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‘हिंदी प्रदेश’ की पहचान के मायने

शैबाल गुप्ता जाने-माने अर्थशास्त्री और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) के सदस्य सचिव हैं. पिछले दिनों इलाहाबाद स्थित गोविंद बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट ने उन्हें 29वें ‘गोविंद बल्लभ पंत मेमोरियल लेक्चर’ में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था. इस अवसर पर बोलने के लिए उन्होंने जो विषय चुना, उसका शीर्षक था- ‘आइडिया ऑफ […]

शैबाल गुप्ता जाने-माने अर्थशास्त्री और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) के सदस्य सचिव हैं. पिछले दिनों इलाहाबाद स्थित गोविंद बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट ने उन्हें 29वें ‘गोविंद बल्लभ पंत मेमोरियल लेक्चर’ में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था.
इस अवसर पर बोलने के लिए उन्होंने जो विषय चुना, उसका शीर्षक था- ‘आइडिया ऑफ द हिंदी हार्टलैंड’. हिंदी में इसे ‘हिंदी प्रदेश की धारणा’ कहा जा सकता है. इस व्याख्यान में उन्होंने यह तलाशने की कोशिश की है कि ‘हिंदी प्रदेश’ की पहचान एक हकीकत है या फिर फसाना.
इसके ऐतिहासिक और वर्तमान संदर्भ क्या हैं. केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद, ऐसे कई अवसर आ चुके हैं और लगातार आ रहे हैं, जब गैर-हिंदीभाषी राज्यों ने हिंदी और ‘हिंदी प्रदेश’ का वर्चस्व बढ़ने का सवाल उठाया है. इस संदर्भ में यह व्याख्यान काबिले-गौर है. पढ़िए लंबे व्याख्यान का संपादित अंश.
जी बी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रोफेसर प्रदीप भार्गव ने विषय के चयन में मुङो पूरी छूट दी थी. मेरे पास दो विकल्प थे- एक, अपने जाने-पहचाने संसार के बारे में बोलने का. दूसरा, इसे लांघने का.
लेकिन, जब कोई अपने जाने-पहचाने संसार को लांघता है, अक्सर ही ऐसी किसी हलचल से प्रभावित हो जाता है जो उसके जाने-पहचाने संसार पर आक्रमण करती हैं. ऐसी ही एक हलचल 10 अगस्त 2014 को द टाइम्स ऑफ इंडिया के पटना संस्करण में छपी एक सीधी-सादी रिपोर्ट के रूप में सामने आयी.
रिपोर्ट में था कि इस बार भारत सरकार ने टकसाल को भारत रत्न के पांच तमगे बनाने को कहा है. इससे राजनीतिक हलकों में इस अटकलबाजी को आधार मिल गया कि इस बार भारत रत्न पाने वालों की संख्या एक से अधिक होगी. दो संभावित नामों अटल बिहार वाजपेयी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अलावा रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र था कि संघ परिवार की हमेशा से यह चिंता रही है कि राष्ट्रवाद को कभी भी उसका उचित स्थान नहीं मिला है और सभी सरकारों का फोकस नेहरू-गांधी परिवार की तरफ ही रहा है.
संघ परिवार में कई लोगों का मानना है कि बीएचयू के संस्थापक मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देने का यही सही समय है. उनकी सूची में गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार भी हैं. इसके साथ-साथ प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा का भी नाम है जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिंदुत्व के लिए वह काम किया जो गुटेनबर्ग प्रेस ने बाइबल के लिए किया था.
टाइम्स आफ इंडिया के पटना संस्करण में 28 अगस्त को एक अन्य खबर छपी थी कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए 28 लोगों को पुरस्कृत किया. इस कार्यक्रम में एकमात्र सुकूनदेह खासियत यह थी कि पहला पुरस्कार डॉ जॉर्ज ग्रियर्सन के नाम पर विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दिया गया, दूसरा पुरस्कार विज्ञान व तकनीक पर हिंदी में लिखने के लिए आत्माराम अवार्ड दिया गया, तीसरा राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार हिंदी में शोध और यात्रा वृत्तांत लेखन के लिए दिया गया, और चौथा गणोश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में योगदान के लिए दिया गया.
संयोग से, ये सभी पुरस्कार कई दशक पहले तब की भारत सरकार ने शुरू किया था. जिस समय भारत रत्न पर मीडिया में अटकलबाजी हो रही थी, केंद्र सरकार ने इस बात की छूट दे दी कि सीसैट के लिए अंग्रेजी में न्यूनतम योग्यता जरूरी नहीं है. मेरे लिए यह एक बहुत बड़े बदलाव की तरह था. केंद्र सरकार ने यह कदम हिंदीभाषी छात्रों के लंबे समय से चले आ रहे आंदोलन के बाद उठाया था.
वर्तमान केंद्र सरकार का यह फैसला दक्षिण भारत के सुशिक्षित समाज को रास नहीं आया. अपने हस्ताक्षरित आलेख में बाजारवाद के पक्षधर स्तंभकार एसएल राव ने टेलीग्राफ में लिखा- ‘‘इस सरकार के हिंदी प्रेम ने यूपीएससी परीक्षा प्रणाली के साथ खराब समझौता किया है. इसने भारत के ‘स्टील फ्रेम’ के लिए होने वाली परीक्षा का स्तर गिराया है.
