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संकल्प से ही सृजन! – 2 : सरकार नहीं, समाज गढ़ता है श्रेष्ठ संस्थान

7 फरवरी, 2015 को वरिष्ठ पत्रकार और सांसद, हरिवंश ने एक वक्तव्य जैन कॉलेज, आरा में दिया था. पूर्ववर्ती छात्रों के सम्मेलन में दिये गये इस मूल वक्तव्य में कुछ तथ्य और जोड़ कर, शिक्षा की मौजूदा स्थिति पर यह वैचारिक लेख उन्होंने लिखा है. इसका पहला हिस्सा आपने शुक्रवार को पढ़ा. आज पढ़िए दूसरा […]

7 फरवरी, 2015 को वरिष्ठ पत्रकार और सांसद, हरिवंश ने एक वक्तव्य जैन कॉलेज, आरा में दिया था. पूर्ववर्ती छात्रों के सम्मेलन में दिये गये इस मूल वक्तव्य में कुछ तथ्य और जोड़ कर, शिक्षा की मौजूदा स्थिति पर यह वैचारिक लेख उन्होंने लिखा है. इसका पहला हिस्सा आपने शुक्रवार को पढ़ा.

आज पढ़िए दूसरा और अंतिम हिस्सा. इस लेख में उन्होंने दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे इन्हें किसी सरकार ने नहीं, बल्कि व्यक्तियों और समाज ने गढ़ा. अमेरिका के जितने भी महान विश्वविद्यालय हैं, उन्हें बनाने के लिए बड़े-बड़े पूंजीपतियों ने अपनी जिंदगी भर की कमाई लगा दी.

एक झटके में करोड़ों डॉलर का दान कर दिया. क्या भारत में पैसेवालों की कमी है? नहीं. फिर क्यों यहां ऐसे संस्थान नहीं खड़े होते? क्यों हम लोग हर चीज के लिए सरकार का मुंह देखते रहते हैं. सरकार अपना काम करे, यह जरूरी है. पर समाज और लोगों की भी तो कोई जिम्मेदारी है?

का र्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय की नींव रखनेवाला इनसान कैसा था? महान अमेरिकी स्वप्न की बात अमेरिकी करते हैं. बड़ी शिद्दत और भावना से. कुछ ऐसा ही जीवन एंड्रयू कार्नेगी का था. 12 वर्ष की उम्र में स्कॉटलैंड से वह अमेरिका आये. बिल्कुल कंगाल. पर अपने परिश्रम, हुनर, श्रम के बल पर अपने दौर की दुनिया के धनवान लोगों में से वह हुए.

फिर अपनी पूरी संपत्ति परोपकार, लोक कल्याण और अमेरिकी समाज के लिए लगा दी. दरअसल, उस दौर में अमेरिका में जो भी बड़े धनवान या पैसेवाले हुए, एंड्रयू कार्नेगी भी उनमें थे, उन्हें ‘रॉबर बैरंस’ कहा गया. यानी लुटेरे धनवान. सन 1889 में एंड्रयू कार्नेगी ने एक लेख लिखा, गास्पेल ऑफ वेल्थ (संपन्नता के सुसमाचार). कार्नेगी ने कहा कि धनी लोग संपत्ति के ट्रस्टी मात्र हैं. धनवानों का यह नैतिक दायित्व है कि वे अपने धन का उपयोग सामान्य लोगों की बेहतरी और उनके हित में करें. कार्नेगी ने यह भी लिखा, द मैन हू डाईस रिच डाईस डिसग्रेस्ड यानी जो व्यक्ति सिर्फ धनवान होकर मरता है, वह यशहीन होकर मरता है.

1900 में, एंड्रयू कार्नेगी ने जेपी मॉर्गन को अपना सारा स्टील व्यवसाय 480 मिलियन डॉलर में बेचा. जब यह सौदा हुआ, तो मॉर्गन ने कार्नेगी से हाथ मिलाते हुए कहा, बधाई हो, आप दुनिया के सबसे धनवान आदमी बन गये. 1901 में एंड्रयू कार्नेगी ने धन कमाने के उद्योग से संन्यास लिया. फिर 1919 में अपनी मृत्यु तक सिर्फ संचित धन बांटने का काम किया. 19 वर्षों तक जिंदगी की पूरी कमाई बांटी. कंगाल प्रवासी के रूप में वह अमेरिका आये थे, दुनिया से जाने से पहले अपनी सारी संपत्ति अमेरिका को वापस कर गये.

