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नये वैश्विक परिदृश्य में पैदा होंगी भारत के लिए नयी चुनौतियां….जानिए कैसे

बीता वर्ष तमाम भू-राजनीतिक घटनाक्रमों का गवाह रहा है. विश्व राजनीति में हुए तमाम अभूतपूर्व घटनाक्रमों ने अनेक देशों की विदेश नीतियों और राजनयिक संबंधों को नये सिरे से परिभाषित किया है. इनमें उत्तर कोरिया संकट, ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियां, ब्रेक्जिट और कई देशों में नयी राजनीतिक विचारधाराओं का उभार सुर्खियों में रहे. नये वर्ष […]

बीता वर्ष तमाम भू-राजनीतिक घटनाक्रमों का गवाह रहा है. विश्व राजनीति में हुए तमाम अभूतपूर्व घटनाक्रमों ने अनेक देशों की विदेश नीतियों और राजनयिक संबंधों को नये सिरे से परिभाषित किया है.
इनमें उत्तर कोरिया संकट, ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियां, ब्रेक्जिट और कई देशों में नयी राजनीतिक विचारधाराओं का उभार सुर्खियों में रहे. नये वर्ष में शुरुआती संकेत नयी उभरती चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं. भारतीय संदर्भ में विदेश नीति और कूटनीति की राह व पड़ोसी देशों के साथ संबंधों के विविध आयामों के आकलन के साथ प्रस्तुत है आज का वर्षारंभ …
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
पिछले एक साल में विश्व व्यवस्था का जो कायाकल्प हुआ है, उसकी अनदेखी करना असंभव होता जा रहा है. यों तो विश्व व्यवस्था निरंतर परिवर्तनशील रहती है तथा भारत की विदेश नीति एवं डिप्लोमेसी के लिए उभरती चुनौतियों का जिक्र होता रहता है, तथापि हाल का घटनाक्रम अभूतपूर्व है.
अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के चुनाव ने अमेरिका नामक महाशक्ति का रूपांतर कर दिया. दुनिया का सबसे ताकतवर कहलाने वाला नेता आज एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे अहंकारी, बड़बोला, आत्ममुग्ध एवं राजनयिक अनुभव से हीन, कुनबा परस्त समझने वालों की कमी नहीं. अमेरिका के बारे में यह कहा जाता है कि उस देश की राजनैतिक प्रणाली में अंकुश और संतुलन का बेहतरीन संयोजन है, पर ट्रंप के व्हाइट हाउस पहुंचने के साथ यह सबक भुला देना बेहतर है. अमेरिका के दोस्तों और दुश्मनों की उनकी पहचान पारंपरिक ज्ञान को शीर्षासन करा चुकी है.
उनके वक्तव्य उलटबासियों जैसे होते हैं, जिन पर लीपापोती करने की लचर कोशिश विदेश या रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता करते रहे हैं. कट्टर अमेरिकी राष्ट्रवाद को मुखर करने के साथ ट्रंप ने इस्लामी जगत को दुश्मन के रूप में परिभाषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. आरंभ में भारत को लगता रहा कि इस विश्व दर्शन के कारण अब अमेरिका पाकिस्तान पर नकेल कसेगा और आतंकवाद से लड़ने में भारत की मदद करेगा. पर अब तक यह आशा निर्मूल ही साबित हुई है.
ब्रेक्जिट से यूरोप में उथल-पुथल
ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय समुदाय बड़ी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. एक बार टूट की कगार पर खड़ा नजर आने के बाद फिलहाल फ्रांस-जर्मनी जैसे बड़े सदस्य देश भले ही स्थिर दिखाई देते हैं.
लेकिन हालात निरापद नहीं कहे जा सकते और न ही हम यह सुझाना अक्लमंदी समझेंगे कि इस संगठन से ब्रिटेन के बाहर निकलने से भारत के विकल्प अनिवार्यतः बेहतर हुए हैं. शरणार्थियों का दबाव यूरोप पर बरकरार है तथा आर्थिक मंदी की चपेट से ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, इटली नहीं निकले हैं. पूर्वी यूरोप के देशों पर दबंग पुतीन का साया मंडराता रहा है.
आज भारत अमेरिका के करीब जरूर है, उसका सामरिक साझेदार भी, पर हम यह मान कर नहीं चल सकते कि हम दो देशों के राष्ट्रहित में क्षणभंगुर संयोग से अधिक शाश्वत सन्निपात है.
