हिमांशु बाजपेयी
निदा फाजली नहीं रहे. कई बार सच बोलना भी औपचारिकता सा लगने लगता है. जैसे आज ये सच कि निदा फाजली के जाने से अदब को जो नुकसान हुआ है, वो कभी पूरा नहीं हो सकता.
मगर निदा साहब के यहां सच महज औपचारिकता भर नहीं था. वे सच को सच की तरह बोलने के कायल थे, और इसी वजह से वे हमेशा अपने आसपास के दूसरे अदीबों से अलग नजर आये. निदा फाजली के जाने के बाद हिंदी-उर्दू दुनिया में ऐसे बुजुर्ग बहुत कम बचे हैं जो नयी पीढ़ी को ये बता सकें कि सच बोलने वाला लहजा कैसा होता है.
हालांकि निदा साहब की बेबाकी ने उनका नुकसान ज्यादा किया फायदा कम पहुंचाया. जब भी किसी पत्रकार ने उनसे पूछा कि निदा साहब पहले फिल्मों में साहिर, कैफी, मजरूह जैसे लोग लिखते थे और क्या बेहतरीन गाने लिखते थे आज वैसे गाने क्यों नहीं लिखे जाते. तो वो बेबाकी से बोले कि इसलिए नहीं लिखे जाते क्योंकि कोई वैसे गाने लिखवाना ही नहीं चाहता.
वो लोग नहीं रहे पर अभी मुझ जैसे लोग तो हैं. मैं लिखने को तैयार हूं मगर कोई लिखवाए तब तो… और फिर अगर आप उनसे थोड़ा घुल मिल गये तो वे बिना किसी लाग-लपेट के अपने समकालीन गीतकारों के बारे में अपनी सख्त राय आप पर जाहिर कर देंगे, फिर चाहें वो गुलजार हों या जावेद अख्तर. यहां तक कि अपने संस्मरणों में उन्होने साहिर लुधियानवी और शकील बदायूंनी जैसे कद्दावर शाइरों को भी उनके कद की रियायत नहीं दी.
अपनी बेबाकी का नुकसान वे नौजवानी के दिनों से ही उठाने लगे थे मगर बुढ़ापे तक उन्होंने इसे छोड़ने की जरूरत नहीं समझी और दुनिया से जाते वक्त भी वे बिल्कुल ऐसे ही रहे. अभी कुछ दिन पहले ही वे फेसबुक पर अल्लामा इकबाल के भक्तों से यगाना चंगेजी को लेकर बहस कर रहे थे. साहित्यकारों की हत्या के मसले पर उन्होंने केंद्र सरकार और साहित्यकारों दोनो को खरी खरी सुनायी थी.
उनके शेरों की लोकप्रियता विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों से लेकर ट्रक ड्राइवरों तक में रही मगर इस ये अपार लोकप्रियता भी उन्हे शाइरी के प्रति लापरवाह नहीं बना पायी. शाइरी उनके लिए बहुत संजीदा चीज थी और वे इसे संजीदगी से लिए जाने के ही पक्षधर थे
इसीलिए पक्षधरता के चलते कई मुशायरों में उनकी दर्शकों, साथी शायरों यहां तक कि आयोजकों से भी बहस हो जाती थी. बेबाकी उनके मिजाज का हिस्सा थी इसके चलते बहुत से लोग उनसे स्थायी तौर पर नाराज रहते थे मगर खुद निदा फाजली किसी से भी दुशमनी मान लेने या दिल में द्वेष रख लेने वाले आदमी नहीं थी. जब भी मिलते तो सब भूल-भाल कर मिलते.
हां, अपना मत प्रकट करने में वे ईमानदार थे तो थे. मजाज की दास्तान के प्रीमियर से पहले मैं मजाज के बारे में कुछ बड़े लोगों की राय जान रहा था सो मैने उन्हें फोन किया. उन्होने सीधे-सीधे बिना किसी लाग लपेट के मजाज की शाइरी के बारे में बहुत सख्त राय दी.
मुझे इस राय की उम्मीद नहीं थी. मगर निदा साहब अपनी बात पर अटल थे. हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि लोगों को शाइरों की कहानी सुनाना बहुत अच्छा आइडिया है. इस तरह वो लोग भी उन्हे जान पायेंगे जो किताबें नहीं पढ़ते. मैने भी बहुत से गुमनाम शाइरों पर इसीलिए लिखा कि लोग जानें कि कितने बेमिसाल लोग थे वो.
निदा साहब ने दसियों ऐसे शाइरों पर संवेदनशील श्रद्दांजलि लेख लिखे हैं, जिन पर अगर वो न लिखते तो शायद मेरे जैसे बहुत से लोग उन्हे जानते भी न होते. आज निदा फाजली साहब पर श्रद्धांजलि लेख लिखते हुए वो सारे चेहरे मेरी आंखों के सामने घूम रहे हैं. कह रहे हैं हमारी कहानी निदा फाजली ने सुनाईयी, पर सुनने लायक तो निदा फाजली की कहानी है. उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न थासारा घर ले गया घर छोड़ के जानेवाला.