एंड्रयू कार्नेगी ने हजारों सार्वजनिक पुस्तकालय, कॉलेज, स्कूल, अध्यापकों की पेंशन, छात्रवृत्ति, म्यूजियम के साथ विश्व शांति व युद्ध की समाप्ति के लिए कार्नेगी अंतरराष्ट्रीय शांति संगठन की नींव भी डाली. 1900 में पिट्सबर्ग शहर में कार्नेगी टेक्निकल स्कूल की स्थापना की. इस अवसर पर कहा कि मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस शहर को एक विश्व स्तरीय तकनीकी संस्थान देने का मुझे सौभाग्य मिले.

1912 में इस टेक्निकल स्कूल ‘कार्नेगी टेक्निकल संस्था’ को पूर्ण डिग्री देने की मान्यता मिली. कंप्यूटर विज्ञान के या कंप्यूटर क्रांति के बहुत पहले कार्नेगी टेक्निकल संस्था के हर्बर्ट साइमन व एलन नेवेल ने मिल कर मशीन को भी इनसानों की ही तरह सोचने, विचारने की क्षमता देने का सिद्धांत और कंप्यूटर प्रोगाम बनाये थे.

1958 में कार्नेगी टेक्निकल संस्थान, अमेरिका का पहला संस्थान था, जिसने अपने पहले वर्ष के पाठ्यक्रम में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग को शामिल किया. उस समय से ही कंप्यूटर विज्ञान के शोध-अनुसंधान-शिक्षण क्षेत्र में कार्नेगी टेक्निकल संस्था प्रमुख वैज्ञानिक संस्था के रूप में पहचानी जाने लगी. 1913 में पिट्सबर्ग शहर में मेलोन टेक्निकल संस्था बनी. जिसका मकसद औद्योगिक इकाइयों के शोध व अनुसंधान का काम ठेके पर करने के लिए था.

अपने दौर में यह आउटसोर्सिंग का एक कामयाब और नया तरीका था. 1967 में मेलोन टेक्निकल संस्था और कार्नेगी टेक्निकल संस्था ने विलय किया. इस विलय के बाद कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय बना. 1988 में कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय, दुनिया का पहला विश्वविद्यालय बना, जिसके पूरे कैंपस के हजारों कंप्यूटर एक दूसरे से एक नेटवर्क द्वारा जोड़ दिये गये. 1990 के दशक के बीच में इस कंप्यूटर नेटवर्क को पूरी तरह से वायरलेस संपर्क से भी जोड़ दिया गया.

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कंप्यूटर नेटवर्किंग बहुत महत्वूर्ण उपलिब्ध थी. इस विश्वविद्यालय के स्थापक एंड्रयू कार्नेगी ने अपने जीवन के अंतिम 19 वर्षों में तकरीबन 350 मिलियन डॉलर की संपत्ति परोपकार के काम में लगा दी. कार्नेगी के दुनिया में न रहने के बाद भी उनके ट्रस्ट फंड से हर मिनट 150 डॉलर किसी न किसी परोपकार के काम में लग रहे हैं. कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय, आज दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थाओं में से एक है और अद्वितीय भी.

जब इस तरह के इनसान या समर्पित लोग समाज में पैदा होते हैं, तो वह समाज आगे जाने के लिए सरकार के भरोसे नहीं रहता. दरअसल, अमेरिका में ऐसे शिक्षण संस्थाओं की एक लंबी सूची है, जिन्होंने नये ढंग से सोच कर, काम कर, नये शोध कर अपने आसपास के इलाकों को खुद से जोड़ कर विकास किया. आसपास के इलाके को बढ़ाने के सूत्रधार बने. इस तरह ऐसे विश्वविद्यालय या शिक्षा केंद्र दुनिया में नये उदाहरण बन गये.

आज भारत में आप गौर करें, न जाने कितने कृषि विश्वविद्यालय हैं, जिन पर नहीं मालूम कितना सरकारी फंड खर्च होता है? क्या हमारे कृषि विश्वविद्यालय अपने आसपास के इलाकों के विकास, उनमें नये कृषि अनुसंधान का काम हाथ में नहीं ले सकते? युवा किसान या खेती में युवा उद्यमी नहीं पैदा कर सकते? क्या आसपास के जिलों या राज्य को नये कृषि अनुसंधान देकर या कृषि में नये प्रयोग से व्यावहारिक स्तर पर खुद को जोड़ कर बड़ा काम नहीं कर सकते?

