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जंगल की दार्शनिक भावभूमि

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ‘जंगल’ शब्द उच्चरित होते ही लोगों के मानस में एक नकारात्मक छवि उभरने लगती है, जंगल के बाशिंदे यानी ‘जंगली’. ‘जंगली’ अर्थात् बर्बर, असभ्य और पिछड़े हुए लोग. जंगल के बारे में इस तरह की अवधारणा कथित मुख्यधारा के समाज में आम तौर पर देखने […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
‘जंगल’ शब्द उच्चरित होते ही लोगों के मानस में एक नकारात्मक छवि उभरने लगती है, जंगल के बाशिंदे यानी ‘जंगली’. ‘जंगली’ अर्थात् बर्बर, असभ्य और पिछड़े हुए लोग. जंगल के बारे में इस तरह की अवधारणा कथित मुख्यधारा के समाज में आम तौर पर देखने को मिलती है. ‘जंगली’ विशेषण कभी भी सकारात्मक रूप में प्रयुक्त नहीं होता है. इस सोच ने आदिवासियों को लंबे समय तक मनुष्यता के पद से वंचित रखा. अब भी यह सोच उसी रूप में दिखाई देती है.
क्या जंगल के लोग वाकई बर्बर और असभ्य होते हैं? क्या जीवन के प्रति उनका कोई मानवीय नजरिया नहीं है? क्या उनकी सांस्कृतिक और दार्शनिक भावभूमि नहीं है? इस तरह के सवाल कथित सभ्य लोगों को न केवल रोमांचित करते हैं, बल्कि इसमें उनके सभ्य होने का दंभ भी साफ झलकता है.
‘सभ्य कौन है?’ इसका मुकम्मल जवाब आज तक नहीं मिला है. पश्चिम वालों की नजर में पूरब के लोग असभ्य हैं, तो पूरब वालों में अपनी सामाजिक संरचना की ‘हैरार्की’ में नीचे पायदान के लोग असभ्य हैं. भारत में सवर्णों की नजर में दलित वंचित असभ्य हैं. दरअसल, अब तक ‘सभ्यता’ का इस्तेमाल अपने वर्चस्व को कायम रखने के औजार के रूप में किया गया है.
क्या अंतहीन शोषण और खून बहानेवालों को ‘सभ्य’ कहा जा सकता है? क्या प्रकृति, जीवों, नदियों और वनस्पतियों को नष्ट करनेवालों को ‘सभ्य’ कहा जा सकता है? अगर जवाब ‘नहीं’ होगा, तो वर्तमान सभ्यता कैसे खुद को ‘सभ्य’ कह सकती है, जिसने अपनी सुविधा, वैभव और विलास को तो हासिल कर लिया है, लेकिन उसने मनुष्य जीवन के आधार प्रकृति को ही खो दिया है?
आधुनिक विज्ञान की अतुलनीय प्रगति के बावजूद इस बात को मानने में झिझक नहीं होना चाहिए कि विज्ञान अपने सिद्धातों और उपकरणों के लिए अंततः प्रकृति पर ही निर्भर है. प्रकृति से निरपेक्ष उसका कोई वजूद नहीं है. चाहे सुई बनाने की बात हो या मिसाइल बनाने की, प्रकृति ही प्राथमिक स्रोत है.
अपने अाविष्कार के लिए विज्ञान अब तक प्रकृति के समानांतर दूसरा कोई प्राथमिक स्रोत खड़ा नहीं कर पाया है. विज्ञान हमारे लिए प्रबंधन के बेहतर साधन उपलब्ध करा सकता है, लेकिन प्रकृति के आधारभूत तत्व नहीं. यही वह बिंदु है, जो विज्ञान की सीमा को रेखांकित करता है. जिन्हें इस सीमा का आभास था, शायद उन्होंने ही ‘सेंगेल दअ:’ और ‘सोसोबोंगा’ जैसी गाथाओं की सर्जना की है. इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि रेड इंडियंस ऐसे ही लोग थे. सेरेंगसिया घाटी में और हूल में शहीद होनेवाले ऐसे लोग थे. बिरसा मुंडा के जंगल की दावेदारी का पक्ष भी यही था. मानगढ़ और भूमकाल के लोग इसी वैचारिकी के लोग थे.
