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#ArmyDay: ”जोश, जुनून और देश” , हिंदुस्तान की सेना की है पूरी दुनिया में धाक

हिंदुस्तान की सेना ने अपनी वीरता और पराक्रम से विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा ली थी, क्योंकि भारतीय सेना सिर्फ हथियारों के बल पर युद्ध नहीं लड़ती, बल्कि उनका जोश, जुनून और देश की मिट्टी के प्रति निष्ठा उन्हें मजबूती प्रदान करती है. देश तो 15 अगस्त 1947 को आजाद […]

हिंदुस्तान की सेना ने अपनी वीरता और पराक्रम से विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा ली थी, क्योंकि भारतीय सेना सिर्फ हथियारों के बल पर युद्ध नहीं लड़ती, बल्कि उनका जोश, जुनून और देश की मिट्टी के प्रति निष्ठा उन्हें मजबूती प्रदान करती है. देश तो 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया, लेकिन भारतीय सेना का इतिहास 15 जनवरी 1949 को बदला. इसी दिन लेफ्ट जनरल केएम करिअप्पा (जो बाद में फील्ड मार्शल बने) को ब्रिटिश साम्राज्य के तत्कालीन कमांडर जनरल सर फ्रांसिस रॉय बूचर ने कमांड हस्तांतरित किया था. भारतीय सेना इसलिए प्रत्येक वर्ष 15 जनवरी को आर्मी दिवस के रूप में मनाती है. दिल्ली की परेड में आर्मी जनरल सलामी लेते हैं. यह दिन सेना के उन सभी शहीदों को सम्मान समर्पित करने का दिन है, जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया. प्रस्तुत है पूर्व सैनिकों की प्रमुख संवाददाता संजीव भारद्वाज के साथ बातचीत के संपादिश अंश :

महेश्वर राय
हिंदी-चीनी, भाई-भाई कहकर चीन ने अचानक कर दिया हमला : राहरगोड़ा निवासी सिपाही महेश्वर राय भारतीय सेना में 6 अगस्त 1948 को भर्ती हुए. आजादी के ठीक एक साल बाद ही गुलामी का मंजर और अंग्रेजों का सेनानियों तथा क्रांतिकारियों पर किया गया अत्याचार उनकी आंखों में था. सिपाही महेश्वर राय को 6850665 आर्मी नंबर मिला. उन्हें भारतीय सेना के आर्डिनेंस यानी गोला बारूद कोर में सेवा का अवसर मिला. अक्सर सैनिकों के अंदर देश रक्षा का एक जुनून होता है जो सिपाही महेश्वर राय में भी दिखता था. ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग के दौरान वे पूरे जोश में रहते और सभी को साथ लेकर चलने का काम करते थे. 1962 में राजनीतिक परिस्थिति बदल गयी. हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाने वाले चीन ने भीतरघात कर देश की सीमा पर अचानक आक्रमण कर दिया. उस समय वे पंजाब के पठानकोट सीमा पर तैनात थे. महेश्वर राय ने बताया कि चीनी सेना पूरी तरह हथियारों से लैस थी और आक्रमण इतना योजनाबद्ध था कि भारतीय सेना को चौकन्ना होना पड़ा. युद्ध के समय 2 एफवओडी में सेवारत महेश्वर की पूरी टीम उधमपुर से चसूल हवाई अड्डे के पास अस्थायी एम्यूनिशेन डिपो बनाया. वे लोग यहां से इन्फेंट्री के जवानों के लिए गोला बारूद और बंदूक तैयार करके गाड़ियों में भरकर भेजने लगे. जहाज में बंदूक फिट नहीं होने उसे खोलकर पुनः असेंबल किया जाता था. सेवा के दौरान महेश्वर राय को जम्मू-कश्मीर मेडल दिया गया.

केशव प्रसाद सिंह
62-65-71 का युद्ध लड़ देश सेवा की : बारीडीह निवासी हवलदार केशव प्रसाद सिंह 20 वर्ष की आयु में 13 जुलाई 1955 को भरतीय सेना में भर्ती हो गये. उन्होंने कम उम्र में ही देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना पाल रखी थी. सेना की 61 इंजीनियर रेजिमेंट के इस सिपाही को 1962, 1965 और 1971 का युद्ध देश कि रक्षा के लिए लड़ने का सौभाग्य हासिल है. सेना में भरती हर सैनिक युद्ध में लड़ने की चाह रखता है, लेकिन अवसर विरलों को ही मिल पाता है. उन्हें याद है चीन का भीतरघात वाला युद्ध, पाकिस्तान को थर्रा देने वाले 1965 के भारत-पाक युद्ध में उनकी रेजिमेंट का कितना अहम योगदान था. इतना ही नहीं 1971 के भारत-पाक युद्ध में वे कश्मीर के चंब सेक्टर में तैनात थे. वे बताते हैं कि किस तरह तीनों सेना के बेहतर समन्वय से चंब में पाकिस्तानी सैनिकों को भरतीय सेना ने अपने टैंकों तले रौंद दिया था. इससे पहले की पाकिस्तानी कुछ सोच पाते, इंजीनियर रेजिमेंट की टुकड़ी ने अपने डाइनामाइट से उनके सारे रास्ते काट दिये. भारत की सेना ने जंग जीत कर सीना चौड़ा कर लिया. चाह थी की लाहौर पर कब्जा कर लें, लेकिन राजनीतिज्ञों के निर्णय से वे आज भी दुखी हैं.