एक कृषि विश्वविद्यालय के होने का असर अगर आसपास के इलाकों के आर्थिक बदलाव पर नहीं पड़ता, अगर आसपास के खेतों पर नहीं पड़ता, अगर किसानों का जीवन बेहतर नहीं होता, तो उस कृषि विश्वविद्यालय के होने का अर्थ क्या है? प्राध्यापक क्या महज बड़ी तनख्वाह पाने के लिए है या कोई समयबद्ध परिणाम देना भी उनका फर्ज है? कहीं न कहीं कोई दायित्व तो तय होना चाहिए. ऐसा योगदान, जो दिखायी दे. क्या आज भारत के विश्वविद्यालय महज सरकारों से अरबों-अरबों रुपया पायें?

अध्यापकों को सिर्फ तनख्वाह मिले? और वे अध्यापक अपने काम से क्या असर डाल पाते हैं, इसको मापने-तौलने का कोई फार्मूला तय न हो? आखिर ये कृषि विश्वविद्यालय अगर अपने इलाके में होने का सबूत नहीं दिखा सकते कि हमारे न रहने के पहले इस इलाके में कृषि की हालत इतनी खराब थी, किसानों की आर्थिक हालत इतनी खराब थी.

और जब यह कृषि विश्वविद्यालय बन गया, तो उसके नये प्रयोगों से किसानों के दिन बदले. उनकी नयी आर्थिक प्रगति हुई. प्रति व्यक्ति आमद बढ़ी. नये रोजगार पैदा हुए. अगर आप यह साबित नहीं कर सकते, अपने काम से तो आपके होने का क्या अर्थ है? इसी तरह अन्य क्षेत्रों के कॉलेज और विश्वविद्यालय अगर अपने होने की प्रासंगिकता साबित नहीं कर सकते, समाज को आगे ले जाकर, अपने विद्यार्थियों को योग्य बना कर, तो हालात कैसे बदल सकते हैं?

क्या महज बेरोजगारों की फौज खड़ी करने के लिए विश्वविद्यालय हैं. अगर विश्वविद्यालयों से निकले विद्यार्थी चार लाइन शुद्ध लिख नहीं सकते, अगर पीएचडी करके निकलनेवाले ऐसे लोग हों, जो दस पुराने पीएचडी शोधों को मिला कर ग्यारहवीं, थीसिस तैयार कर लें, तो इस देश का क्या भविष्य होगा, दुनिया में? एक तरफ आप ऐसे-ऐसे विश्वविद्यालयों की चर्चा सुन रहे हैं, जो दुनिया की तकदीर नये ढंग से लिख रहे हैं. उनके मुकाबले अगर हम इस तरह की नकली प्रतिभाएं पैदा करेंगे, तो हम कहां खड़े रहेंगे?

इसलिए हमें सोचना चाहिए कि दुनिया की शिक्षण संस्थाओं से हम क्या सीख सकते हैं? समाज के तौर पर. व्यक्ति के तौर पर. क्योंकि सब कुछ सरकार के भरोसे नहीं हो सकता. हां, सरकारें अपना फर्ज पूरा करें, इसके लिए जन-दबाव बनायें, पर समाज की नयी तकदीर लिखने में आज राजनीतिक दल विफल हो रहे हैं, तो क्या खामोश रहा जाये?

19वीं सदी में अमेरिका के कुछ बड़े अमीरों को कहा गया, ‘लुटेरे व्यवसायी’. इसके पीछे यह धारणा थी कि इन लोगों ने जो अपनी संपत्ति अर्जित की, उसके पीछे अनैतिक तौर-तरीके थे. प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों के शोषण और दोहन से यह संपदा बनी. समाज के धन की डकैती से ये लोग संपन्न बने, ऐसा तब कुछ अमरीकियों ने कहा. पर खास बात रही कि अमेरिका के ऐसे धनाढ्य लोगों ने अपनी अर्जित संपत्ति का बड़ा भाग या पूरा, परोपकार में लगा दिया.

अमेरिका के निर्माण में लगा दिया. अमेरिका के निर्माण की कथा ऐसे ‘लुटेरे धनवानों’ के मुक्त हाथ से दिये गये दान से हो कर गुजरती है. लीलैंड स्टैनफोर्ड भी ऐसे ही एक संपन्न व्यक्ति थे. रेल बनाने के उद्योग में उन्होंने अपार धन कमाया.

‘लुटेरे सामंत’ कहे गये. बाद में वह गांधी की तरह मानने लगे थे कि उद्योग-व्यापार के मालिकाना हक को एक व्यक्ति या एक परिवार के प्रभाव से बाहर निकाल कर मजदूरों की सहकारी संस्था को सौंप दिया जाये. 1876 में लेलैंड स्टैनफोर्ड ने सैन फ्रैंसिसको डी क्विटो के पास हजारों एकड़ जमीन खरीदी. घुड़साल बनवाया. इसे पालो आल्टो फार्म कहा जाने लगा.