विरोध प्रदर्शन में सिर्फ अंग्रेजी में परीक्षा और विश्लेषणात्मक कौशल को निशाना बनाया गया. इसने हिंदी विरोधी प्रदर्शनों के दरवाजे खोल दिये हैं जिसने कुछ दशक पहले देश को करीब-करीब बांट दिया था. यह सरकार जबरदस्त रूप से हिन्दीभाषी है. इस सरकार का दक्षिण भारत में कोई प्रभाव नहीं है.’’
उन्होंने यहां तक लिखा- ‘‘हिन्दी के प्रभुत्व की वजह से आनेवाले समय में हिंदी-समर्थक राज्यों में आंदोलन तेज होंगे. इसकी प्रतिक्रिया गैर-हिंदीभाषी राज्यों में भी होगी. मोदी सरकार के तीन माह के कार्यकाल में आरएसएस, नौकरशाही और हिंदी क्षेत्रों का कब्जा साफ दिख रहा है.’’ केंद्र सरकार के इस फैसले से प्रोफेसर आलोक राय (मुंशी प्रेमचंद के पोते और साहित्यकार) भी इत्तेफाक नहीं रखते हैं.
राय ने खेद व्यक्त करते हुए कहा- जाहिर तौर पर नेताओं की जीत हुई है. उनका सोचना है कि शैक्षणिक रूप से सबसे अच्छी प्रतिक्रिया यह होती की सरकार परीक्षा के स्तर को कम करने के बजाय सीसैट में क्षेत्रीय भाषा को अनिवार्य कर इसके स्तर को और ऊंचा कर देती. इससे शहर में रहनेवाले अंग्रेजी बोलनेवालों को अंग्रेजी के साथ-साथ किसी एक भारतीय भाषा में अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती. कांग्रेस समर्थक स्तंभ लेखिका कल्याणी शंकर की मानें, तो यह सरकार हिंदी प्रदेशों पर कब्जे के बाद पूरे देश में अपने विस्तार की नीति पर काम कर रही है.
इन दोनों हलचलों ने मुङो अस्थिर कर दिया है और अपने जाने-पहचाने संसार के संकीर्ण दायरे से निकल कर ‘हिंदी प्रदेश की अवधारणा’ जैसे व्यापक विषय पर सोचने को मजबूर कर दिया.
अगर पंडित गोविंद बल्लभ पंत जीवित होते, मैं सिर्फ सोच सकता हूं कि वह इस परिस्थिति में क्या करते, क्योंकि उनके कार्यक्षेत्र का दायरा सिर्फ हिंदी तक सीमित नहीं था, हालांकि उन्होंने देश में इसके प्रभुत्व को कायम किया था. देश के गृह मंत्री के तौर पर उन्होंने सिर्फ हिंदी के पक्ष में आंदोलनों को ही समर्थन नहीं दिया, उन्होंने राजभाषा के तौर पर इसके इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया. उन्होंने ही इस बात को सुनिश्चित किया कि यूपीएससी में मेरिट लिस्ट लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के अंकों को जोड़ कर तैयार की जाये.
इससे पहले दोनों परीक्षाएं उम्मीदवार को अलग-अलग पास करनी पड़ती थीं. गृह मंत्री के इस फैसले से वैसे छात्रों के लिए यूपीएससी में सफलता की राह आसान हुई जिनकी पकड़ क्षेत्रीय भाषा में थी. इससे पहले वैसे छात्रों को अंग्रेजी में बोलने की क्षमता कम होने की वजह से इंटरव्यू में कम नंबर मिलते थे.
हिंदी प्रदेश के समाज की निर्माण-प्रक्रिया
आजादी के समय से ही केंद्र सरकार की रूपरेखा हिंदी प्रदेश के चुनावी मैदान में ही तय हुई. आजादी की लड़ाई को भी हिंदी प्रदेश की ‘रंगभूमि’ में ही अंजाम तक पहुंचाया गया. यहां तक कि 1947 में देश को बांटने का काम भी इसी प्रदेश में हुआ. आजादी के बाद ज्यादातर प्रधानमंत्री हिंदी प्रदेश से ही हुए.
हिंदी प्रदेश की गूंज इतनी प्रबल है कि छोटे नेताओं, जिन्हें बहुत कम मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है, उन्हें भी छाया प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाने लगता है. इस पृष्ठभूमि में यह बात विस्मित करती है कि क्यों एकाएक हिंदी प्रदेश को भौगोलिक, सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से अलग किया जा रहा है.
दक्षिण राज्यों की धारणा एक ब्रांड की ओर इशारा करती है. एक जमाने में बंगाल एक संपूर्ण ब्रांड हुआ करता था. याद कीजिए एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था- बंगाल जो आज सोचता है, भारत उसे कल सोचता है और पूरी दुनिया उसके एक दिन बाद सोचती है. लेकिन बंगाल में आज जो हालात हैं उसे देख कर गोखले को स्वर्ग में भी चैन नहीं मिल रहा होगा.