‘स्वदेशी’ श्रम तथा उपज व उत्पाद को प्राथमिकता देने वाली अमेरिकी नीतियां निश्चय ही भारत के लिए आर्थिक विकास में बाधक होंगी. एच-1 बी वीजा का विवाद जल्दी निबटने वाला नहीं. कनाडा तथा मैक्सिको के ही नहीं, यूरोप के अलावा ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की अमेरिका पर निर्भरता बनी रहेगी और भारत यह कल्पना नहीं कर सकता कि अमेरिका को दरकिनार कर वह इस भूभाग में विकल्प तलाश सकता है.
उत्तर पूर्वेशिया में बड़ा बदलाव
विश्व व्यवस्था में सबसे बड़ा बदलाव उत्तर पूर्वेशिया में दिखाई दे रहा है. चीन के समर्थन से उत्तरी कोरिया का उदय एक ऐसे बेलगाम छुट्टे सांड की तरह हुआ है, जो कहीं भी सींग मार सकता है.
दुर्भाग्य यह है कि चीन तथा पाकिस्तान की मेहरबानी से उसके सींगों में परमाण्विक जहर घुल चुका है- ट्रंप भी बंदरघुड़की से अधिक कुछ कार्रवाई करने में समर्थ नहीं लगते. उत्तरी कोरियाई शैतान के माध्यम से चीन जापान तथा दक्षिणी कोरिया को ही नहीं फिलीपींस तथा हवाई द्वीप समूह तक को त्रस्त कर रहा है. दक्षिण पूर्व एशिया में चीन का आक्रामक विस्तारवाद उत्तर पूर्वेशिया संकट के कारण ही उपेक्षित रहा है. आनेवाले दिनों में भारत के लिए विश्व व्यवस्था का यह बदलाव सबसे बड़ा सरदर्द बन सकता है.
चीन ने एेतिहासिक रेशम राजमार्ग के पुनर्निर्माण की जो महत्वाकांक्षी परियोजना लागू करना शुरू किया है, उसके दूरगामी प्रभाव दक्षिण तथा मध्य एशिया पर पड़ेंगे. सहयोगी पाकिस्तान की सामरिक अहमियत को देखते हुए चीन ने उसे बेहिचक भरपूर समर्थन का फैसला किया है. इसी शह के कारण आज पाकिस्तान अमेरिकी सहायता की बैसाखी को फेंकने के तेवर दिखलाने की हिम्मत कर सकता है.
आज से कोई चौथाई सदी पहले सोवियत संघ के विघटन तथा विलय के बाद जो विश्व व्यवस्था प्रकट हो रही थी, उसमें भूमंडलीकरण की प्रवृत्ति प्रमुख थी. यह दौर आर्थिक उदारवाद और राज्य राष्ट्रों के बीच अंतरनिर्भरता वाला अब लगभग समाप्त प्राय है. पर्यावरण का संकट हो या इससे जुड़ा खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा वाले जोखिम किसी भी सार्वभौमिक मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय सहमति शेष नहीं.
अमेरिका ने अपने ऊपर आतंकवादी हमले के बाद पश्चिम एशिया में सत्ता परिवर्तन की जो रणनीति अपनायी, उसने न केवल संप्रभु राज्य की अवधारणा पर सवालिया निशान लगाये, वरन उस अंतरराष्ट्रीय कानून की ही धज्जियां उड़ा दीं, जिस पर विश्व व्यवस्था टिकी थी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस व्यवस्था में क्रमशः बदलाव होते रहे- शक्ति संतुलन का स्थान आतंक के संतुलन ने लिया, बड़ी ताकतों को पछाड़ महाशक्तियां मंच पर सक्रिय होने लगीं, फिर एशियाई अफ्रीकी भू-भाग में नवोदित राष्ट्रों के एकजुट होने ने विश्व व्यवस्था को समतापोषक और न्यायसंगत बनाने के लिए दबाव बनाया.
भूंडलीकरण का सबसे असरदार तर्क मानव जीवन के गैर-सामरिक आयाम को राष्ट्रहित की परिभाषा में अहमियत देना था. इसी कारण मानवाधिकारों का मुद्दा- पर्यावरण एवं टेक्नोलॉजी की प्रगति के साथ-साथ विश्व व्यवस्था, विदेश नीति तथा डिप्लोमेसी का पहला सरोकार समझा जाने लगा.