दुर्भाग्यवश लेलैंड का इकलौता पुत्र 15 वर्ष की आयु में ही इस दुनिया में नहीं रहा. इस सदमे के बाद स्टैनफोर्ड दंपती ने तय किया कि कैलिफोर्निया शहर के बच्चे, अब हमारे बच्चे होंगे. अपने बेटे की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए स्टैनफोर्ड ने कई विश्वविद्यालयों का दौरा किया. वह हार्वर्ड गये. हार्वर्ड के तत्कालीन कुलपति या प्रभारी से मिलने का उनका बड़ा रोचक वर्णन है. फिर वह एमआइटी गये. कार्नेल विश्वविद्यालय गये.

जांस हॉपिकंस विश्वविद्यालय भी देखा. तय किया कि कैलिफोर्निया में एक नया विश्वविद्यालय बनायेंगे. एक संग्रहालय भी बनायेंगे. अक्टूबर 1891 में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय बना. तब कुछेक अखबारों ने लिखा कि स्टैनफोर्ड के प्रोफेसर संगमरमर हाल में खाली कुर्सियों को पढ़ायेंगे. स्टैनफोर्ड का सपना था कि इस विश्वविद्यालय के माध्यम से आम लोगों का कल्याण हो. अमीर लोग तो कहीं से भी शिक्षा पा सकते है.

पर 1893 में लेलैंड स्टैनफोर्ड नहीं रहे. उनकी संपत्ति के उपयोग पर रोक लग गयी. विश्वविद्यालय में आर्थिक संकट आ गया. तब स्टैनफोर्ड की पत्नी, जेन स्टैनफोर्ड ने अपनी निजी आमदनी को इस विश्वविद्यालय में लगाने का फैसला किया. जेन स्टैनफोर्ड लंदन गयीं, अपने गहने बेचने के लिए. ताकि दुनिया की आर्थिक मंदी के दौरान भी यह विश्वविद्यालय बंद न हो.

1899 में स्टैनफोर्ड की संपत्ति पर लगी रोक हटी, तो जेन स्टैनफोर्ड ने अपने पति के रेल व्यवसाय को बेच कर 11 मिलियन डॉलर इस विश्वविद्यालय को दे दिया. तब इस विश्वविद्यालय के अध्यक्ष ने कहा, ‘‘इन छह कठिन सालों में इस विश्वविद्यालय का भविष्य एक बेहद नाजुक धागे से बंधा था, और यह धागा है, एक बेहतरीन औरत का स्नेह.’’

1908 में अपने गहनों को बेच कर जेन स्टैनफोर्ड ने ‘ज्वेल फंड’ स्थापित किया, ताकि पुस्तकालय बने. स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें कुलमाता का पद दिया. इसी स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने शोध में ऐसे-ऐसे काम किये, जिनसे 21वीं शताब्दी की यह आधुनिक दुनिया आकार ले रही है. आज दुनिया तकनीकी क्रांति के दौर में है. कंप्यूटर और सूचना क्रांति का दौर. ग्लोबल विलेज का दौर. इसकी नींव इसी स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में पड़ी. 1939 में डेविड पेकार्ड व विलियम हेवलेट ने मिलकर अपने गैराज में एक इलेक्ट्रॉनिक कंपनी स्थापित की.

यहीं सिलिकॉन वैली का जन्म स्थान माना जाता है. जिस सिलिकॉन वैली ने दुनिया के कामकाज का तरीका, सोचने का तरीका, सबकुछ बदल दिया है. अधुनातन खोजों से. उन अधुनातन खोजों के पीछे इस विश्वविद्यालय का बड़ा हाथ है. कंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में तो इस विश्वविद्यालय ने दुनिया की रहनुमाई की. 1970 में इंटरनेट के जन्मदाता प्रोफेसर विन्टन सर्फ ने कंप्यूटर नेटवर्क के लिए टीसीपी/ आइपी (इंटरनेट प्रोटोकॉल) बनाया. इंटरनेट ज़माने की सबसे बड़ी कंपनी, गूगल के संस्थापकों ने अपने छात्र जीवन में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में नये प्रयोग किये. फिर अपने शोध को व्यापारिक स्वरूप दिया.

याहू के संस्थापक भी इसी संस्थान के छात्र रहे हैं. स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय सबसे पहले पालो आल्टो के घुड़साल में शुरू हुआ. आज यही विश्वविद्यालय दुनिया में जो तकनीकी क्रांति आ रही है. तकनीकी बदलाव आ रहे हैं, उसकी रहनुमाई कर रहा है. जो सिलिकॉन वैली आज की दुनिया में नयी खोजों का केंद्र है, जहां दुनिया के कोने-कोने से प्रतिभाशाली लोग जा कर काम कर रहे हैं और अपने शोधों से दुनिया को प्रभावित कर रहे हैं, उसके पीछे इसी स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय का बड़ा योगदान है.

