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बहुत गहरी हैं आतंकवाद की जड़ें

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार सत्तर के दशक के पहले दुनिया में आतंकवाद कहां था? किन रूपों में था? अफ्रीकी देशों में बोको हराम और इराक में आइएस की पैदाइश हाल की है. तालिबान और अलकायदा भी सत्तर के दशक से पहले कहां थे? 20 अगस्त, 1978 को ईरान में आतंकियों ने एक बड़ा हमला किया था, […]

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार

सत्तर के दशक के पहले दुनिया में आतंकवाद कहां था? किन रूपों में था? अफ्रीकी देशों में बोको हराम और इराक में आइएस की पैदाइश हाल की है. तालिबान और अलकायदा भी सत्तर के दशक से पहले कहां थे? 20 अगस्त, 1978 को ईरान में आतंकियों ने एक बड़ा हमला किया था, जिसमें 477 लोग मारे गये थे. लेबनान, आयरलैंड आदि देशों में हुए हमले 80 के दशक और उसके बाद के हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में आतंकवाद सत्तर के दशक के बाद का है. इस दशक के अंत में पाकिस्तान के राष्ट्रपति फौजी तानाशाह मुहम्मद जिया उल हक ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ जेहाद खड़ा किया. इसमें पाकिस्तान के उत्तरी-पश्चिमी इलाके से हजारों युवा शामिल हुए थे. अमेरिका ने हथियारों का और सऊदी अरब ने धन का ढेर लगा दिया था. आठ वर्ष बाद सोवियत संघ ने अफगानिस्तान छोड़ा. अलकायदा और ओसामा बिन लादेन को ‘अमेरिकी संतानें’ कहने पर किसी को ऐतराज हो, तो यह अवश्य कहा जा सकता है कि इन दोनों के ‘निर्माण’ में अमेरिका की बड़ी भूमिका है. वर्षो पहले नोम चोम्स्की ने अमेरिका को थोक और अन्य को खुदरा आतंकवादी कहा था.

11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले और उसी वर्ष भारत के संसद भवन पर हमले के पूर्व भारत के दो प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी, की हत्या हो चुकी थी. 1992 के पहले तक ओसामा बिन लादेन ने निदरेषों को मारने का कोई फरमान या फतवा जारी नहीं किया था. आत्मघाती हमलावर या आतंकवादी 1983 के पहले तक नहीं थे. लेबनान में हिज्बुल्लाह ने इसे अमेरिका के विरुद्ध इस्तेमाल किया था 1983 में. अमेरिका की सैन्य उपस्थिति जिन देशों में रही, वहां आतंकवाद विकसित हुआ. अफगान में अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों साथ रहे हैं. अफगानिस्तान को एक समय ‘सोवियत यूनियन का वियतनाम’ कहा जाता था. सोवियत यूनियन को वहां से खदेड़ने के लिए आतंकवादी पैदा किये गये. पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों का साथ दिया था. लादेन पाकिस्तान में ही मारा गया. 9/11 (11 सितंबर, 2001) के बाद आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि हुई. नये-नये आतंकी संगठन बने. विश्व का राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य बदला. ‘वार अगेन्स्ट टेरर’ (आतंक के विरुद्ध युद्ध) की जो बात बुश ने कही थी, वह असरदार हुई. ‘आतंक के विरुद्ध युद्ध’ का वैश्वीकरण हुआ. ‘इसलामिक स्टेट’ की आतंकी हरकतों के पीछे अमेरिका की विदेश नीति और अरब देशों से संबंधित नीतियां भी रही हैं. एरिक हॉब्सबाम ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोबलाइजेशन, डेमोक्रेसी एंड टेररिज्म’ (2007) में ‘आतंक के विरुद्ध युद्ध’ की घोषणा के बाद स्थितियों के और बदतर होने की बात कही है और इसका कारण वे आतंकवादी कार्रवाइयों को न मान कर अमेरिकी सरकार को मानते हैं.

