तालिबान का ‘नया चेहरा’? आमिर खान मुत्ताकी की भारत यात्रा से कूटनीतिक गलियारों में क्यों मची है हलचल  

Taliban Foreign Minister Amir Khan Muttaqi India Visit: अफगान विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की भारत यात्रा से कूटनीतिक गलियारों में हलचल है. क्या तालिबान का ‘नया चेहरा’ भारत से भरोसे का रिश्ता बना पाएगा? जानिए 2021 के बाद बदलते भारत-अफगान संबंधों और भारत की साइलेंट डिप्लोमेसी की पूरी कहानी के बारे में.

By Govind Jee | October 4, 2025 8:08 PM

Taliban Foreign Minister Amir Khan Muttaqi India Visit: कभी भारत और तालिबान दो नाम, जो एक साथ सुनने पर विरोधाभास लगते थे. एक तरफ लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत, दूसरी तरफ ऐसा शासन, जिसकी छवि कठोर इस्लामी शासन की रही है. लेकिन अब तस्वीर धीरे-धीरे बदल रही है. 10 अक्टूबर को अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी नई दिल्ली आने वाले हैं. यह यात्रा सिर्फ एक औपचारिक मुलाकात नहीं है, बल्कि यह उन रिश्तों की परतें खोलने जा रही है जो 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद से धीरे-धीरे बन रही थीं. मुत्ताकी भारत पर मानवीय सहायता बढ़ाने का दबाव डालेंगे, साथ ही तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता देने पर चर्चा की कोशिश करेंगे. कूटनीति के गलियारों में इसे भारत-अफगानिस्तान संबंधों के “नए अध्याय” की शुरुआत माना जा रहा है.

Taliban Foreign Minister Amir Khan Muttaqi India Visit in Hindi: तालिबान की वापसी और भारत की उलझन

15 अगस्त 2021 को वो दिन जब तालिबान फिर से अफगानिस्तान की सत्ता में लौटा. काबुल पर कब्जे के बाद पाकिस्तानी आईएसआई प्रमुख की तस्वीरें सामने आईं, और पूरी दुनिया ने मान लिया कि अब काबुल, इस्लामाबाद के इशारों पर चलेगा. भारत में भी यह धारणा बनी कि नई दिल्ली ने अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक पकड़ खो दी है. राजनयिक गलियारों में एक डर था कि क्या अब भारत के दशकों से बनाए गए विकास परियोजनाओं और मानवीय निवेश पर पर्दा पड़ जाएगा? लेकिन भारत ने जल्दबाजी नहीं की. उसने “साइलेंट डिप्लोमेसी” यानी चुप कूटनीति का रास्ता अपनाया.

पश्तून रिश्तों ने खोला नया रास्ता

विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार तालिबान का रवैया भारत के प्रति थोड़ा नरम था. इसकी वजह उनकी सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी थी. तालिबान ज्यादातर पश्तून जनजातियों से आते हैं, जिनका भारत से संबंध 250 साल से भी पुराने हैं और 1947 से बहुत पहले भी यानी अफगानिस्तान के समाज में भारत को लेकर ऐतिहासिक पहचान पहले से मौजूद थी. उधर, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ तालिबान के इतने गहरे रिश्ते नहीं थे. भारत के राजनयिकों ने इस इतिहास को “डिप्लोमैटिक विंडो” की तरह इस्तेमाल किया.

पाकिस्तान के खिलाफ अफगान नाराजगी और भारत का मौका

तालिबान की सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तान में जश्न मनाया गया, लेकिन कुछ ही महीनों में रिश्तों में दरार पड़ने लगी. इस्लामाबाद की नीतियों पर अफगानों में नाराजगी बढ़ने लगी. भारत ने इसी समय अपनी रणनीति बदली. बिना किसी प्रचार के उसने तालिबान प्रतिनिधियों के साथ बैकचैनल बातचीत शुरू की. शुरुआत मानवीय सहायता से हुई जिसमें गेहूं, दवाइयां और जरूरी सामग्री भेजकर. यह काम बहुत शांति और सावधानी से किया गया, ताकि न अंतरराष्ट्रीय आलोचना हो, न किसी को यह लगे कि भारत जल्दबाजी कर रहा है.