इसी तरह जांस हापकिंस विश्वविद्यालय की कथा है. 1795 में जांस हापकिंस का जन्म तंबाकू फार्म में हुआ. बचपन में वह अपने चाचा के थोक किराना व्यापार में सहयोग करते थे. दो वर्षों में ही वह इस व्यवसाय में पारंगत हो गये. अपनी चचेरी बहन से प्रेम कर बैठे. इसका विरोध हुआ. जांस हापकिंस और उनकी चचेरी बहन आजीवन अविवाहित ही रहे.

पर जांस हापकिंस खूबी वाले व्यापारी बन गये. उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया. दासता उन्मूलन में भी उनका यकीन था. उनके एक मित्र ने 1857 में एक पीबोडी तकनीकी संस्थान खोला. अपने इस मित्र जान पीबोडी के इस काम का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा. 1867 में, जांस हापकिंस ने संस्थान निर्माण के लिए बारह सदस्यीय बोर्ड बनाया. 1873 में उनकी मौत हुई. लगभग 7 करोड़ डॉलर उन्होंने इन दोनों संस्थाओं के लिए छोड़ा. अमेरिका के इतिहास में इतने बड़े दान की यह सबसे बड़ी वसीयत थी. माना जाता था कि अमेरिका में ज्यादातर विश्वविद्यालय या तो चर्च की देन हैं या सरकार के संस्थान हैं.

कहा गया कि हमारे संस्थापक यानी जांस हापकिंस ने इस विश्वविद्यालय को धार्मिक और राजनीतिक पूर्वग्रहों से दूर रख ज्ञानार्जन व शाश्वत सत्य की खोज का संस्थान बनाने का प्रयास किया. 19वीं सदी के अंत में अमेरिका में मेडिकल शिक्षा बहुत खराब हाल में थी. उस वक्त कोशिश हुई कि एक बढ़िया चिकित्सा विश्वविद्यालय बने. यह विश्वविद्यालय आज दुनिया में सबसे ख्यातिप्राप्त चिकित्सा अध्ययन केंद्र माना जाता है. गुजरे 25 सालों में चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे बड़ी दो महत्वपूर्ण खोजें जांस होपकिंस विश्वविद्यालय ने ही की हैं.

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रतिबंध एंजाइमों पर हुए अनुसंधान ने जेनेटिक इंजीनियरिंग उद्योग को जन्म दिया है. इस खोज को अनेक जाने-माने लोग परमाणु विखंडन के बराबर की दूसरी खोज मानते हैं. दिमाग के प्राकृतिक ओपीएट्स (मादक द्रव्य) की खोज, जिसके बाद न्यूरो ट्रांसमीटर्स पर बड़ा अनुसंधान, यहीं हुआ. ब्लू बेबी का पहला ऑपरेशन भी यहीं हुआ, जिसने आधुनिक हृदय शल्य चिकित्सा के लिए रास्ता खोला. होपकिंस चिकित्सा केंद्र को ही न्यूरोसर्जरी, मूत्रविज्ञान, एंडोक्रि नॉलजी और बाल रोग सहित कई चिकित्सा विशेषज्ञताओं का जन्मस्थान माना जाता है.

अब तक हापकिंस चिकित्सा केंद्र, जांस हापकिंस विश्वविद्यालय से कुल 36 नोबेल पुरस्कार विजेता निकले हैं. इस तरह के शिक्षण संस्थान जब बनते हैं, निजी प्रयासों से बनते हैं, जिनका सपना होता है समाज और देश को श्रेष्ठता की ओर ले जाना, तो अपने काम से महज अपने शहर को या समाज को या अपने देश को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि दुनिया पर असर डालते हैं. यही काम आज जांस हापकिंस विश्वविद्यालय कर रहा है. याद रखिए, इस विश्वविद्यालय की नींव एक मामूली किराना व्यापारी ने रखी थी.

दरअसल, इनसान को उसके सपने बड़े बनाते हैं. चाहे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय हो या येल विश्वविद्यालय हो.. इनके जन्मदाता मामूली लोग रहे, पर अपने काम से ये दुनिया में अद्वितीय बन गये. इसी तरह येल विश्वविद्यालय का प्रसंग है. अतीत में गये बगैर यह जान लें कि येल विश्वविद्यालय बड़ा बना, तो इसके पीछे एलिहू येल जैसे एंग्लिकन समुदाय के कट्टर अनुयायी थे.

