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अभिनेता, स्टार, संन्यासी, राजनेता विनोद खन्ना

मिहिर पांड्या सिने आलोचक विनोद खन्ना को उनकी अद्वितीय खूबसूरती के लिए जाननेवाले उस दौर में भी बहुत थे, आज भी हैं. लेकिन, उनका निरंतर बेचैन फिल्मी कैरियर उन्हें सत्तर के असंतोषी दशक का प्रतिनिधि अभिनेता बनाता है. नायक, जो विद्रोह से भरा है, लेकिन जिसे ठीक-ठीक क्या चाहिए, नहीं मालूम. सत्तर एमएम के परदे […]

मिहिर पांड्या
सिने आलोचक
विनोद खन्ना को उनकी अद्वितीय खूबसूरती के लिए जाननेवाले उस दौर में भी बहुत थे, आज भी हैं. लेकिन, उनका निरंतर बेचैन फिल्मी कैरियर उन्हें सत्तर के असंतोषी दशक का प्रतिनिधि अभिनेता बनाता है. नायक, जो विद्रोह से भरा है, लेकिन जिसे ठीक-ठीक क्या चाहिए, नहीं मालूम. सत्तर एमएम के परदे पर वे स्वाभाविक अभिनेता थे. गुलजार ने अपने निर्देशन की शुरूआत के लिए भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआइआइ) से निकले कई अन्य धाकड़ अभिनेताअों के समक्ष उन्हें यूं ही नहीं चुना था. सत्तर के दशक के बेरोजगार युवामन की अंधेरी गलियों में भटकती ‘मेरे अपने’ में छैनू, संजू, बंसी, रघुनाथ आैर श्याम जैसे किरदारों के भीतर भरा गुस्सा आैर उदासी समाज में आनेवाले भावी उबाल की बानगी थी.
हिंदी सिनेमा को जमीन से उखड़े लोगों ने बसाया है. साल 1946 में पेशावर में जन्मे विनोद खन्ना के परिवार को बंटवारे के चलते अपना बसेरा छोड़ना पड़ा आैर आश्रय बंबई में मिला.
यह संयोग नहीं है कि बंटवारे को सीधे सहनेवाले दोनों राज्य- पंजाब आैर बंगाल ही मायानगरी मुंबई के इस कथा-उद्योग के सारथी बने. बंटवारे ने उनका सब लूट लिया, वे बस स्मृतियों में कथाएं आैर चेहरे पर सच्चाइयां साथ ला पाये. इसी सच्चाई ने बलराज साहनी आैर दिलीप कुमार से लेकर धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना जैसे पंजाब के इन गबरू जवानों को हिंदी सिनेमा का चहेता नायक बनाया. जिस दौर में हिंदी जगत पंजाबी नायक राजेश खन्ना की दीवानगी में डूबा हुआ था, विनोद खन्ना को हीरो सुनील दत्त ने अपने बैनर तले बनी फिल्म ‘मन का मीत’ में पहला ब्रेक दिया. दत्त ने आगे उन्हें ‘रेशमा आैर शेरा’ में भी सहायक भूमिका दी. संयोग से यहीं छोटी सी भूमिका में अमिताभ बच्चन भी थे, वो महानायक, जिनके साथ विनोद खन्ना ने चंद सबसे यादगार फिल्में कीं.
विनोद खन्ना आउटसाडर थे. उन्हें स्टारडम किसी चांदी की चम्मच में नहीं परोसा गया. अभिनय कैरियर की शुरुआत में उन्हें खलनायक की भूमिकाएं मिलीं. ‘मेरा गांव मेरा देस’ में उनकी निभाई डाकू जब्बार सिंह की भूमिका को आज भी याद किया जाता है. यहां उनके कैरियर का ग्राफ सत्तर के दशक के एक आैर धाकड़ अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा से मिलता है.