विदेश नीति पर पुनर्विचार की जरूरत
समसामयिक विश्व व्यवस्था में बदलाव का एक अन्य पक्ष पुतिन के जुझारू रूस का अलग-थलग होना है. इस घड़ी जब पुतिन एक बार फिर पुनर्निर्वाचन के लिए तैयार हो रहे हैं, कोई दूसरी महाशक्ति यूक्रेन-क्रीमिया में उनके हस्तक्षेप पर आपत्ति दर्ज कराने में असमर्थ है.
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रूसी खुफिया एजेंसियों का परदे के पीछे से षड्यंत्र हो या सीरिया के गृहयुद्ध में अंतर्विरोधों से भरपूर जगजाहिर सैनिक योगदान असमंजस ही पैदा करते हैं. शरणार्थियों की समस्या पश्चिम एशिया तक ही सीमित नहीं. रोहिंग्या-चकमा आदि की चुनौती कम विस्फोटक नहीं.
भारत के लिए आज अपनी विदेश नीति के तथाकथित ‘आधार स्तंभों’ पर पुनर्विचार जरूरी है. अन्यथा सार्थक राजनयिक अभियान नहीं चलाया जा सकता. दक्षिण एशियाई संदर्भ में अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव बारंबार यही दर्शा चुके हैं. जिस क्षेत्रीय एकीकरण को शीत युद्धोपरांत विश्व व्यवस्था की नींव का पत्थर समझा जाता था, वह आज बुरी तरह क्षतिग्रस्त है. भारत के लिए यह समझना जरूरी है कि हमारा विश्व दर्शन कितना काल्पनिक, पौराणिक है, कितना वास्तविक- यथार्थ से जुड़ा.
अमेरिकी रुख पर निर्भर होगा
भारत-अमेरिका संबंध!
इस वर्ष यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत के साथ व्यापार व आप्रवासन को लेकर अमेरिका क्या रुख अपनाता है. अगर व्यापार व एच-1 बी वीजा को लेकर अमेरिका भारत के सामने चुनैातियां पेश करता है, तो दोनों के रिश्ते प्रभावित हो सकते हैं. संभवत: अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर भारत को बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है.
भारत अमेरिका के जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेज (जीएसपी), यानी बिना सीमा शुल्क (ड्यूटी फ्री) वस्तुओं का निर्यात कार्यक्रम के तहत कई वस्तुओं का निर्यात करता है.वर्ष 2016 में भारत ने अमेरिका को जीएसपी के तहत करीब 4.7 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया था, जो इन दोनों देशों के बीच होने वाले 41.36 बिलियन डॉलर के सामान्य व्यापार का 10 प्रतिशत था. इस कार्यक्रम को अंतिम बार 2015 में विस्तार दिया गया था, जो अब समाप्ति की ओर है व अभी तक अमेरिकी प्रशासन की तरफ से इसके पुनर्नवीनीकरण की कोई घोषणा नहीं हुई है. इसके अलावा व्यापार घाटा भी भारत के लिए एक चुनौती है, जिसके पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी बने रहने की उम्मीद है.
एच-1बी वीजा को लेकर भारत के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. वर्तमान में कुल वीजा का 70 प्रतिशत लाभ भारतीय पेशेवर उठा रहे हैं, जिनमें 87 प्रतिशत पेशेवर अमेरिकी कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं.
ट्रंप इस प्रकार बाहरियों के अमेरिका में नौकरी देने के आलोचक रहे हैं और कई बार वे वीजा नियमों को कड़ा करने की बात भी कह चुके हैं. ऐसा माना जा रहा है कि इस वर्ष वे वीजा नियमों में कुछ बदलाव कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है अमेरिका में इस वीजा के तहत काम कर रहे अनेक भारतीयों के लिए मुश्किल खड़ी हो जायेगी.
इस वर्ष भारत और अमेरिका के रिश्ते इस बात पर भी निर्भर करेंगे कि पाकिस्तान की आतंक परस्ती को लेकर अमेरिका कैसी नीति अपनाता है. वहीं, घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ और ट्रंप के ‘बाई अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ प्रोग्राम को लेकर भी इस वर्ष दोनों देशों के बीच टकराव बढ़ सकता है.
कोरिया संकट से कायम रहेगी अशांति
उत्तर कोरिया ने पिछले वर्ष अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है, और वह अपने लक्ष्य को हासिल कर सकता है. इसलिए कहा जा सकता है कि परमाणु हमले का खतरा लौट आया है. अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए में कोरिया मामलों की जानकार के तौर पर काम कर चुकीं सुई माई टेरी के हवाले से ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अपने परमाणु कार्यक्रम को पूरा करने के लिए उत्तर कोरिया तकनीकी तौर पर तैयार है.
