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राजनीति कहां गयी भाई!

चंचल सामाजिक कार्यकर्ता बंदूक-संदूक के मालिकों को संसद में भेजोगे, तो जेरे-बहस महंगाई नहीं बनेगी. काला धन वोट समेटने का जाल तो बन सकता है, लेकिन उसे वे नहीं उजागर कर सकते, जो खुद कमर तक उस काले धन की तिजोरी में अंड़से पड़े हैं. संसद के केंद्रीय कक्ष में हर दल के नेता एक […]

चंचल
सामाजिक कार्यकर्ता
बंदूक-संदूक के मालिकों को संसद में भेजोगे, तो जेरे-बहस महंगाई नहीं बनेगी. काला धन वोट समेटने का जाल तो बन सकता है, लेकिन उसे वे नहीं उजागर कर सकते, जो खुद कमर तक उस काले धन की तिजोरी में अंड़से पड़े हैं.
संसद के केंद्रीय कक्ष में हर दल के नेता एक साथ, एक जगह, और कई बार तो एक टेबुल पर आमने-सामने बैठ कर बोलते-बतियाते हैं. लेकिन जब जनता के सामने जाते हैं तो एक-दूसरे के विरोधी होकर जाते हैं. कहो खलीफा! बात सही है ना? खलीफा मुस्कुराये- जनाबेआली! यह उनका दोहरापन है, जो उन्हें खोल में डाले रखता है, क्योंकि इनके पास न तो लिहाज बची है न ही जमीर. सियासत तो है ही नहीं.
ये, जिन्हें नेता कहना पड़ता है, अपनी जाति के जुगराफिये पर गणित लगाते हैं और माल काटते हैं. कल तक अइसा नहीं था. सब देखते-देखते बदला है. इसलिए अगर हालात पर काबू नहीं पा सकते, तो मुल्क छोड़ दो.. मुल्क छोड़ दूं? तो कहां जाऊं? दुनिया में कोइ मुल्क है जहां इंसानी तमीज बची हो? हर जगह तो बारूद की गंध है. और आप फार्मा रहे हैं मुल्क छोड़ दो! कयूम ने खलीफा को गौर से देखा और दोनों जोर से हंस पड़े. एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर चल पड़े अपनी संसद की ओर जो चौराहे पर सजती है, और बड़े-बड़े फैसले करती है.
चौराहे की संसद सज चुकी है. आसरे की चाय उबल रही है शिवसेना की तरह. चाय की उबाल पर यह मद्दू पत्रकार की टिप्पणी है. आज वह भी जमे बैठे हैं. क्योंकि आज शनीचर है. चिखुरी धीर-गंभीर बने अपने स्थाई भाव में तख्तासीन हैं. लखन कहार की राजनीति उलझ गयी है- ये भाई, ये जो असल अल्पसंख्यक हैं जिनकी जाति में वोट का भीड़ नहीं है, इनके लिए कौन सी पार्टी है?
लाल्साहेब की जाति राजपूत है, बहुत दिनों तक संघी रहे, पर जब जमींदारी वापस नहीं लौटी, तो संघमुक्त हो गये और कांग्रेस पर जा बैठे. कीन उपाधिया एक साथ कई हैं. राम सेना, बजरंग दल, शिवसेना, भाजपा, संघ, दुर्गा वाहनी, पर पोलेटिकल ना हैं, बस! कयूम कांग्रेसी हैं. खलीफा उमर दरजी अदलते-बदलते रहते हैं. और चिखुरी तो सुराजी हैं. इस संसद में सब तत्व हैं.
यह सब बताना इसलिए जरूरी था कि इस संसद की बहस को आसानी से समझा जा सके. कोली दुबे और नवल उपाधिया चिखुरी के साथ हैं. प्रेक्षक दीर्घा में करियवा कुकुर है, जो तखत के नीचे सो रहा है. चाय आये, उसके पहले ही कयूम मियां ने यह पूछ कर सब को चौंका दिया कि महंगाई क्या है, मुद्दा या राजनीति? या महज वोट बिगाड़ने-बनाने का नुस्खा?
और अगर यह थोड़ा-थोड़ा सब है तो इसे रोका कैसे जाये? और कोई भी सरकार इसे रोकती क्यों नहीं? सवाल मौजूं था.
चौराहे की संसद में सन्नाटा पसर गया. नवल ने धार दी- हर जगह चर्चा है महंगाई की. अखबार, टीवी महंगाई पर बहुत चिंतित हैं. मद्दू ने बीच में टोका- ये सब तो लफड़झंडू हैं, असल तो वहां चर्चा है, जिसे राजनीति कहते हैं. इस बार महंगाई पर एक पार्टी जीत गयी, दूसरी हार गयी, क्योंकि वह सरकार थी. चिखुरी बोले- गौर से सुनो. पहले यह जान लो जो वस्तु महंगी हो रही है उसका उत्पादन कहां से हो रहा है? उत्पादन के दो ही स्नेत हैं- खेत-खलिहान और कारखाने. हमने किस उत्पाद को महंगा बोल कर राजनीति की है? खेत-खलिहान की या कारखाने की?
उमर दरजी जल्दी समझ गये-खेत-खलिहान पर ही तो बात हुई, कारखाने पर नहीं हुई. चिखुरी बोले- सही समझे, कारखाने पर चर्चा नहीं चलेगी. क्योंकि कारखाने की लूट का बड़ा हिस्सा राजनीति को जाता है. विज्ञापन को जाता है. यह एक मकड़जाल है. अगर महंगाई को रोकना चाहते हो तो संसद में अपना प्रतिनिधि भेजो.
बंदूक-संदूक के मालिकों और इनके मुलाजिम को संसद में भेजोगे, तो जेरे-बहस महंगाई नहीं बनेगी. काला धन वोट समेटने का जाल तो बन सकता है, लेकिन उसे वे नहीं उजागर कर सकते, जो खुद कमर तक उस काले धन की तिजोरी में अंड़से पड़े हैं. इसके लिए चुनाव को सस्ता करना पड़ेगा. और जब चुनाव सस्ता होगा तभी खेत से, खलिहान से, मजूरों से, मजलूमों से नेता निकलेंगे और देश के मुस्तकबिल पर अपने दस्तखत करेंगे.
कभी सोचा कि किसी भी सरकार, पक्ष-प्रतिपक्ष ने किसी भी तरफ से ‘दाम बांधो और फिजूलखर्ची पर प्रतिबंध लगाओ’ पर चर्चा की? नहीं. तो अब एक ही रास्ता बचता है कि यह सवाल निदान के साथ सड़क से उठे. सड़क गरम हो. राजशक्ति के खिलाफ एक दमदार जनशक्ति उभरे. लेकिन कमबख्तों ने जनशक्ति को भी इतना धोखा दिया है कि अब वह जल्दी किसी बदलाव की ओर जाने से कतरायेगी. निराश नहीं होना है. आज से ही यह तय कर लो कि हम आज से कम-से-कम उन उत्पादों को खरीदेंगे, जो अनावश्यक रूप से हमें लूट रहे हैं और कारखानों से निकल कर कचड़े के रूप में गांव में गिर रहे हैं. कहो कीन?
लाल्साहेब को मौका मिल गया- कीन खुश है कि कल इसकी पीठ पर बिसुनाथ बनिया का हाथ रहा और इ ओकर मेहरारू के निहारत खड़ा रहा. नवल की आंख गोल हो गयी. साइकिल उठ गयी और जाते-जाते कीन को सुना गये- अटरिया ऊंची छवाय द..

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