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शब्दों को संस्कार देनेवाले थे प्रो मनमोहन मिश्र
डॉ शंकर मोहन झा की यादें जन्म : 18 जनवरी 1939 स्थान : मोहद्दीपुर, पो-कैथा जिला-भागलपुर मृत्यु : 23 अगस्त 2018 लिखना व भाषण करना-दोनों ही में इन्हें माहरथ थी. श्रोताओं-पाठकों को मंत्रमुग्ध किये रहते थे. बड़ी पारदर्शी प्रतिभा थी. एक बार देख-सुनकर अंतिम निर्णय दे देते थे. आयुर्वेद, शरीर विज्ञान, योग, धर्म, इतिहास, अंग्रेजी, […]
डॉ शंकर मोहन झा की यादें
जन्म : 18 जनवरी 1939
स्थान : मोहद्दीपुर, पो-कैथा जिला-भागलपुर
मृत्यु : 23 अगस्त 2018
लिखना व भाषण करना-दोनों ही में इन्हें माहरथ थी. श्रोताओं-पाठकों को मंत्रमुग्ध किये रहते थे. बड़ी पारदर्शी प्रतिभा थी. एक बार देख-सुनकर अंतिम निर्णय दे देते थे. आयुर्वेद, शरीर विज्ञान, योग, धर्म, इतिहास, अंग्रेजी, संस्कृत-किसी भी विषय पर आधिकारिक रूप से लिखते-बोलते थे.
धार्मिक, परंतु उदार और सहिष्णु व्यक्ति थे. किसी से भिड़ पड़ना या लड़ पड़ना तो जानते ही नहीं थे. देवघर के रामशंकर मिश्र ‘पंकज’ को, उनकी रचनाओं को बहुत आदर देते थे. तारा बाबू की पुस्तक की जो भूमिका लिखी, वह गीत विधा की मानक थी. जैसे एक-एक तार रूई को धुनकर अलग-अलग कर देता है, वही प्रतिभा उनमें थी.
अंगिका के महाकवि सुमन सूरो की पुस्तक की लिखी उनकी भूमिका धरोहर है. उनकी कविताएं सुनकर ज्ञानेंद्रपति ने कहा था- ‘ऐसी दस कविताएं भी आजकल के ढेरों राष्ट्रीय स्तर के कवियों के पास नहीं हैं.’ ऐसे शब्दार का जाना शाब्दिक नहीं सचमुच अपूरणीय क्षति है. ज्ञानेंद्रपति को ‘पहल सम्मान’ मिला, तो देवघर से प्रभात मिश्र, मनमोहन बाबू और मैं बनारस गये थे.
वहां अपनी ‘मां’ पर लिखी कविता का ज्ञानजी ने पाठ किया था. मनमोहन बाबू ने जो उसकी व्याख्या की थी, उसे सुनकर हम मंत्रमुग्ध थे. वे जहां बैठ जाते, वहीं एक सार्थक संगोष्ठी उतर आती. मैं पूरे देश के हिंदी साहित्यकारों के पास बैठा हूं, मिला हूं और तब जाकर कह रहा हूं कि मनमोहन बाबू विरल व्यक्तित्व के स्वामी थे. ऐसा स्वच्छ पारदर्शी विद्वान साहित्यकार ढूंढ़े से दो-एक मिलता है.
देवघर नंदन पहाड़, चांनन नदी का तट, अजय नदी का किनारा, पथरोल काली मंदिर परिसर सहित संताल परगना का कोना-कोना उन्हें याद था. प्रो मनमोहन आचार्य राम रघुवीर बाबू के शिष्य थे. राम रघुवीर बाबू एवं डॉ शिवनंदन प्रसाद जी के लिए इनके मन में बड़ा आदर था. जयशंकर प्रसाद, सूरदास एवं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला इनके प्रिय कवि थे.
समकालीन कवियों ने ज्ञानेंद्रपति के लिए बड़ा सम्मान था. ज्ञानजी ने जब प्रभात खबर विशेषांक (2008-09) के लिए मेरे आग्रह पर देवघर आकर ‘सावन में देवघर’ शीर्षक से कविता लिखी, तो मनमोहन बाबू पाकुड़ से देवघर आये थे.
मनमोहन बाबू से एक प्रश्न (यादों के झरोखे से)
क्या एक कवि के लिए शास्त्र ज्ञान आवश्यक है?
इस प्रश्न का जवाब सभी के लिए आवश्यक है. उनका कहना था- नहीं प्रकृष्ट रूप में मानव चेतना के बौद्धिक संस्थान से शास्त्र एवं भावनात्मक व संवेदनात्मक, जिससे कल्पना सहज रूप में जुड़ी है, से काव्य का प्रयोजन है. पुन: शास्त्र का प्रस्थान बिंदु ही विश्लेषणपरक है.
शास्त्रज्ञ अपने अभीष्ट का चिंतन करता है, कवि भावन. कवि-कर्म जिस रूप से जीवन-द्रव्य से स्फूर्त और जीवन द्रव्य को लेकर प्रयोज्य होता है, वह संश्लेषण मूल होने के नाते अनौपचारिक रूप से बस द्रव्य को भी समेट लेता है, जो शास्त्र का विषय है. लेकिन, कवि-कर्म में उसका समेटा जाना सावधानी और चौकसी की मुद्रा में नहीं, अनायास होता है. श्रेष्ठ कविता शास्त्र के स्मरण से नहीं, शास्त्र के विस्मरण में सिद्ध होती है.
आदि कवि का ‘मा निषाद…’ बाल्मिकी के शास्त्रीय अनुष्ठान के स्मरण की भूमिका में नहीं, सभी शास्त्रीय अनुशासनों से परे आत्मसंवेदना की उस महत्तम दशा में होती है, जिसमें न विधि है, न निषेध. शास्त्र ‘शास्’ एवं ‘शस्’- इन दोनों धातुओं से व्युत्पन्न है. ‘शास्’ शासन करने के अर्थ में और ‘शस्’ व्याख्या करने के अर्थ में ‘के’ धातु से व्युत्पन्न है. कवि की मर्यादा स्वयंभू परिभू होने में है, अपने काव्य संसार में स्वयं प्रजापति होने में है.
अग्निपुराण ऐसा ही साक्ष्य है, कविता के लिए व्युत्पत्ति और अभ्यास अपरागत है. मूलधन प्रतिभा है और ध्वनिकार ने जिस नव नवोन्मेषशालिनी कहा है, शास्त्र जाने हुए का पुनरावर्त्तन है. अत: उसकी चर्वणा अतितोन्मुखी है, जबकि सृजनधर्मिता से अनिवार्यत: और अपनापन परिलक्षित की जानेवाली प्रतिभा भविष्योन्मुखी है.
अत: कवि के लिए बिल्कुल अनिवार्य नहीं है कि पहले वह शास्त्रज्ञ हो, हो फिर वह काव्य सृजन में प्रवृत्त हो. उसके शास्त्रज्ञ होने की प्रतिज्ञा को काव्य सृजन का प्रस्थान बिंदु मानना कुछ ऐसा ही कहना है कि कोई पहले तैरना सीख ले, फिर वह पानी में उतरे.
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