ये सभी इस बात से असहमत थे कि मनुष्य जीवन ही प्रकृति के केंद्र में है और उसे अपनी सुविधा के लिए अपने सहचरों को गुलाम बना लेना चाहिए. विज्ञान के रथ पर सवार उपभोग की आंधी ने इस पक्ष को आज भले ही अप्रासंगिक बना दिया हो, लेकिन यह मूल्यहीन नहीं है. इसकी लंबी ऐतिहासिक परंपरा है, जो आज भी जल, जंगल, जमीन की लड़ाई के रूप में हमारे समय में मौजूद है.
गंगाराम कलुंदिया की लड़ाई इसी बात को लेकर थी. कोयलकारो, सारंडा, नियमगिरि और पोस्को परियोजना के विरुद्ध खड़े लोग इसके जीवंत उदहारण हैं.
मुंडा आदिवासी अपनी ‘सेंगेल दअ:’ (अग्निवर्षा) वाली कथा में कहते हैं कि जब यह धरती मनुष्यों से भर गयी और धरती पर चलने के लिए भी जगह नहीं बची, तो ‘सिंगबोंगा’ (सर्वोच्च सत्ता) ने गुस्से में आकर आग की वर्षा की, क्योंकि तब धरती में जीवन संचालित करना मुश्किल हो गया था. यही मुंडा अपनी गाथा ‘सोसोबोंगा’ में अत्यधिक लोहे के उत्पादन का जम कर विरोध करते हैं. उनका मानना है कि अत्यधिक उत्पादन से धरती में धुआं भर जायेगा, धरती गरम हो जायेगी और प्रकृति के सभी जीवों का जीवन संकट में पड़ जायेगा. गोंड भित्ति चित्र का विचार तत्व भी ऐसा ही है.
प्रकृति जीवों के बिना गोंड भित्ति चित्र अधूरा है, यह सहजीविता की अद्वितीय मिसाल है. रेड इंडियंस अपना अस्तित्व समाप्त होने तक कहते रहे कि मनुष्य जीवन प्रकृति के केंद्र में नहीं है, बल्कि वह प्रकृति का एक तंतु मात्र है, जिसका अस्तित्व प्रकृति के अन्य सहजीवों के अस्तित्व से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. इस तरह का विचार आदिवासी समुदाय के गीतों, कथाओं और गाथाओं में आसानी से देखा जा सकता है.
ध्यान रहे कि यह विचार मनुष्य की आदिम अवस्था का विचार नहीं है, बल्कि इस विचार को केंद्र में रखते हुए आदिवासी समाज ने अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया और जीवन के प्रति अपने नजरिये को गतिशील बनाये रखा. इसी गतिशीलता का परिणाम है कि घोर पर्यावरण संकट के इस दौर में आदिवासी समाज ही जल, जंगल जमीन की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा है. जंगल उसके लिए दृश्य नहीं, बल्कि सृष्टि में जीवन का आधार है.
‘जल, जंगल, जमीन हमारा है’ यह आदिवासियों का राजनीतिक नारा मात्र नहीं है, भले ही इसका रास्ता राजनीति हो. यह आदिवासियों के जीवन-दर्शन, इतिहास और स्मृति का अभिन्न हिस्सा है, जो उन्हें बार-बार लड़ने की प्रेरणा देता है.
आज आदिवासी अंचलों में जल, जंगल और जमीन एक बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया है. इस मुद्दे को उछाल कर आसानी से वोट को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया जाता है. लेकिन, इसकी राजनीति करनेवालों को इसके दार्शनिक पक्ष को समझना होगा और उसके विस्तार की बात करनी होगी. विकास और सभ्यता के पैरोकारों को आदिवासी समाज की इस दार्शनिक भावभूमि को समझने का प्रयास करना होगा.
जब तक संपूर्ण जन-मानस की जीवन शैली और स्मृतियों में ये बातें नहीं रहेंगी, तब तक मराठवाड़ा के लातूर जैसे संकटों को पैदा होने से रोक पाना मुश्किल होगा. जब तक अंधाधुंध उत्पादन, खनन, विस्थापन जारी रहेगा, तब तक धरती का ताप और बढ़ेगा, भूगर्भ जल हजारों फीट और नीचे चला जायेगा. एक के बाद एक लातूर पैदा होते रहेंगे और आधारभूत सुविधाओं के वैज्ञानिक प्रबंधन के नाम पर हम एक-दूसरे के पैर खींचते रह जायेंगे.

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