जेपी सिंह की यात्रा- जब खेल पलटा

2 जून 2022 को भारत के वरिष्ठ राजनयिक जेपी सिंह (अब वर्तमान में इजराइल में भारत के राजदूत हैं) काबुल पहुंचे थे. उन्होंने खुद अफगान विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी से मुलाकात की. यह मुलाकात किसी को उम्मीद नहीं थी. क्षेत्रीय विशेषज्ञों के लिए यह एक संकेत था कि भारत धीरे-धीरे अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति फिर से बना रहा है. मुत्ताकी ने इसके बाद पाकिस्तान की बजाय भारत से दोबारा मिलने की इच्छा जताई. यह एक बड़ा संकेत था कि तालिबान अब अपने पुराने पाकिस्तान-निर्भर छवि से बाहर आना चाहता है.

दूतावास की वापसी और मानवीय जुड़ाव

जेपी सिंह की मुलाकात के बाद भारत ने अगला बड़ा कदम उठाया कि काबुल में अपना दूतावास दोबारा खोला. भारतीय महिला अधिकारी स्कूलों, अस्पतालों और विकास परियोजनाओं का दौरा करने लगीं. भारत ने अफगानिस्तान को गेहूं, दवाइयां और राहत सामग्री भेजी. साथ ही वीजा सेवाएं भी बढ़ाईं, ताकि अफगान नागरिक भारत आकर इलाज या शिक्षा जारी रख सकें. यह सब हुआ बिना किसी राजनीतिक शोर-शराबे के दूर एक परिपक्व और “मानवीय केंद्रित” कूटनीति के तौर पर. हाल ही में आए भूकंप के बाद भी भारत ने अफगानिस्तान में बड़े स्तर पर मानवीय मदद की, जिसमें खाने से लेकर दवा और राहत सामग्री शामिल थी.

तालिबान का ‘ट्रस्ट बिल्डिंग’ गुरुद्वारों की मरम्मत और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा

तालिबान ने भी भारत को भरोसा दिलाने की कोशिश की. अफगानिस्तान के गुरुद्वारों में आईएसआई की संलिप्तता की चिंताओं को देखते हुए उन्होंने कुछ अहम कदम उठाए. काबुल के करता परवन गुरुद्वारे का जीर्णोद्धार कराया गया. साथ ही भारत द्वारा चलाए गए ‘ऑपरेशन देवी शक्ति’ के दौरान निकाले गए सिखों और हिंदुओं को वापसी की अनुमति दी गई. उन्हें सुरक्षा दी गई और उनकी संपत्तियाँ भी लौटा दी गईं. ये कदम भारत के लिए संकेत थे कि तालिबान अब पुराने तालिबान जैसा नहीं रहना चाहता.

2025 में दुबई में भारत के विदेश सचिव और अमीर खान मुत्ताकी के बीच एक गुप्त बैठक हुई. उस बैठक को इस यात्रा की बुनियाद माना जा रहा है. अब मुत्ताकी की दिल्ली यात्रा को वर्षों की उस सतर्क कूटनीति का परिणाम बताया जा रहा है, जो 2021 के बाद लगातार परदे के पीछे चल रही थी. वे भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात करेंगे.

क्या भारत अब तालिबान को मान्यता देगा?

यह वह सवाल है जो सबसे ज्यादा चर्चा में है. संयुक्त राष्ट्र ने अभी तक तालिबान शासन को मान्यता नहीं दी है. भारत अब तक “व्यावहारिक जुड़ाव” (Pragmatic Engagement) की नीति पर चल रहा है जिसमें बातचीत जारी रखो, लेकिन औपचारिक मान्यता मत दो. अब जब तालिबान खुद आगे बढ़कर बातचीत का प्रस्ताव रख रहा है, भारत के सामने कूटनीतिक चुनौती है कि क्या तालिबान को भरोसा किया जा सकता है? क्या वो अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगा?

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