1670 और 1699 के बीच वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में थे. 1687-1692 के दौरान चेन्नई में फोर्ट सेंट जॉर्ज के गवर्नर थे. एलिहू येल ने अपनी पुस्तकें, सामान और विश्वविद्यालय की इमारत निर्माण के लिए वस्त्र और हथियार दान में दिये. फोर्ट सेंट जॉर्ज के गवर्नर के रूप में, एलिहू येल ने ईस्ट इंडिया में बड़े पैमाने पर लूट का राज चलाया.

येल ने लुटेरी कंपनी, ईस्ट इंडिया कंपनी को इतना लूटा कि 1692 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें गवर्नर पद से हटा दिया. पर उन्होंने अमेरिका में यह विश्वविद्यालय बनाने में अपना धन लगाया. इस विश्वविद्यालय ने अनेक उल्लेखनीय काम किये. 1861 में अमेरिका में पहली पीएचडी देनेवाला यह संस्थान बना. किसी अफ्रीकन-अमेरिकन को पीएचडी देने वाला पहला अमेरिकी विश्वविद्यालय भी. 1830 के दशक में पहली बार किसी लैटिन अमेरिकी छात्र ने यहां दाखिला लिया.

1850 में पश्चिमी कॉलेज या विश्वविद्यालय में एक डिग्री पाने के लिए आया पहला चीनी नागरिक भी इसी विश्वविद्यालय में पढ़ा. 1918 में येल के पूर्व छात्र जॉन विलियम स्टर्लिंग ने अपने विश्वविद्यालय के लिए अपनी सारी संपत्ति, लगभग 18 मिलियन डॉलर (सन 2011 के 240 मिलियन डॉलर के बराबर) का दान दिया. तब के समय में अमेरिकी इतिहास में किसी संस्थान को दिया गया यह सबसे बड़ा अनुदान था. आज येल विश्वविद्यालय का कैंपस दुनिया का सबसे खूबसूरत कैंपस माना जाता है.

यहां मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी काम हुए, जिसे सफलता की येल प्रणाली माना जाता है. कहा जाता है कि येल विश्वविद्यालय के मेडिकल छात्रों ने चिकित्सा विज्ञान में अनेक नयी खोजें कीं. इनमें एक्स-रे, अमेरिका में पेनिसीलिन का क्लिनिकल उपयोग, कैंसर के लिए कीमोथेरेपी, कृत्रिम हृदय पंप वगैरह प्रमुख हैं. यह विश्वविद्यालय अपने उच्च मापदंडों व अपनी गुणवत्ता के लिए दुनिया में अपनी जगह बना चुका है.

ब्रिटेन के स्काटलैंड स्थित सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय की कथा मनुष्य के संकल्प, कुछ कर गुजरने की इच्छा और असंभव को संभव बनाने के मानस का प्रतीक है. मध्य युग (400-1499) के दौरान स्कॉटलैंड में उच्च शिक्षा का कोई संस्थान नहीं था. यहां के छात्र ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज जाते थे. तब ब्रिटेन के खिलाफ स्कॉटिश स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था. इंग्लैंड के संस्थानों ने स्कॉटिश छात्रों को अपने यहां से निकाल दिया. इन विद्यार्थियों ने फ्रांस जाना शुरू किया.

पर वहां से भी इन्हें हटना पड़ा. अब स्कॉटलैंड में उच्च शिक्षण संस्थान बनाना, उनकी मजबूरी बन गयी. इसके लिए सेंट एंड्रयूज को ही सबसे सही जगह जाना माना गया. क्योंकि यहां बिशप का सबसे बड़ा मठ भी था. 1410 में पेरिस से पढ़ कर लौटे कुछ छात्रों ने मिल कर सेंट एंड्रयूज में उच्च स्तर का एक स्कूल शुरू किया. यही स्कूल अनेक मुसीबतों और परेशानियों से गुजरता हुआ 1411 में पूर्ण विश्वविद्यालय का दर्जा पा सका.

इस विश्वविद्यालय के पास अपना भवन नहीं था. कक्षाएं शहर में कहीं और होती थीं. अनेक मुसीबतों से यह विश्वविद्यालय गुजरा. 17वीं से 19वीं सदी के दौरान इस विश्वविद्यालय पर भारी आर्थिक संकट रहा. बमुश्किल 100-150 छात्र ही यहां पढ़ने आते थे.