माना जाता है कि इन दोनों ही के कैरियर को अमिताभ बच्चन के वटवृक्ष सरीखे स्टारडम की छाया में पड़ने का नुकसान हुआ. लेकिन, गुलजार की ‘अचानक’ आैर अरुणा राजे द्वारा निर्देशित ‘शक’ जैसी फिल्मों के माध्यम से विनोद खन्ना ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया.
इसके बरक्स मसाला मल्टीस्टारर फिल्में भी थीं, जिनमें विनोद खन्ना कई निर्देशकों की पहली पसंद बने, लेकिन कम प्रदर्शनकारी द्वितीयक भूमिकाअों में. सलीम-जावेद लिखित 1977 की फिल्म ‘अमर, अकबर, एंथनी’ इस सूची में सबसे पहले याद आती है, जहां तीनों नायकों में सबसे शांत बड़े भाई ‘अमर’ की भूमिका विनोद खन्ना ने निभायी.
गुलजार की ही ‘परिचय’ में तो उन्होंने नायक जीतेंद्र के दोस्त की छोटी सी भूमिका भी हंसते-हंसते कर ली थी. उस दौर में अपनी निजी असुरक्षाअों के चलते बड़े से बड़े महानायक दूसरे अभिनेताअों की महत्वपूर्ण भूमिका वाली फिल्म करने से इनकार कर जाते थे. यह विनोद खन्ना का बड़प्पन ही था, जिसने उन्हें अमिताभ से उम्र में चार साल छोटे होते हुए भी उनके बड़े भाई की द्वितीयक भूमिका स्वीकार करने का हौसला दिया. उस आइकॉनिक दृश्य में जहां बड़े भाई अमर के हाथों बड़बोले एंथनी की पिटाई होती है, अमिताभ की प्रदर्शनकारिता विनोद खन्ना के ठहराव के बिना अधूरी है.
विनोद खन्ना को स्टारडम का मोह नहीं था. वे किसी आैर अलक्षित वस्तु की तलाश में थे.अस्सी के दशक में फिल्म ‘कुर्बानी’ के साथ स्टारडम की बुलंदी पर पहुंचे, लेकिन जल्द ही उनकी वह तलाश उन्हें आेशो रजनीश की अोर खींच कर ले गयी. सिनेमावालों ने उन्हें सेक्सी संन्यासी का तमगा तक दे दिया, लेकिन विनोद खन्ना ने उस अलक्षित की तलाश में सालों आश्रम के संडास साफ किये, जूठे बरतन धोये आैर बगीचों को तराशने में समय बिताया. जब रजनीश का साथ छूटा आैर वापसी हुई, तब तक उनका परिवार बिखर चुका था.
लेकिन, अपनी दूसरी पारी में भी फिल्म जगत में उन्होंने कई यादगार फिल्में दीं, जिनमें ‘दयावान’, ‘बंटवारा’ आैर ‘चांदनी’ को खास याद किया जाता है.
इक्कीसवीं सदी में उनका फिल्मी सफरनामा रुक ही गया था, आैर वे पंजाब के गुरदासपुर से सांसद होकर अन्य दिशाअों में सक्रिय थे. लेकिन, जब सलमान के स्टारडम को एक विश्वसनीय पुनर्जन्म की जरूरत थी, वही थे जो ‘वांटेड’ आैर ‘दबंग’ जैसी फिल्मों में उनके पिता की प्रतिष्ठित कुर्सी पर बैठे. अजब संयोग है कि जिस दिन वे गुजरे, भारतीय सिनेमा अपने इतिहास की बहुत महत्वाकांक्षी फिल्म के सीक्वल की रिलीज के इंतजार में है.
यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि अगर ‘बाहुबली’ जैसी फिल्म उनके समय में होती, तो वे उसके नयनाभिराम नायक बनने के लिए सबसे उपयुक्त चयन होते. क्योंकि, उनमें अदाएं भी थीं, अदावत भी, आैर वे निरंतर किसी अलक्षित की खोज में थे.

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