बिरजू कुमार
युवाओं को आगे आना होगा, तभी होगी देश सेवा : 1999 के ऑपरेशन विजय के वक्त बिरजू कुमार राजौरी सेक्टर में तैनात थे. वह कहते हैं कि महीने भर चले युद्ध में हमारे सैनिक यह मानते रहे कि हमारे जज्बे और पुरुषार्थ के आगे एक दिन पाकिस्तान को घुटने टेकने ही होंगे. हवलदार बिरजू यह भी मानते हैं कि नागरिकों के मनोबल और सैनिकों के प्रति आस्था और सम्मान से युद्ध जीता जाता है. वह कहते हैं कि नागरिक समाज विशेष अभियान के माध्यम से तरुणों में यह जज्बा भरकर सेना और देश के प्रति निष्ठा का पाठ पढ़ा सकता है, जो वर्तमान समय की जरूरत भी है. भारतीय सेना के एयर डिफेंस में सेवा देने वाले हवलदार बिरजू की कारगिल की अग्रिम पंक्ति और लाइन ऑफ कंट्रोल के युद्ध की याद आते ही रोंगटे खड़े हाे जाते हैं और शरीर में सिहरन दौड़ जाती है. हवलदार बिरजू का मानना है कि भारतीय सेना किसी भी मुकाबले के लिए सदैव तैयार रहती है. कारगिल युद्ध में भी सेना के जवानों का जोश और जुनून ही था जो इतनी ऊंची चोटियों पर भी लड़कर हमने दुश्मनों को खदेड़ दिया. तिरंगे की आन, बान और देश का मान जिंदा रखा.

जसबीर सिंह
विस्फोट में उड़ा पैर, फिर भी बेटे को भेजा सेना में : भारतीय फौज का प्रशिक्षण इतना जानदार होता है कि वे एक संगठन बनकर काम को एक जुनून मानकर पूरा करते हैं. इसलिए युद्ध के मैदान में भी सैनिक अपनी जान की परवाह नहीं कर सिर्फ देश के मान-सम्मान की चिंता करते हैं. उनका एक ही लक्ष्य होता है, सुनिश्चित विजय और वो किसी भी कीमत पर. भारतीय सेना के 12 सिख रेजिमेंट में 1986 में भर्ती हुए हवलदार जसबीर सिंह को भारत की सेना की ओर से श्रीलंका में शांति बहाली और लिट्टे के साथ संघर्ष की कहानी अब भी उनके दिमाग में अच्छी तरह से याद है. सेना में भर्ती होने के साल भर बाद ही श्रीलंका ऑपरेशन में पूरी रेजिमेंट को जाने का आदेश हुआ. सिख रेजिमेंट अपनी वीरता पराक्रम और बहादुरी के लिए जानी जाती रही है. जसबीर सिंह बताते हैं कि सेना की सेवा पंजाब के हर युवा की चाहत होती है. ऑपरेशन पवन के दौरान जब वे अपनी टोली के साथ पेट्रोलिंग पर थे, उसी दौरान लिट्टे द्वारा बिछायी बारूदी सुरंग की चपेट में उनकी गाड़ी आ गयी और उसके परखच्चे उड़ गये. इसमें हवलदार जसबीर का एक पैर उड़ गया. बावजूद उनका जोश आज भी कम नहीं हुआ है. कृत्रिम पैर के सहारे सारी दिनचर्या पूरी करते हैं. उनका एक बेटा भी देश सेवा में सिख रेजिमेंट में पदस्थापित है.

पंकज कुमार सिंह
पाकिस्तानियों ने किया पोस्ट पर कब्जा, छह साथियों ने दी शहादत : नायक पंकज कुमार सिंह ने भारतीय सेना में 1988 में योगदान दिया. वे बताते हैं कि 1991 का एक हादसा आज भी उन्हें याद है. अप्रैल माह में वे अपनी सीमा की अग्रिम चौकी पर तैनात थे. पाकिस्तान और उनके आतंकवादियों ने पोस्ट पर हमला कर दिया. पाकिस्तानियों ने उनकी पोस्ट पर कब्जा कर लिया, इसके बाद उन्होंने 15 जवानों के साथ मिलकर मोर्चा लिया. इस दौरान उनके छह जवान शहीद हो गये. आज भी वह मंजर याद आता है तो खून खौल उठता है. देश पर जब भी कोई आंच आये तो पूर्व सैनिक दुश्मन को बर्बाद करने के लिए वहां खड़े मिलेंगे. उस वक्त शहीदों के पार्थिव शरीर को घर ले जाने की अनुमति नहीं थी. शहीदों का अंतिम संस्कार एक साथ केरन सेक्टर में कर दिया गया, जहां ऑपरेशन हुआ था.

जावेद हुसैन
तीनों सेनाओं में तालमेल की निभायी जिम्मेदारी : हवलदार जावेद हुसैन सोनारी कैंप से भर्ती होने के बाद 25 नवंबर 1980 को रांची बीआरओ से इएमइ शाखा में शामिल हुए. इसके बाद पंजाब के नाभा, ग्वालियर, पठानकोट जैसे कई जगह अपनी सेवाएं दी. 1987 में बीटी-4 एक्सरसाइज का हिस्सा बने, जिसमें तीनों सेनाओं के बीच सामंजस्य बनाने की जिम्मेदारी बखूबी निभायी. 1988 में रिपब्लिक डे परेड में अपनी यूनिट का हिस्सा बने.

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