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कोलकाता : सड़कों पर शीशे की किरचे हैं

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार अधिकतर सरकारी उपक्रमों में अब राजभाषा विषय के अधिकारी नहीं हैं. अन्य विभागों के सरप्लस अधिकारी से ही राजभाषा का काम चलाया जाता है. यह शीर्ष अधिकारियों के अहंकार और अज्ञानता का परिचायक है. हावड़ा स्टेशन पर उतरकर जब कलकत्ता की ओर चला, तो सबसे पहले जो नहीं मिला वह […]

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
अधिकतर सरकारी उपक्रमों में अब राजभाषा विषय के अधिकारी नहीं हैं. अन्य विभागों के सरप्लस अधिकारी से ही राजभाषा का काम चलाया जाता है. यह शीर्ष अधिकारियों के अहंकार और अज्ञानता का परिचायक है.
हावड़ा स्टेशन पर उतरकर जब कलकत्ता की ओर चला, तो सबसे पहले जो नहीं मिला वह हावड़ा पुल पर निश्शब्द रेंगनेवाली ट्राम थी. उसकी जगह नयी-नयी एसी और अभिजात्य कुल की अन्य बसें आ गयी हैं. सार्वजनिक वाहनों की विविधता और प्रचुरता की दृष्टि से कलकत्ता अब भी अन्य महानगरों से समृद्धतर है. यहां इतिहास को अपनी बांहों में समेटकर मैदान के किसी कोने में बैठी ट्राम भी है, निजी बसें और मिनी बसें भी हैं, लोकल ट्रेन भी हैं, हुगली नदी पर फेरे लगाती स्टीमर भी है, हाथ रिक्शा, साइकिल रिक्शा और बैटरी रिक्शा भी है. ऑटो रिक्शा और एम्बेसडर कार समेत नयी टैक्सियां भी हैं. सब बेहद सस्ती.
हावड़ा स्टेशन पर ट्रॉली लेकर खड़े कुली आपके भारी-भारी सामान मात्र 35 रुपये में टैक्सी या बस स्टैंड तक छोड़ आते हैं. मेट्रो ट्रेन मात्र 15 रुपये में कलकत्ता के इस छोर से उस छोर तक पहुंचा देता है. हावड़ा स्टेशन से बांसद्रोणी तक जाने के लिए एसी बस में जब कंडक्टर मात्र 35 रुपये मांगता है, तब बाहर से आये लोग हैरान हो जाते हैं.
कलकत्ता को मैं चाहकर भी ‘कोलकाता’ नहीं कह पाता हूं, क्योंकि यह अंतर शब्द नहीं, उच्चारण का है. बंगलाभाषी कलकत्ता को उसी तरह कोलकाता कहते हैं, जैसे पद्म को पोद्दो और लक्ष्मी को लोक्खी. इसलिए हिंदीभाषी यदि आज भी बंगाल में कलकत्ता ही बोलते हैं, तो वे कोई अपराध नहीं करते. बनारस की पत्रकारिता को नमस्कार कर मैं 1981 के मई मास के प्रथम दिन कलकत्ता डॉ प्रभाकर माचवे जी की शरण में आया था. वे भारतीय भाषा परिषद के निदेशक थे और परिषद के अतिथि निवास में साहित्यकार के रूप में मुङो कुछ दिन रख सकते थे. वे अकेले रहते थे. मुङो बहुत मानते थे. उनके साथ सुबह-शाम चाय पर हुई बतकही ने उनके विषाद ज्ञान का मुङो कायल बना दिया था. अक्सर शाम को वे मेरे आने की प्रतीक्षा करते थे.
ऐसे ही एक शाम मैं दफ्तर से लौट रहा था कि चौरंगी सड़क पर मुङो शीशे की तमाम किरचें दिखीं, जो किसी कार की दुर्घटना की द्योतक थी. मेरी आंखों में तुरंत गांव के वे लोग तैर गये, जो सामान्यत: नंगे पांव ही चलने के आदी थे. एक परिवार के समस्त पुरुषों के लिए एक ही चमरौधा जूता होता था, जिसे यात्र पर निकलने से एक दिन पहले रेंडी के तेल से अच्छी तरह भिंगो दिया जाता था.
ऐसे लोग यदि इस महानगर में आयें, तो क्या हो, यह प्रश्न मन में कौंधा, जिसने कलकत्ता पर केंद्रित प्रथम नवगीत को जन्म दिया : सड़कों पर शीशे की किरचें हैं / औ नंगे पांव हमें चलना है / सर्कस के बाघ की तरह हमको / लपटों के बीच से निकलना है.
तब मुङो लगा था कि एक राजभाषा अधिकारी भी लगभग इसी तरह का है, जिसमें बिना खडग, बिना ढाल के उपनिवेशवाद के कबंधों से लड़ना है. उन्हें परास्त करना तब भी असंभव था, अब भी, क्योंकि राजभाषा के प्रयोग में गति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सर्वत्र हिंदी बोलने से नहीं, बल्कि हिंदी के प्रयोग के लिए नयी नीति बनाने, नये निर्देश जारी करने से आयेगी. राजभाषा के निरीक्षण के बहाने संसदीय समिति से लेकर सरकारी विभागों के शीर्ष अधिकारी न जाने कितने दौरे करते हैं, मगर रोग जस का तस है. संसदीय समिति पहले आती थी, तो सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरती थी.