स्कॉटलैंड में संपन्न लोग भी नहीं थे. पर आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स के एक डेविड वेरी हुए, जो सेंट एंड्रयूज के पूर्व छात्र थे. वह एक सफल सर्जन, व्यापारी, एक्सप्लोरर बने. अपनी वसीयत से एक लाख पौंड उन्होंने सेंट एंड्रयूज को दान में दिया. यह मदद वरदान साबित हुई. 1967 में यह सेंट एंड्रयूज से अलग हट कर विश्वविद्यालय बन गया. सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय आज दुनिया के विश्वविद्यालयों के बीच काफी ऊंचा स्थान रखता है.

ब्रिटेन के पांच बड़े विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है. अब उसने अपनी स्थापना के छह सौ वर्ष पूरे कर लिये हैं. पर दुनिया के स्तर पर उसकी विशिष्ट पहचान है, क्योंकि इस मुल्क के उन लोगों ने इसकी स्थापना की, जिसके पास न दौलत थी, न सुविधाएं थीं, न संसाधन थे. फिर भी सपना था, अपने देश में एक बेहतर संस्थान बनाने का, जिसे उन्होंने अपने लगातार संकल्प, कर्मठता और जिद से सच साबित किया.

यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों को छोड़ दीजिए, तो बहुत कम वर्षों में जिन मुल्कों ने स्तब्धकारी तरक्की कर अपनी तकदीर खुद लिखी है, उनमें से एशिया का दक्षिण कोरिया भी है. सैमसंग इलेक्ट्रानिक्स, हुंडाई मोटर्स, एलजी इलेक्ट्रानिक्स, पोस्को, एसके होल्डिंग आदि ब्रांड्स दुनिया में अपना सिक्का जमा चुके हैं. भारत में भी घर-घर तक पहुंच गये हैं.

याद रखिए, दक्षिण कोरिया की कुल आबादी है लगभग पांच करोड़ (2014 के अंत तक, स्रोत-कंट्रीइकानॉमी डॉट कॉम) है और भारत की आबादी है, लगभग 1.21 अरब (जनगणना 2011 के अनुसार) है. पर भारत अपनी कंपनियों के कारण दुनिया में बाजार नहीं बना सका. यह काम जिस दक्षिण कोरिया ने किया, उसने अपने यहां शिक्षा की कैसी व्यवस्था की? 1886 में दक्षिण कोरिया को लगा कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भर होना चाहिए.

1986 में पोहांग आयरन एंड स्टील कंपनी (पोस्को) ने पहल की. पोहांग स्टील प्लांट की स्थापना खुद में एक बड़ी प्रेरक कथा है. पर वह अलग प्रसंग है. इसी पोस्को कंपनी ने पोहांग विज्ञान एवं तकनीकी विश्वविद्यालय (पोस्टेक) की नींव डाली. इस संस्था के स्थापक चेयरमैन ने तब कहा कि आप कोयला और मशीनें बाहर से खरीद सकते हैं, लेकिन प्रतिभा नहीं.

लगभग 28-29 वर्षों में ही यह विश्वविद्यालय दुनिया के विश्वविद्यालयों की प्रवीणता सूची में छठे स्थान पर आ गया. संसार में श्रेष्ठता में 28वें स्थान पर. इतने कम समय में किसी संस्था का इस तरह तेजी से शीर्ष पर पहुंचना, अभूतपूर्व सफलता है. पोस्टेक का सपना है कि वह 2020 तक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय की सूची में से एक हो.

1980 के दशक में कोरिया में उच्च शिक्षा का बुरा हाल था. शिक्षण संस्थानों का माहौल खराब था. छात्रों के लगातार राजनीतिक प्रदर्शन, संस्थागत साधनों का अभाव, शिक्षा और अनुसंधान में तालमेल न होना जैसी अनेक चुनौतियां. 1977 में कोरिया विज्ञान और इंजीनियरिंग फाउंडेशन तथा 1981 में कोरिया रिसर्च फाउंडेशन की नींव डाली गयी. इसी दौर में बड़ी घरेलू निजी कंपनियों ने भी नये संस्थान बनाने या चल रहे संस्थानों को खरीदना शुरू किया.

1970 में हुंडई ने अल्सान इंजीनियरिंग की नींव डाली. देवु के तत्कालीन प्रेसिडेंट ने अपनी निजी संपत्ति से अजोउ इंजीनियरिंग कॉलेज खरीदा और इसे विश्वविद्यालय बना दिया. 1981 में एलजी समूह ने एक डिजिटल प्रौद्योगिकी संस्थान की नींव डाली.