विडंबना यह है कि इस समय देश का प्रधानमंत्री और न सत्ताधारी पार्टी का अध्यक्ष हिंदी प्रदेश से है. दोनों का जन्म आजादी के बाद हुआ इसलिए उनके दिमाग में स्वतंत्रता आंदोलन की याद नहीं है. फिर भी हिंदी प्रदेश के वर्चस्व को महाकाय रूप में स्थापित किया जा रहा है.
अब हिंदी प्रदेश की धारणा उसके भौगोलिक आकार से बड़ी हो गयी है. बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड- एक इलाके के इन सातों राज्यों में सामाजिक और आíथक विकास बहुत कम हुआ. आश्चर्य की बात है कि इन सातों राज्यों का भाषाई आधार हिंदी है जो देश की राजभाषा है. आम गलतफहमी के विपरीत हिंदी देश की राष्ट्र भाषा नहीं है.
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, देश की 22 फीसदी जनसंख्या की मातृभाषा हिन्दी है, लेकिन देश के 42 फीसदी लोग इसे बोलते हैं. 26 जनवरी, 1950 को जब भारतीय संविधान अस्तित्व में आया तब हिंदी का दरजा एकदम से ऊंचा हो गया.
हिंदी प्रदेश को अक्सर हमारे देश में दकियानूसी माना जाता है, भले ही यह इस भाषा में कई प्रगतिशील साहित्यकार हुए हैं जैसे प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, फिराक गोरखपुरी, बाबा नागजरुन, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामविलास शर्मा, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, कृष्ण चंदर, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, गणोश शंकर विद्यार्थी के अलावा भी कई बड़े नाम हैं.
इसी तरह, बिहार और उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और रैडिकल आंदोलनों के गढ़ रहे हैं. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का किसान आंदोलन वर्ष 1793 में लार्ड कार्नवालिस द्वारा लाये गये स्थायी बंदोबस्त के खिलाफ था. स्वामी सहजानंद सरस्वती का सरोकार शुरू में सिर्फ भूमिहार किसानों के लिए था, लेकिन बाद में उनका आंदोलन सभी किसानों के हितों की बात करने लगा.
इसी आंदोलन ने समाजवाद और साम्यवाद की पटकथा लिखी. मुख्यधारा की राजनीति से नेहरू और कम्युनिस्ट आंदोलन से पीसी जोशी ने हिंदी प्रदेश की दकियानूसी छवि तोड कर उसे पहचान दिलाने की कोशिश की. इनके अलावा, सोशलिस्ट आंदोलन की मजबूत आधारशिला हिंदी प्रदेश में ही आचार्य नरेंद्र देव, लोहिया, जेपी, कपरूरी ठाकुर और अन्य लोगों ने रखी थी. हिन्दी प्रदेशों के ब्रांड को मजबूत करने में भी इन लोगों का योगदान रहा है. ऐसी कास्मोपोलिटन और वाम परंपरा के बावजूद, इतिहास का बोझ इस इलाके में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए व्यवधान रहा है.
यह कुछ हद तक इस वजह से भी हो सकता है कि औपनिवेशिक शासन के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह (1857 का पहला स्वतंत्रता आंदोलन) इसी इलाके से हुआ था और इसके बाद अंग्रेजों ने इस इलाके में जबरदस्त शोषण शुरू किया. इसका परिणाम यह हुआ कि जहां एक ओर बंगाल और महाराष्ट्र जैसे इलाकों में लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा और कुछ सामाजिक बदलावों को स्वीकार कर लिया था, वहीं हिंदी प्रदेशों में लोगों ने इसका जम कर विरोध किया. उन्हें लगता था कि यह उनकी अपनी संस्कृति और परंपरा को खत्म करने की औपनिवेशिक चाल है.
आर्य समाज ने भी अंग्रेजी शिक्षा के विरोध में महत्वपूर्ण काम किया. इसके संस्थापक दयानंद सरस्वती का मानना था कि अंग्रेजी शिक्षा ईसाइयत में धर्मातरण का माध्यम है. वे हिंदी के इस्तेमाल और सामुदायिक भाषा के रूप में इसकी शक्ति को लेकर बहुत संवेदनशील थे. वे हिंदी को आर्यभाषा कहते थे. उदारवादी स्पेस की अनुपस्थिति में, एक प्रतिगामी विचारधारा ‘हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान’ के इर्द-गिर्द को प्रश्रय मिलने लगा.
1857 में पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह नारा पहली बार ब्राह्मण पत्रिका में छपा जिसके संपादक थे प्रतापनारायण मिश्र. पत्रिका के अंतिम अंक में उन्होंने लिखा था- अगर सही में आप अपनी भलाई चाहते हैं तो एक सांस में इस मंत्र का जाप करते रहिए- हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान. आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने आवश्यक रूप से अपने समकालीन और मित्र प्रतापनारायण मिश्र की वैचारिकी को स्वीकार किया.
ब्राह्मण, बनारस और बनिया की रहस्यमयी तिकड़ी
जैसे कि ‘युवा बंगाल’ आंदोलन का केंद्र कलकत्ता था, उसी तरह हिंदी प्रदेशों की वैचारिक और शैक्षणिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में बनारस उभर रहा था. ब्रिटिश राज के प्रभाव के अतिरिक्त आर्य समाज आंदोलन ने वर्ण व्यवस्था को फिर से मजबूत किया. इसके बाद, भारतेंदु हरिशचंद ने जाति व्यवस्था को और मजबूत करने में अपना योगदान दिया.