2001 के बाद अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान पर हमले कर सद्दाम हुसैन और तालिबान को समाप्त किया, पर आज इन दोनों देशों में आतंकी संगठन प्रभावी हैं. हॉब्सबाम आतंकवादियों को ‘महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एजेंट’ के रूप में न देख कर लक्षण रूप में देखते हैं. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एक ध्रुवीय विश्व में आतंकी घटनाओं में कहीं ज्यादा वृद्धि हुई. मुल्ला उमर और लादेन के बाद भी आतंकवादी संगठन पाक-अफगान में सक्रिय हैं. बेनजीर भुट्टो की हत्या तालिबान ने ही की थी. फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक की मृत्यु के बाद भी जब पहली बार बेनजीर सत्ता में आयी थीं, पाकिस्तान की सेना ने रक्षा, अर्थव्यवस्था और विदेशी मामले उनके पास नहीं रहने दिये थे. पाकिस्तानी सेना का तालिबान से धार्मिक संबंध रहा है. फरवरी, 2005 में पाकिस्तानी सेना ने पाकिस्तान तालिबान के प्रमुख बैतुल्लाह महसूद के साथ एक शांति-संबंध पर हस्ताक्षर किया था. मुशर्रफ ने अमेरिका को ‘आइडिया’ दिया था कि वे जेहादी नेतृत्व को अपनी खुफिया सेवाओं से सहयोजित करेंगे. युद्ध नेता नेक मुहम्मद वजीर ने 2004 में अपने लोगों को ‘पाकिस्तानी सैनिक’ कहा था, जनजातीय लोगों को ‘एटम बम’ बताया था, जो भारत द्वारा पाकिस्तान पर आक्रमण के समय 14 हजार किमी की सीमा की रक्षा करेंगे. पाक सेना, आइएसआइ और जेहादी गुटों की आपसी मैत्री एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है.

जनरल मुशर्रफ और हाफिज सईद दोनों ने 16 दिसंबर को पेशावर के सैनिक स्कूल में की गयी छात्रों की नृशंस, बर्बर और जघन्य हत्याकांड का जिम्मेवार अत्यंत विवेकहीन ढंग से भारत को माना है. तहरीक -ए-इंसाफ के प्रमुख इमरान खान ने नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार को हटाने के लिए पिछले महीने जो आंदोलन चलाया था, उसे चार-पांच दिसंबर को लाहौर में जमात-उद-दावा की वार्षिक कांग्रेस को ध्यान में रख कर स्थगित कर दिया. इस संगठन के हाफिज सईद ने पेशावर हत्याकांड के बाद भारत के खिलाफ जहर उगला है. पेशावर में इमरान खान की पार्टी की सरकार है. नवाज शरीफ और इमरान खान ने तालिबान का नाम नहीं लिया है, जबकि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के नेता मुल्ला फजलुल्लाह ने इसकी जिम्मेवारी ली है. खबरें यह भी आ रही हैं कि वह अफगानिस्तान में मारा जा चुका है. तालिबान के विरुद्ध जारी पाकिस्तान के सैन्य अभियान ‘जर्ब-ए-अज्ब’ के खिलाफ पेशावर में बच्चों की नृशंस हत्या पाकिस्तान को यह समझा चुकी है कि तालिबान बुरा है, अच्छा नहीं.

पाकिस्तान घरेलू आतंक का शिकार है. इस वर्ष पेशावर में ही अब तक 38 बम धमाके हो चुके हैं, जिनमें 87 लोग मारे गये और 307 घायल हुए. पिछले बारह वर्ष में पाकिस्तान में 55 हजार से ज्यादा लोग आतंकवाद की भेंट चढ़ चुके हैं. बीते एक वर्ष में पांच हजार से अधिक. मुंबई में 26/11 के हमले के मुख्य आरोपी पाकिस्तान में हैं. पाकिस्तान को सबसे पहले अपने बारे में सोचना होगा. इसकी अधिक संभावना नहीं है कि भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान एक मन से, एक उद्देश्य से आतंकवाद को इस भू-भाग से समाप्त करने के लिए एकजुट होंगे.

हॉब्सबाम ने आतंकवाद का वास्तविक खतरा उस अविवेकी भय में देखा था, जो आतंकवादी गतिविधियों से उत्पन्न उत्तेजना में है, जिसे आज मीडिया और अविवेकी सरकारें प्रोत्साहित करती हैं. उसे उन्होंने हमारे समय का प्रमुख खतरा माना था- छोटे आतंकी संगठनों से बड़ा. स्कूल पर हमला शिक्षा पर, विवेक पर हमला है, किताब, कलम और ज्ञान पर हमला है. आतंकवाद को केवल सैन्य कार्रवाई से समाप्त नहीं किया जा सकता. उसकी जड़ें दूर तक फैली हुई हैं. आज जरूरत धर्म और राजनीति को अलग-अलग करने की भी है.

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