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धनबाद : आर्थिक तंगी मार देती है रंगकर्म के उत्साह को

प्रशासनिक उदासीनता से कराहता कोयलांचल का रंगकर्म डॉ ओम सुधा धनबाद : देश की कोयला राजधानी में दम तोड़ता रंगकर्म जिंदा है तो मुट्ठी भर जज्बाती लोगों के जुनून से. कॅरियर का कोई भी दरवाजा जहां नहीं खुलता हो वहां, बहुत दूर और देर तक कोई जज्बा-जुनून नहीं बना रह सकता. अपने अन्य कौशल से […]

प्रशासनिक उदासीनता से कराहता कोयलांचल का रंगकर्म
डॉ ओम सुधा
धनबाद : देश की कोयला राजधानी में दम तोड़ता रंगकर्म जिंदा है तो मुट्ठी भर जज्बाती लोगों के जुनून से. कॅरियर का कोई भी दरवाजा जहां नहीं खुलता हो वहां, बहुत दूर और देर तक कोई जज्बा-जुनून नहीं बना रह सकता. अपने अन्य कौशल से रोजी-रोटी का जुगाड़ कर रंगकर्म के जुनून को जिंदा रखना बेहद महंगा होता है.
हौसला से जज्बा को जुनून तो बनाया जा सकता है, पर इस जुनून से जरूरत और जिम्मेदारी को परे नहीं ठेला जा सकता है. यह लब्बो लुआब है दो दशक से कोयलांचल धनबाद में सक्रिय रंगकर्मियों की पीड़ा का.
‘नाटक समाज का आईना होता है, पर ऐसा कोई नाटक नहीं बना जो रंगकर्मियों की पीड़ा दिखा सके.’ यह कहना है धनबाद में पिछले दो दशक से सक्रिय रंगकर्मी वशिष्ठ सिन्हा का. धनबाद का आज का मरणासन्न रंगकर्म कभी काफी समृद्ध था. ऐसा भी नहीं कि धनबाद के लोग कला रसिक नहीं हैं. गाहे-बगाहे होते नाटकों के मंचन में जुटी दर्शकों की भीड़ इसकी गवाह है.
फाइल में दम तोड़ता आश्वासन
कला निकेतन धनबाद के निदेशक वशिष्ठ सिन्हा सीधे-सीधे सूबे के कला संस्कृति मंत्री को निशाने पर लेते हुए कहते हैं कि वर्ष 2017 में गोधर मैदान में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मंत्री ने हमें मंच से पचास हजार की राशि देने की घोषणा की जो आज तक नहीं मिली. आमतौर पर रंगमंच के निदेशकों के हाथ में नाटक की स्क्रिप्ट होती है.
वशिष्ठ सिन्हा साथ में तंत्र से मिले आश्वासनों की एक मोटी फाइल रखते हैं. अरविंद पांडेय का सवाल है कि रंगकर्मी रंगमंच करें या फाइल लेकर इस टेबल से उस टेबल दौड़ें.
व्यवस्था की उदासीनता भारी पड़ी
धनबाद के रंगमंच पर सक्रिय रंगकर्मियों की पीड़ा व्यवस्था की उदासीनता से उपजी है. रंगकर्मी प्रियंका राणा बताती हैं-‘उन्हें कोई रंगमंच उपलब्ध नहीं है. हमलोग पूरी तैयारी के बाद भी नाटक नहीं कर पाते हैं.’
प्रियंका की बात को आगे बढ़ाते हुए रणजीत मिश्रा कहते हैं-‘धनबाद में दो रंगमंच उपलब्ध हैं. एक टाउन हॉल और दूसरा कला भवन. कला भवन तो नाटक के अनुकूल भी नहीं है और टाउन हॉल का किराया वहन नहीं किया जा सकता है.’ नाराज रंगकर्मी नीतू सिन्हा कहती हैं-‘प्रशासन और सरकार ने रंगमंच को और भी दुरूह बना दिया है. विधायक दुलू महतो ने तत्कालीन डीसी कुलदीप चौधरी को वर्ष 2016 में भूली में एक रिहर्सल रूम बनाने का निर्देश दिया था, जो आज तक पूरा नहीं हुआ.’
सांस्कृतिक नीति के अभाव में अराजकता : रंगकर्मी शैव्या सिन्हा कहती हैं कि आपको जान कर हैरत होगी कि झारखंड सरकार की कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है. इधर-उधर से कलाकार बुलाकर नाच-गान करवा कर सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है. रंगकर्मी मकबूल अंसारी कहते हैं कि सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि लोग रंगकर्म से बहुत उत्साह से जुड़ते हैं पर आर्थिक तंगी उनके उत्साह पर पानी फेर देता है.
एंड्रॉयड में सिमट गयी दुनिया : वशिष्ठ सिन्हा
तकनीक की मार से कराहते रंगकर्म पर वशिष्ठ सिन्हा कहते हैं कि यह अलग बात है कि बाजारीकरण के इस दौर में जब टीवी, सिनेमा और वेबसीरीज ने घर-घर में पैठ बना ली है, हर हाथ में मौजूद एंड्रॉयड में पूरी दुनिया सिमट गयी है. नाटक करने वाले खुद को थोड़ा असहाय तो महसूस करते हैं पर मायूस नहीं हैं. मनोरंजन के बदलते तौर-तरीकों ने धनबाद के रंगमंच को भी खासा प्रभावित किया है.

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