उन्हें ‘पवित्र शहर’ बनारस के प्रभुत्वशाली लोगों का समर्थन प्राप्त था, महाराजा बनारस के नेतृत्व में व्यापारी कुलीन तंत्र और संस्कृत सीखनेवाला ब्राह्मण पंडिताई तंत्र था. भारतेंदु ने विरोधाभासी ‘नव-परंपरावादी मुहावरा’ गढ़ा और प्रिंट मीडिया के इस्तेमाल से इसे आगे बढ़ाना शुरू किया. बनारस के ब्राह्मण, व्यापारी और राजा की तिकड़ी ने हिंदी प्रदेशों की वैचारिकता को गढ़ा. इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में प्रबुद्ध मध्यम वर्ग का विकास नहीं हो सका, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में सामाजिक सुधार का अगुवा रहा है.
दिल्ली सल्तनत और मुगल शासन के दौरान बड़े मंदिरों के विध्वंस के बावजूद काशी प्रमुख धाíमक केंद्र के रूप में बनी रही. इस दौरान ब्राह्मणों और उनकी संस्थाओं को राजपूतों और व्यापारियों की छत्रछाया मिली. मुगल शासन के अंतिम दौर में राजपूतों का स्थान मराठों ने ले लिया था.
ब्रिटिश राज में औपनिवेशिक प्रशासकों को ब्राह्मणों को मदद करने के एवज में उनके प्राधिकार से फायदा चाहिए था. 1791 में वहां के मूल निवासियों से मेल जोल बढ़ाने के लिए बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की. वर्ष 1832 में हुए एशियाटिक रिसर्च के अनुसार शहर की कुल जनसंख्या का 12 फीसदी ब्राह्मणों का था, जिसमें मराठा ब्राह्मणों की संख्या सबसे ज्यादा थी.
मराठा ब्राह्मणों की जनसंख्या कुल ब्राह्मणों की जनसंख्या का 30 फीसदी थी. इससे पहले, सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण के ब्राह्मण भी बनारस आने लगे.
ब्राह्मणों के बाद तिकड़ी के दूसरे प्रमुख घटक थे बनारस के राजा. हालांकि वह पवित्र शहर के नाम मात्र के प्रमुख थे, पर उनके पास प्रतीकात्मक शक्ति बहुत अधिक थी. जैसे-जैसे ब्रिटिश राज का आधिपत्य बढ़ा, उनके हाथ से सत्ता खिसकती चली गयी. जैसे ही वे राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से हाशिए पर चले गये, धाíमक मामलों में उन्होंने अपना हस्तक्षेप बढ़ाना शुरू किया. इसी दौरान वह लोगों के बीच अपनी उपस्थिति बढ़ाने लगे.
रामलीला में वे अपने आप को भगवान राम के प्रतिनिधि के तौर पर पेश करते थे. राजाओं के संरक्षण की वजह से संस्कृत शिक्षा, भाषा, कवियों और संगीत की शिक्षा में पैसा लगने लगा जो 19वीं शताब्दी के बनारस की खास संस्कृति थी. तीसरी कड़ी, बनारस के व्यापारियों का भी हिंदी प्रदेश की सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना में बड़ा हिस्सा है. हिंदी प्रदेश के दूसरे हिस्सों के उलट, बनिया-बनारस का प्रमुख व्यापारी समुदाय – का समाज में स्थान पंडित और राजा के बराबर था.
यह संभव हो सका था क्योंकि 1750-90 के बीच बनारस सबसे तेजी से बढ़ता हुआ शहर था. मुíशदाबाद का पतन और बंगाल में 1734 में जगत सेठ के पतन के बाद बनारस उपमहाद्वीप की व्यापारिक राजधानी के रूप में उभरी थी. 1780 के दशक तक बनारस का इलाका पूरे महाद्वीप के लिए व्यापारिक और आíथक केंद्र बन गया था. ब्राह्मणों की तरह ही बनारस के व्यापारी भी एक ही प्रकार के समाज के नहीं थे. वे पूरे देश से आये थे, जिसमें कई गुजरात के भी थे.
शहर की कुल जनसंख्या का 20 फीसदी हिस्सा व्यापारियों का था. उस समय सबसे ज्यादा व्यापारियों की तरफ से ही हिंदी को अदालती भाषा बनाने की मांग उठी थी, इलाहाबाद और बनारस को संयुक्त रूप से हिंदी आंदोलन का केंद्र बनाया गया. शहर के बड़े व्यापारी महाराज की धर्म सभा में आते थे. ये व्यापारियों का वैष्णव संप्रदाय था जो सनातनी हिंदू धर्म के वाहक थे.
दक्षिण भारत, पश्चिम भारत और बंगाल के सामाजिक आंदोलनों के उलट, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के आलोचक थे, बनारस की सामाजिक व्यवस्था कुछ अलग थी. इसलिए, यह राजनीतिक दुर्घटना नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने बनारस से चुनाव लड़ा, वह भारत के हिंदू क्षेत्र और हिंदी प्रदेश में धार्मिक संदेश देना चाहते थे.