अब सांसदों की कौन कहे, समिति के चपरासी भी पांच सितारा होटल से नीचे पैर नहीं रखते. दरअसल, समिति के सदस्यों को पथभ्रष्ट करने में, उनकी तृष्णा व लालसा बढ़ाने में समिति के अधिकारियों की खास भूमिका होती है, क्योंकि समिति के सदस्यों को दी जानेवाली पूजा में वे बराबरी की हिस्सेदारी लेते हैं. वे ही कार्यालयों को निर्देश देते हैं कि माननीय सांसदों को भेंट में क्या दिया जाये.
नौकरी भी नये प्रकार की थी. पत्रकारिता में सब काम में दक्ष हो गया था, मगर यह राजभाषा क्या बला है, यही समझ में नहीं आती थी. वह दौर सरकारी कार्यालयों में राजभाषा के नवोदय का दौर था. इस बार तमाम नये हिंदी अधिकारियों से मैं इसलिए मिला कि देखूं जिन गलियों-चौबारों को मैं छोड़कर चला गया था, उनकी क्या स्थिति है! मुङो उनके मुरझाये चेहरों को देखकर बहुत दुख हुआ. अधिकतर सरकारी उपक्रमों में अब राजभाषा विषय के अधिकारी नहीं हैं.
अन्य विभागों के सरप्लस अधिकारी से ही राजभाषा का काम चलाया जाता है. यह शीर्ष अधिकारियों के अहंकार और अज्ञानता का परिचायक है. राजभाषा अब चार दशक पुराना विषय है, जिसे पढ़ने के लिए हर विश्वविद्यालय में प्रयोजनमूलक हिंदी पढ़ायी जाती है, क्योंकि कार्यालयीन हिंदी साहित्यिक हिंदी से शैली और शब्दावली दोनों में पृथक है.
कलकत्ता में लगभग दो दशक मैं राजभाषा अधिकारी बनकर रहा और मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूं कि वह उस दौर का प्रतिनिधित्व करता रहा, जिसे आज लोग राजभाषा का स्वर्ण काल मानते हैं. तब हम सबकी आंखों में नये सपने थे, नया उत्साह और उल्लास था, नयी प्रतिस्पर्धा थी. अब जब सैनिक ही नहीं हैं, तो युद्ध का अभ्यास क्या होगा? अब मिशनरी उमंग नहीं, जीविका की विवशता में लोग राजभाषा की डालों से लटके हुए हैं.
कलकत्ता का बड़ा बाजार कुमार सभा पुस्तकालय आज भी साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है, यह देखकर मुङो बहुत खुशी हुई.
अब वहां आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जैसे शलाका पुरुष गीता से लेकर सीता तक सभी आध्यात्मिक-साहित्यिक विषयों पर अज्ञान के अंधत्व को दूर करने के लिए नहीं रहे, मगर उनकी परंपरा को उसी ऊर्जस्विता के साथ आगे बढ़ानेवाले प्रेमशंकर त्रिपाठी मिले, तो शास्त्रीजी की ही तरह अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति से मेरी कविताओं की आवृत्ति कर चकित कर गये. कभी-कभी ललित निबंधकार कृष्ण बिहारी मिश्र भी आ जाते हैं.
उनकी साधना की डाल में निरंतर फूल खिल रहे हैं, मगर उसकी सुरभि सत्तावानों तक नहीं पहुंचती, वरना बंगभूषण से लेकर पद्मभूषण तक सारे अलंकरण उनकी एक कमरे की कुटिया पर निछावर हो जाते. इस बार पहली बार मुङो कलकत्ता इसलिए सूना लगा कि यारों के यार सुरेश नेवटिया कैंसर से लंबी लड़ाई लड़ते हुए परास्त हो गये. एक ऐसा व्यक्ति जिसने अमीरी को फकीरों की तरह जिया और आखिरी सांस तक साहित्य-कला-संस्कृति का अविज्ञापित पोषण किया.
कलकत्ता में यहां-वहां भटकते हुए मुङो आज फिर कनुप्रिया की ये पंक्तियां याद आ रही थीं : बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चांद / रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा मेरा यह जिस्म / कल तक जो जादू था / सूरज था, वेग था / तुम्हारे ओष में- आज वह जुड़े से गिरे हुए बेले-सा / टूटा है, म्लान है/ दुगुना सुनसान है.

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