्म पर उर्मिला कोरी की निर्देशक विनोद कापड़ी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश

बीते साल इसी समय कोरोना और लॉकडाउन के बीच लाखों मज़दूर पलायन को मजबूर थे।सड़कों पर प्रतिदिन सैंकड़ों की तादाद में मजदूर कहीं पैदल तो कहीं अपनी पुरानी सायकिल से हज़ारों किलोमीटर का अपना सफर तय कर रहे थे। इसी दर्द को फ़िल्म निर्देशक विनोद कापड़ी की डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 1232 किलोमीटर बयां करती है. ये उन सात मजदूरों की कहानी है जिन्होंने गाज़ियाबाद से बिहार के सहरसा का सफर तय किया इस डॉक्युमेंट्री फ़िल्म पर उर्मिला कोरी की निर्देशक विनोद कापड़ी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश

किस तरह से आप उन मजदूरों के संपर्क में आए ?

जब लॉकडाउन घोषित हो गया तो मैंने ट्विटर पर देखा कि गाज़ियाबाद के लोनी में 30 मज़दूर हैं।जिनके पास खाना नहीं है राशन नहीं है. ट्विटर पर ही एक नंबर लिखा हुआ था. मैंने उस नंबर पर फोन किया।उनके एकाउंट डिटेल लेकर कुछ पैसे भिजवाए. ट्विटर पर मैंने शेयर किया जिसके बाद कई लोगों ने राशन भेजें लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा कि वे ऐसे मांग मांग कर ज़िन्दगी नहीं जी सकते हैं. वे अपने घर जाएंगे. मैंने कोरोना और लॉक डाउन के खतरे के बारे में बताया तो भी वो नहीं मानें. जब उन्होंने जाना तय कर लिया तो मुझे लगा कि मुझे इनके साथ जाना चाहिए. कैसे ये गाज़ियाबाद से बिहार के सहरसा की यात्रा पूरी करेंगे. मुझे जानना था ये कैसे ये संभव होगा।खाना कहाँ मिलेगा ।कहाँ रात को ठहरेंगे और सबसे बड़ी बात कोरोना अभी पीक पर है अगर कोई संक्रमित हो गया तो फिर क्या होगा. सातों मजदूरों ने बचे हुए आखिरी पैसे से सेकंड हैंड साईकल खरीदी. उसी से उन्होंने गाज़ियाबाद से सहरसा का सफर तय किया. वो यात्रा लोगों के रोंगटे खड़े कर देगा.

सरकार को भी कई लोगों ने दोषी करार दिया कि अगर लॉक डाउन का फैसला सोच समझकर लिया गया होता तो मजदूरों के ये हालात ना होते थे ?

विश्वभर में हर सरकार के कामकाज पर वहां की जनता ने सवाल उठाए. उसमें हमलोग अपवाद नहीं हो सकते हैं. सभी लोगों ने सवाल उठाए. लोगों का वो काम है।मैं उस पर ज़्यादा बात नहीं करूंगा. मुझे जो बड़ी बात लगी वो ये कि अगर मकान मालिक किराया नहीं लेते ,जो आसपास की स्वयंसेवी संस्था मदद करने की बात कह रही थी वो खाना पहुंचा देते तो ये सात लोग ही नहीं हज़ारों लाखों मज़दूर सड़कों पर नहीं उतरते थे. सरकार को दोष बाद में दीजिए क्या हमलोगों ने उनके बारे में सोचा जो हमारे घरों और शहरों को बनाते हैं तो इसका जवाब है कि किसी ने नहीं सोचा. भारत में दो भारत बसते हैं. जिसके पास थोड़े बहुत संसाधन है वो उस भारत की चिंता नहीं करता है।जिसके पास संसाधन नहीं है.

आपकी इस डॉक्युमेंट्री फ़िल्म 1232 से गुलज़ार,विशाल भारद्वाज और रेखा भारद्वाज जैसे नामचीन नाम भी जुड़े हैं ?

मैंने विशाल भारद्वाज जी से बात करके कहा था कि मैं चाहता हूं कि आप इस फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक दें क्योंकि ये बहुत ही महत्वपूर्ण फ़िल्म है. इसे कहना चाहिए।उन्होंने फिल्म देखी और उन्हें ये बहुत पसंद आयी उन्होंने ही गुलज़ार साहब,रेखाजी और सुखविंदर सिंह को इस प्रोजेक्ट से जोड़ा. मैंने कहा भी कि इतना बजट नहीं है मेरे पास तो विशाल जी ने कहा कि ऐसी फिल्म को किया जाना जरूरी है बजट ज़रूरी नहीं है.

इस डॉक्युमेंट्री में जो सात मज़दूर हैं क्या आप उनसे अभी भी संपर्क में हैं ?

हां,दीवाली में मैंने सभी को अपने घर पर भी बुलाया था. वैसे वो लोग मेरे साथ हमेशा ही फोन के ज़रिए संपर्क में रहे हैं. वे हर कुछ सांझा मुझसे करते हैं. अभी बिहार में जब बाढ़ आयी थी तो एक मज़दूर के घर गया भी था समस्तीपुर. वो लोग मेरे परिवार का हिस्सा है।वे लोग वापस से काम पर आ गए हैं गाज़ियाबाद.

आप इस डॉक्युमेंट्री से क्या बदलाव चाहते हैं ?

मैं चाहता हूं कि लोगों का नज़रिया बदलें. जो अनाम चेहरों को हम इंसान नहीं समझते हैं उन्हें इंसान समझे. वो हमारा कारपेंटर,माली,इस्त्री वाला कोई भी हो सकता है. उनके बारे में जाने उनकी तकलीफ को समझें.

ज्योति कुमारी पर जो आप फ़िल्म बना रहे थे वो कब तक बन पाएगी ?

उसमें अभी बहुत वक़्त लगेगा.

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