नरेंद्र मोदी का एजेंडा सिर्फ शहर से चुनाव जीतना नहीं था, वह बनारस को वैश्विक स्तर पर एक ऐसा ब्रांड बनाना चाहते हैं जिससे लोग ईष्या करें और जो हिंदू हितों को भी ध्यान में रखेगा. इसलिए, प्रधानमंत्री की हाल की जापान यात्रा का एक मुख्य घटक था क्योटो और बनारस के बीच सहयोगी शहर का संबंध स्थापित करना. क्योटो जापान की शाही राजधानी और बौद्ध मठों के लिए ही नहीं जाना जाता है, बल्कि उसे धरोहरों के संरक्षण, शहर के आधुनिकीकरण, कला, अकादमी आदि के लिए भी जाना जाता है. नरेंद्र मोदी बनारस को भारत की आध्यात्मिक राजधानी बनाना चाहते हैं.
उन्होंने हिंदी प्रदेश में उच्च और निम्न पिछड़ी जातियों को अपने साथ मिला लिया है. द टेलीग्राफ ने अपने 7 सितंबर, 2014 के अंक में रिपोर्ट छापी है कि अब आरएसएस दलितों को आकर्षित करने में लगा है. इसके बाद अखबार ने लिखा कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत तीन खंडों में ‘भारतीय दलितों की हिंदू पहचान’ नामक किताब जारी करेंगे. अनुसूचित जातियों की हिंदू जड़ों की तलाश संघ परिवार के इस एजेंडे को दर्शाती है. इसके लेखक हैं विजय सोनकर शास्त्री और इसमें जाटव, वाल्मीकि और खटिक के बारे में जानकारी है.
मजे की बात यह है कि उप जातियों के टाइटिल में हिंदू शब्द जोड़ा हुआ है. उदाहरण के लिए, जाटव को किताब में ‘हिन्दू चर्मकार जाति’ लिखा गया है. इसके अलावा उनके इतिहास को फिर से गढ़ा गया है. वाल्मीकी जाति पर शास्त्री ने लिखा है, उन लोगों का जन्म ब्राह्मण और क्षत्रिय के रूप में हुआ था लेकिन विदेशियों ने जब भारत पर आक्रमण किया तब वे सफाईकर्मी के रूप में बदल दिये गये. विधर्मियों को उनमें अपना सबसे बड़ा दुश्मन दिखा.
कुछ अर्थो में शायद आरएसएस के पास इतिहास की अच्छी समझ है और वो पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष और उसके पहले कानून मंत्री जोगिंदर नाथ मंडल द्वारा की गयी गलती को दोहराना नहीं चाहते. मंडल बंगाल में दलितों के नेता थे और दलितों को समाज में जो मानसिक आघात ङोलना पड़ता है, इस वजह से उन्होंने पाकिस्तान में बसने का फैसला किया था.
संयोगवश उन्होंने डॉ बीआर आंबेडकर के लिए संविधान सभा में अपनी सीट छोड़ दी जो बाद में उसके अध्यक्ष बने और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया.
हिंदी प्रदेश में पहचान का प्रश्न
यह देश की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता की देन है कि भारत के हर राज्य की कई पहचान हैं. इस पहचान में सबसे प्रमुख संभवत: भाषा है और भाषा से संबंधित पहचान को आगे बढ़ाने में साक्षरता का सबसे बड़ा योगदान है. लेकिन, बंगाल या अन्य राज्यों की तरह, हिंदी प्रदेश के प्रगतिशील और उग्र सुधारवादी विद्वान भी साक्षरता आंदोलन से नहीं जुड़े. बंगाल में ईश्चरचंद विद्यासागर या रवींद्रनाथ टैगोर जैसे लोगों ने बंगाली भाषा और इसके साथ ही बंगाली पहचान को आगे बढ़ाया.
चूंकि भारत एक बहुत बड़ा देश है, इसके विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग धर्म और भाषाभाषी लोग रहते हैं, यहां राष्ट्रीय पहचान के उत्थान के साथ-साथ धाíमक पहचान भी आगे आने लगती है.
भारत में राष्ट्रवाद का उत्थान ब्रिटिश काल में हुआ, मूल रूप से औपनिवेशिक शासन के विरोध की वजह से. लेकिन, लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता की वजह से, यहां राष्ट्रवाद दो स्तरों पर पनप रहा है-एक अखिल भारतीय सांस्कृतिक एकरूपता के आधार पर और दूसरा क्षेत्रीय स्तर पर भाषा आधारित. कोई यह कह सकता था कि वह तमिल, मराठी, गुजराती और बंगाली है और इसके साथ ही वह भारतीय भी है.
यह दुर्घटना नहीं है कि टैगोर के दो गीत, एक भारतीय राष्ट्रवाद के लिए (जन गण मन.) और दूसरा बंगाली पहचान (अमार सोनार बांग्ला..) के लिए, दो देशों के राष्ट्रगीत बन गये. हिंदी प्रदेश में, न सिर्फ क्षेत्रीय पहचान की प्रक्रिया का अभाव था बल्कि पूंजीवाद के विकास के लिए जरूरी प्रोत्साहन की कमी भी थी. इस तरह, हिंदी प्रदेशों में उप-राष्ट्रवाद का विकास बहुत कमजोर तरीके से हुआ.