इन सबके बीच पोस्टेक विश्वविद्यालय अनूठा प्रयोग था. इस विश्वविद्यालय का मकसद था, ऐसा अनुसंधान उन्मुख विश्वविद्यालय बनाना, जिसमें उद्योग, औद्योगिक अनुसंधान संस्थान और विश्वविद्यालय के बीच बेहद घनिष्ठ संबंध हो. कंपनी के लोग चिंतित थे कि यह लाभ कमानेवाला निवेश नहीं था. कोरिया में पहली बार कोई इतना बड़ा संस्थान राजधानी सिओल से बाहर छोटे शहर पोहांग में खोला जा रहा था. पोहांग के स्थानीय लोग इस विश्वविद्यालय में अपने शहर के बच्चों का प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश चाहते थे.

पर इस विश्वविद्यालय ने क्वालिटी से समझौता नहीं किया. हर पूर्णकालिक शिक्षक पद पर पीएचडी किये लोगों को रखा गया, इन नियुक्तियों में से 60 से 70 फीसदी ऐसे कोरियाई वैज्ञानिक थे, जिन्होंने विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विदेशों में नाम कमाया था और अपने देश के विकास के प्रति समर्पण के कारण स्वेच्छा से इस विश्वविद्यालय में लौटे थे.

इन्हीं कोरियाई प्राध्यापक वैज्ञानिकों ने विदेशों में अपने विषयों को होनहार युवा विद्वानों को खोज कर यहां लाने का काम किया. इस विश्वविद्यालय में स्नातक के पहले वर्ष में छात्रों की संख्या तीन सौ होती है. इसमें बेहद कड़ी स्पर्धा होती है.

पूरे देश के सबसे प्रतिभाशाली छात्र ही इसमें चुने जाते हैं. शिक्षण का माध्यम यहां अंग्रेजी रखा गया है. अपने संस्थान में सर्वश्रेष्ठ छात्रों को लाने के लिए इस विश्वविद्यालय ने वियतनाम, चीन और भारत में भी अपने दफ्तर खोले हैं. यहां अध्यापक और छात्रों को अनुपात 1:6 है. पोस्टेक विश्वविद्यालय के प्रबंधन के लिए भी पोस्को कंपनी के प्रबंधन के गुर अपनाये गये. इस तरह यह विश्वविद्यालय एक उच्चस्तरीय कंपनी के प्रबंधन जैसा ही चलता है.

यह विश्वविद्यालय अध्यापकों के प्रमोशन के लिए उनके विषय के छात्रों से फीडबैक, दुनिया के मशहूर जर्नल में चार-छह शोधपत्रों का प्रकाशन, रिसर्च में योगदान जैसे तथ्यों को निर्णायक मानती है. न कि सिर्फ लेक्चर देने का वर्षों का अनुभव. इस श्रेष्ठ विश्वविद्यालय के अध्यापकों का वेतन वरिष्ठता से तय नहीं होता. बल्कि गुजरे तीन वर्षों में किये गये उच्च गुणवत्ता के काम पर उन्हें वेतन मिलता है.

आज इस विश्वविद्यालय के पास दो बिलियन डॉलर का एनडावमेंट फंड (अक्षय निधि) है, जो कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय से दोगुना है. इन दोनों संस्थानों के संस्थापक स्टील किंग्स थे. और आज भारत के हालात देखिए. यहां शिक्षकों को बैठ-बिठाये वेतन चाहिए, न विश्व स्तर का शोध करते हैं, न दुनिया के मशहूर जर्नल्स में छपने की स्पर्धा है? कुछेक अपवाद हैं, पर यह मुख्यधारा नहीं है.

आज बड़े पैमाने पर भारत के शिक्षण संस्थानों के निर्माण का ऐसा स्वैच्छिक प्रयास, जनता की ओर से हो, लोगों की ओर से हो, तो सचमुच भारत भी सर्वश्रेष्ठ संस्थानों वाला देश बन सकता है. यह सब एक दिन में मुमकिन नहीं है. यह सिर्फ सरकार के बूते भी संभव नहीं. अंदर से जगना होता है. आज हम हर चीज के लिए सरकार पर निर्भर हो गये हैं, इसलिए हमारी अपनी उड़ने की क्षमता या जोखिम लेने की क्षमता सिमट गयी है.

(समाप्त)

(आभार : इस भाषण में दी गयी अनेक सूचनाएं, मुख्य रूप से, पेशे से साफ्टवेयर इंजीनियर, पर अत्यंत गहराई व विचारपरक ढंग से लिखनेवाले रविदत्त वाजपेयी (ऑस्ट्रेलिया) की एक लेख श्रृंखला पर आधारित है. प्रभात खबर में उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों के उद्भव पर एक अत्यंत समृद्ध लेख श्रृंखला लिखी थी. कई जगह तो उस लेख श्रृंखला की पंक्तियां व सूचनाएं हूबहू इस बयान में हैं.)

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