उत्तर कोरिया यदि परमाणु शक्ति बन जाती है, तो पूर्व एशिया का परिदृश्य पूरी तरह से बदल जायेगा. सेंटर फॉर स्ट्रेटजिक एंड सिक्यूरिटी स्टडीज के साथ विश्लेषक के तौर पर जुड़ी टेरी का मानना है कि उत्तर कोरिया शायद इस वर्ष अपने लक्ष्य के बेहद करीब पहुंच जाये और ऐसे में दुनिया को एक कड़ा फैसला लेना होगा कि वह परमाणु ताकत के तौर पर उत्तर कोरिया को स्वीकार करे और उसके साथ संबंध रखे या फिर…
उत्तर कोरिया यदि परमाणु शक्ति संपन्न हो जाता है, तो दक्षिण कोरिया और जापान भी अपने हथियारों का भंडार बढ़ाने के बारे में सोचने को मजबूर हो जायेंगे. यह संभावना अधिक है कि 2018 में भी अमेरिका उत्तर कोरिया पर दबाव डालना जारी रखे. ऐसा करके वह उत्तर कोरिया को उसका लक्ष्य हासिल करने से नहीं रोक सकता. लेकिन, ऐसा करके वह महज इस बात को स्वीकार करने से इंकार करेगा कि किम जोंग-उन परमाणु हमला नहीं कर सकते. जो भी हो इस मामले में 2018 में अशांति जारी रहेगी.
पड़ोसी देशाें में चुनाव : भारत के लिए नयी चुनौती
वर्ष 2017 के आखिरी चरण में नेपाल में आम चुनावों में कम्युनिस्ट गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और केपी ओली इसके मुखिया चुने गये. इससे नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ने की आशंका जतायी जा रही है.
यानी नेपाल में सत्ता परिवर्तन इस वर्ष भारत के लिए नयी चुनौती साबित हो सकती है. दूसरी ओर, इसी साल जून में पाकिस्तान में भी आम चुनाव प्रस्तावित हैं. सितंबर में मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव और गर्मी के सीजन में भूटान में संसदीय चुनाव हो सकते हैं. इस साल के अंत तक या अगले साल के शुरू में बांग्लादेश में भी चुनाव हो सकते हैं. जुलाई में अफगानिस्तान में भी संसदीय चुनाव होंगे.
इन घटनाओं का असर निश्चित रूप से भारत की विदेश नीति पर होगा, क्योंकि इन देशों की संभावित नयी सरकारें नये सिरे से आपसी रिश्तों को प्रभावित कर सकती हैं.
जलवायु संकट
पिछले साल दुनियाभर में जलवायु संकट से जुड़ी अनेक घटनाएं देखने में आयीं. हालांकि, यह संकट महज कुछ सालों की गतिविधियों का नतीजा नहीं है. लेकिन, वैश्विक संधियों, सोलर एडवांसमेंट, विंड फार्म्स, हाइब्रिड कारों और इस तरह के अन्य प्रावधानों को लागू करने के बावजूद ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन से जुड़ा मसला सुलझ नहीं पा रहा है. ‘एमआइटी टेक्नोलॉजी रिव्यू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल कम-से-कम पांच बड़ी जलवायु संकट से जुड़ी घटनाएं उभर कर सामने आयीं, जिस कारण इस वर्ष इनको लेकर चिंता कायम रहेगी :
– ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी : – वैश्विक तापन में वृद्धि
– हाइपरएक्टिव हरिकेंस – आर्कटिक का पिघलता स्वरूप – जंगलों की भयावह आग.
प्रधानमंत्री की प्रस्तावित विदेश यात्रा
-फरवरी में यूएई और पास के अन्य देश. इंटरनेशनल सोलर एलायंस समिट में हिस्सेदारी.
– फरवरी-मार्च में बिम्स्टेक समिट में भाग लेने के लिए मोदी जा सकते हैं नेपाल.
– अप्रैल में काॅमनवेल्थ समिट में शामिल होने के लिए लंदन की यात्रा पर जा सकते हैं प्रधानमंत्री.
– मई- जून में जा सकते हैं सिंगापुर और चीन.
– इस वर्ष मोदी दक्षिण अफ्रीका, जापान और श्रीलंका समेत कई देश जा सकते हैं.

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