इसमें रुकावट भाषा के तौर पर हिंदी ने भी डाला क्योंकि यह मानकीकृत नहीं थी. पूरब में बिहार और पश्चिम में राजस्थान के बीच भाषाविदों ने करीब एक दर्जन भाषाओं की पहचान की है और हर भाषा को करीब करोड़ लोग बोलते हैं. इसी का परिणाम है कि भाषायी पहचान की संभावना जो क्षेत्रीय पहचान के बीज को बो सकती थी, नहीं थी.
हिंदी प्रदेश में विकास का अनुभव
भारत के सामने विकास की सबसे बड़ी चुनौती हैं हिंदीभाषी राज्य. दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भारत के सफल राज्यों को इससे खीज होती है कि विकास के अच्छे काम के बावजूद वित्त आयोग बराबरी के मुद्दे पर उनके अनुदान में कटौती करता है. यह खीज पूरी तरह से गलत नहीं है.
उदारीकरण के दौर में किसी राज्य की सफलता उस राज्य में होने वाले निवेश के आधार पर आंकी जाती है. इस मानदंड पर, उदारीकरण के बाद भारत में दो तरह के राज्यों का उदय हुआ है. पहला, वैसे राज्य जिन्होंने उदारीकरण और नई आíथक नीति को अपनाया और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बाजार पर निगाह रख अपनी नीतियां बनायीं. दूसरी श्रेणी के राज्य हैं जो ज्यादातर हिंदी प्रदेश के हैं जो अंग्रेजों के अत्याचार का घाव ढो रहे हैं. इन राज्यों में विकास की सोच रखने वाले मध्य वर्ग को पनपने देने में कठोर सामंतवादी सोच आज भी सबसे बड़ी बाधा है.
ज्यादातर राज्यों में सरकारें सिर्फ नाम की थीं, इससे देश की संवैधानिक व्यवस्था से इतर काम करने वाले माफियाओं का दबदबा बढ़ गया था. कुछ हद तक माफिया भी अपना हित साधने के साथ-साथ सामाजिक बीच बचाव का काम करते हैं. आज हिंदी प्रदेश के कई जिले सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं.
हिंदी प्रदेश में सामाजिक जड़ता के इस तरह के परिदृश्य के बीच उत्तर प्रदेश और बिहार में एक नये तरह के सामाजिक नेतृत्व का विकास हुआ है जो चुनावी वर्चस्व पर आधारित है. ज्यादातर विकसित राज्यों में ऐसा नहीं हुआ. उन राज्यों में विभिन्न सत्ताधारी पार्टयिों के बीच अपने जो भी राजनीतिक मतभेद रहे हों, उनका सामाजिक आधार कमोबेश एक जैसा रहा. इस वजह से उनके पास आत्मविश्वास और क्षमता के साथ सरकार चलाने का लंबा अनुभव रहा है.
वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में लोकतांत्रीकरण की वजह से एक नये सत्ताधारी वर्ग का उदय हुआ. अभी जिन वर्गो के पास अभी सत्ता है, वे या तो बाजार से बाहर हैं या उनके सीमांत पर हैं. इस प्रकार उदारीकरण के बाद जब भारत में बाजार आधारित नीति की शुरुआत हुई, उनके पासपास विकास के एजेंडे के बारे को सोच नहीं थी, उनके लिए राज्य की भूमिका सिर्फ ‘उपलब्ध करानेवाले’ के रूप में थी. राज्य को लेकर इस तरह की समझ की वजह से विकास कम हुआ.
बिना पर्याप्त संसाधन के राज्य विकास और सामाजिक न्याय के एजेंडे को आगे नहीं बढ़ा सकता है. राज्य के पास पर्याप्त संसाधन तभी होगा जब उसके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन होगा. जिस तरह से राष्ट्रीय विकास गिर रहा है, इसकी संभावना प्रबल है कि राजस्व संग्रह में भी भारी गिरावट हो. इससे हिंदी प्रदेश के राज्य ज्यादा प्रभावित होंगे.
पिछले साठ वर्षो में, देश के सभी हिस्सों और केंद्र में राज्य के स्वरूप के निर्माण का कार्य करीब-करीब समाप्त हो गया है. इस प्रक्रिया में सबसे पहला काम था जिस औपनिवेशिक प्रशासन को हमने स्वीकार किया था उसमें समृद्ध करना. इसके अलावा विकासात्मक प्रशासन के लिए कमान की एक श्रृंखला बनाना जो सामान्य प्रशासन के समानांतर हो.
इनके अतिरिक्त, विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए प्रशासनिक सुधार और नए संस्थानों का निर्माण जरूरी हो गया था. इस प्रकार राज्यों को मजबूत करने और आíथक विकास से बाजार का विकास हुआ.
हालांकि देश के सफल प्रदेशों में भी राज्य निर्माण के सभी तत्वों को समान रूप से नहीं पूरा किया गया था. राज्य निर्माण के प्रयत्न के नेशनल आइकान नेहरू बने, क्योंकि उन्होंने निर्माण की पटकथा सिर्फ तकनीक और प्रबंधन के बल पर नहीं लिखी, बल्कि उसमें राजनीति और विचारों का पुट भी डाला.
