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Azadi Ka Amrit Mahotsav: राम प्रसाद ने गुमला में जलायी थी आजादी की चिंगारी

हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती. वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया. पेश है दुर्जय पासवान की रिपोर्ट...

Azadi Ka Amrit Mahotsav: स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद का राष्ट्र के प्रति समर्पण आज भी लोगों को प्रेरित करता है. उन्होंने अपने कई साथियों के साथ स्वतंत्रता की लड़ाई में पूरे जोश और जुनून के साथ भाग लिया. इतना ही नहीं, उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के भेदभाव पूर्ण नियमों और कानूनों के विरोध में भूदान जैसे कई आंदोलनों में सार्थक भूमिका निभायी. उनका जन्म गुमला में सात जून 1910 को हुआ था. उनके पिता का नाम वंशी साव और माता का नाम राजकलिया देवी था.

बचपन से भी दिल में थी देशभक्ति की भावना

बचपन से ही रामप्रसाद की रगों में राष्ट्र के प्रति देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. युवावस्था आते ही वह राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए क्रांति पथ पर कूद पड़े. 1935 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ घर-घर जाकर लोगों को जगाया. उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में रामप्रसाद महात्मा गांधी के संपर्क में आये और उनके साथ जेल गये. रामप्रसाद ने अपने मित्र गणपत लाल खंडेलवाल द्वारा डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे जैसे राष्ट्रीय नेताओं को निमंत्रण देकर गुमला में आजादी की चिंगारी को हवा दिलाने में कामयाबी पायी. रामप्रसाद का जीवन सादगीपूर्ण था. उन्होंने मैट्रिक के साथ बैं‍किंग डेवलपमेंट, एकाउंटेंसी और ऑडिटिंग की शिक्षा ग्रहण की. इतनी सारी योग्यता होते हुए भी उन्हें आराम का जीवन पसंद नहीं था. उन्हें राष्ट्र की चिंता थी. कभी सम्मान पाने की इच्छा प्रकट नहीं की.

देश की आजादी के बाद भी करते रहे सेवा

देश की आजादी के बाद रामप्रसाद कई संगठनों से जुड़े और लोगों की सेवा करते रहे. हक और अधिकार की आवाज उठाते रहे. बिहार भूदान आंदोलन में भाग लिया. आठ नवंबर 1958 में भूदान किसान पुनर्वास समिति के प्रतिनिधियों की बैठक में भाग लिया. चार सितंबर 1955 को रांची जिला में हिंदी साहित्य सम्मेलन में साधारण सभा ने उन्हें सक्रिय सदस्य बनाया गया. उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी को मिलने वाली पेंशन एवं सुविधा भी ठुकरा दी. दिन प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य गिरता गया. 16 जनवरी 1970 को आर्थिक तंगी के कारण रामकृष्ण सेनेटोरियम मिशन हॉस्पिटल रांची में उनका निधन हो गया. स्वतंत्रता सेनानी स्व रामप्रसाद को मरणोपरांत गुमला गौरव से अलंकृत किया गया. परिवार के लोग वर्तमान में जीविका के लिए गुमला में प्रिटिंग प्रेस चला रहे हैं. उन्होंने स्व रामप्रसाद की प्रतिमा स्थापित करने की मांग की.

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