राज्य निर्माण के इस मॉडल को दक्षिण भारत के कई राज्यों में के. कामराज के नेतृत्व में लागू किया गया, उत्तर में प्रताप सिंह कैरो, पश्चिम में वाइबी चव्हाण और पूरब में बीजू पटनायक ने अपनाया. यह दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी प्रदेशों में राज्य निर्माण के विचार को कभी नहीं अपनाया गया.
उपसंहार
‘हिंदी प्रदेश की धारणा’ कुछ अर्थो में स्व-व्याख्यात्मक है. लेकिन हिंदी, एक स्नेहभरी भाषा, जिसने इस क्षेत्र की संस्कृति को पहचान दी है, वह ब्राह्मण वाद-विरोध की आलोचक बन कर गलत पक्ष में खड़ी थी. यह 1857 के बाद ब्राह्मण-उभार से संबद्ध है. इसे और बढ़ावा तब मिला जब हिंदी और उर्दू के बीच विभाजन की रेखा खींची गयी. समय के साथ उर्दू मुसलमानों से जुड़ गयी और हिंदी हिंदुओं से.
हिंदी-उर्दू के विकास के साझा इतिहास को दोनों ओर के शुद्धतावादी मानने को तैयार नहीं हैं और दोनों एक दूसरे पर भाषायी विभाजन का आरोप लगाते हैं. इससे दोनों को नुकसान पहुंच रहा है. संयोगवश 4 सितंबर 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के 1989 के उस कानून को वैध ठहरा दिया जिसके तहत उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया गया था.
यह फैसला उप्र हिंदी साहित्य सम्मलेन की याचिका के आलोक में आया. हिंदी प्रदेशों में सबसे धड़कती हुई सांस्कृतिक विरासत है उर्दू. इसके साथ ही भक्ति गीतों के अकूत भंडार के साथ ब्रज और अवधी पूरे भारत में समझी जाती हैं. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी इसी धरोहर का हिस्सा है.
मजे की बात यह है कि केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला का कथन कि इस देश में रहने वाला हर कोई हिंदू है (हालांकि बाद में वो अपनी बात से पीछे हट गयीं और कहा कि उन्होंने हिंदी शब्द का इस्तेमाल किया है, हिंदू का नहीं) का दो तरह से मतलब निकाला जायेगा क्योंकि वह राजनेता हैं. लेकिन इसका सबसे अच्छा रास्ता भाषा और धर्म के आपसी जुड़ाव से इतर सोचना है. हिंदी कभी भी सिर्फ हिंदुओं की भाषा नहीं रही, जैसा कि उर्दू सिर्फ मुसलिमों की नहीं रही है.
वैसे तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का आधार बहुत सीमित रहा है. बनारस का प्रभाव और बाद में मिले संरक्षण ने हिंदी के वर्चस्व को बढ़ावा दिया. देवनागरी लिपि को बनारस के हिंदी के विद्वानों ने बढ़ावा दिया और उसका इस्तेमाल बिहार के वैसे पढ़े-लिखे लोग करते थे जिनपर बनारस का प्रभाव था.
उसी तरह, सिख धर्मग्रंथों की लिपि गुरमुखी, जो किसी वर्ग या जाति से नहीं बंधी थी, हिंदी भाषा और पंजाबी के बीच फर्क करने की पहचान बन गयी. इसके विपरीत मैथिली लिपि, जो बिहार के मिथिला के ब्राह्मणों और कायस्थों के बीच सीमित थी, आम लोगों की संस्कृति की पहचान नहीं बन पायी.
शुरू में हिंदी के विचारक सिर्फ वही लोग नहीं थे जो ब्राह्णवादी व्यवस्था के खिलाफ बोलने वालों का विरोध करते थे, कबीर और भक्ति संस्कृति को भी बाद के प्रगतिशील विचारकों से मान्यता मिलने में तब तक इंतजार करना पड़ा जब तक वो हिंदी में मिल कर उसके सुनहरे अतीत के साथ नहीं जुड़ गये. प्रेमचंद ने अपने समकालीन लेखकों के उलट ब्राह्णवादी व्यवस्था के खिलाफ खुल कर लिखा. यह दुर्भाग्य है कि उनके लिखे को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा दक्षिण में ब्राह्मणों के खिलाफ द्रविड़ आंदोलन चला था या ओल्ड बाम्बे प्रेसीडेंसी में साहूजी महाराज का आंदोलन रहा था.
वास्तव में उनकी लेखनी की वजह से उन्हें ब्राह्मणों की नाराजगी ङोलनी पड़ी. एक ज्योति प्रसाद निर्मल ने उन्हें घृणा का प्रचारक कहा था. प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है- मैंने अपनी तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों के प्रति अपने पूर्वाग्रह को दर्शाते हुए उन्हें खराब चित्रित किया है. अगर मेरे पास पर्याप्त शक्ति होगी, तो मैं अपना पूरा जीवन हिंदुओं को ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त कराने में लगा दूंगा. वैसे परजीवी जो धर्म पर जीते हैं, हिंदू समुदाय पर सबसे बड़ा धब्बा हैं जो एक बड़े जोंक की तरह इसके खून को चूस रहे हैं.
ब्राह्मणों के चंगुल से हिन्दी भाषा को आजाद कराने की आवाज सिर्फ साहित्यकारों की तरफ से नहीं उठ रही थी, बल्कि इलाहाबाद के पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इसका समर्थन कर रहे थे. करीब एक शताब्दी पहले उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, मैं हिन्दी भाषा में अलंकृत लेखन की आलोचना करता हूं जिसमें संस्कृत शब्दों की भरमार है.
मैं एक सलाह देने का साहस कर रहा हूं कि इस तरह का दरबारी लेखन, जो कुछ लोगों को समझने के लिए लिखा जाता है, बंद होना चाहिए. और हिंदी के लेखकों को आम जनता के लिए लिखना चाहिए. उन्होंने आगे सुझाव दिया है कि हिंदी के लेखकों को पश्चिम की सोच और साहित्य की तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है. उन्होंने अंत में लिखा है कि आधुनिक बंगाली, गुजराती और मराठी इस मामले में हिंदी से कुछ आगे हैं. प्रेमचंद की तरह नेहरू की भी खूब आलोचना हुई थी और उन्हें अज्ञानी भी कहा गया. इस तरह, हिंदी के स्वरूप को बदलने के लिए एक समानांतर प्रयास चल रहा था.
यहां पर एक बात समझने वाली है कि यूआर अनंतमूíत, भारत की वैश्विक संस्कृति (कास्मोपोलिटन) की विरासत के वाहक, के हाल में हुए निधन के बाद बजरंग दल ने जश्न मनाया. उनकी वैश्विकता कन्नड़ हितों पर आधारित थी जिसमें ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की आलोचना की जाती थी. खुद की आलोचना करने वालों में वे सबसे अच्छे उदाहरण थे.
इसलिए यह कोई ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं है कि कन्नड़ उप-राष्ट्रीयता का विचार बहुत तेजी से उभरा, और आज भी कर्नाटक देश में सबसे बड़ा शिक्षा का केंद्र है. यह संयोग ही है कि आजादी के बाद सबसे ज्यादा ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले लेखक कर्नाटक से हैं. अगर हिन्दी प्रदेशों को एक मजबूत सामाजिक आधार चाहिए तो उसे कर्नाटक के इस रास्ते पर चलना होगा.
भारत रत्न के लिए सुझाये गये नामों की चर्चा शुरू में मैंने की है. जर्मनी के गुटेनबर्ग प्रेस और गोरखपुर के गीता प्रेस ने जो काम धाíमक ग्रंथों के प्रिंटिंग और वितरण में किया है उसकी तुलना नहीं की जा सकती है. कई मामलों में जोहानिस गुटेनबर्ग और हनुमान प्रसाद पोद्दार (गीताप्रेस के संस्थापक) के बीच समानताएं हैं, हालांकि दोनों में पांच शताब्दियों का अंतर है.
20वीं शताब्दी के भारत में शिवाकासी कैलेंडर कला ने प्रिंट मीडिया में और रामानंद सागर ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से लोगों की धाíमक भावनाओं को बदल दिया. रामायण और महाभारत धारावाहिक ने भारत की छवि को अभूतपूर्व रूप से उभारा. शिवाकासी कैलेंडर कला या रामानंद सागर के टीवी धारावाहिक का असर गुटेनबर्ग या गीताप्रेस
दक्षिण भारत, पश्चिम भारत और बंगाल के सामाजिक आंदोलनों के उलट, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के आलोचक थे, बनारस की सामाजिक व्यवस्था कुछ अलग थी. इसलिए, यह राजनीतिक दुर्घटना नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने बनारस से चुनाव लड़ा, वह भारत के हिंदू क्षेत्र और हिंदी प्रदेश में धार्मिक संदेश देना चाहते थे.
नरेंद्र मोदी का एजेंडा सिर्फ शहर से चुनाव जीतना नहीं था, वह बनारस को वैश्विक स्तर पर एक ऐसा ब्रांड बनाना चाहते हैं, जिससे लोग ईष्या करें और जो हिंदू हितों को भी ध्यान में रखेगा.
शुरू में हिंदी के विचारक सिर्फ वही लोग नहीं थे जो ब्राह्णवादी व्यवस्था के खिलाफ बोलने वालों का विरोध करते थे, कबीर और भक्ति संस्कृति को भी बाद के प्रगतिशील विचारकों से मान्यता मिलने में तब तक इंतजार करना पड़ा जब तक वो हिंदी में मिल कर उसके सुनहरे अतीत के साथ नहीं जुड़ गये. प्रेमचंद ने अपने समकालीन लेखकों के उलट ब्राह्णवादी व्यवस्था के खिलाफ खुल कर लिखा.
यह दुर्भाग्य है कि उनके लिखे को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा दक्षिण में ब्राह्मणों के खिलाफ द्रविड़ आंदोलन चला था या ओल्ड बाम्बे प्रेसीडेंसी में साहूजी महाराज का आंदोलन रहा था. वास्तव में अपनी लेखनी की वजह से उन्हें ब्राह्मणों की नाराजगी ङोलनी पड़ी. प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है- मैंने अपनी तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों के प्रति अपने पूर्वाग्रह को दर्शाते हुए उन्हें खराब चित्रित किया है.

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