दो ऋतुओं के संधिकाल का नौ दिनों का पर्व स्वयं में बेहद विलक्षण
सदगुरु स्वामी आनन्द जौहरी
आध्यात्मिक गुरु
आज से नवरात्रि शुरू हो रही है. नवरात्रि स्व जागरण का काल है, आत्म बोध की बेला है. यह स्वयं से और स्वयं की ऊर्जा से रूबरू होने की घड़ी है. इस पर्व को देवी ‘अम्बा’ का पर्व कहा गया है. जानिए नवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व.
बूद्वीप के भारत खंड में अाश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक का काल नवरात्रि यानि अहोरात्रि के रूप में मनाये जाने की परंपरा बेहद प्राचीन है. इसके सूत्र प्रागैतिहासिक काल से प्राप्त होते हैं. दो ऋतुओं के संधिकाल का यह नौ दिनों का बेहद लंबा पर्व स्वयं में बेहद विलक्षण है. नवरात्रि की नौ रात्रियां दरअसल जीवन को नव यानि नवीन ऊर्जा से सराबोर कर देनेवाली रात्रियां मानी जाती हैं. नवरात्रि की हर रात्रि हमारी अपनी ही ऊर्जा के एक-एक पहलुओं को उद्घाटित करती है, जिसे मान्यताएं नौ प्रकार की देवियों की संज्ञा देती हैं.
शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री वास्तव में आंतरिक ऊर्जा के नौ विलक्षण स्वरूप हैं. शैलपुत्री अपने अस्त्र त्रिशूल अर्थात् त्रीलक्ष्य, धर्म, अर्थ, मोक्ष के साथ मनुष्य के मूलाधार चक्र पर सक्रिय बल है, वहीं ब्रह्मचारिणी अपनी कमंडल यानि पिछले कर्म और माला अर्थात नवीन कर्म के साथ कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र की शक्ति हैं.
हमारे मणिपुर चक्र अर्थात् नाभि चक्र की ऊर्जा चंद्रघंटा जीवन के ढेरों सुगंधों और ब्रम्हाण्डिय ध्वनियों के संग अपने कर के बंद कमल के रूप में कीचड़ में भी पवित्रता व स्निग्धता के साथ अनेक लक्ष्य में भी एकजुटता की द्योतक हैं, वहीं अनाहत चक्र यानि ह्रदय चक्र पर गतिशील ऊर्जा, कूष्माण्डा के हाथ के शस्त्र, कमंडल, पुष्प,अमृत कलश, चक्र व गदा के साथ धनुष-बाण अनेक माध्यमों से समस्त सिद्धियों और निधियों को समेट कर एक लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का संकेत है. विशुद्ध चक्र यानि कंठ चक्र पर क्रियाशील शक्ति स्कंदमाता अपने हस्त के खिलते पंकज के रूप में एक केंद्र पर चेतना के विस्तार को परिलक्षित करती है. आज्ञा चक्र की ऊर्जा, जो कात्यायनी कहलाती है, अपने अस्त्र तलवार के धार की तरह तीसरे तिल से जीवात्मा को अपने तत्व शब्द को थाम कर अपनी परम चेतना सदगुरु यानि प्रभु में समाहित होने की प्रेरणा देती है. कालरात्रि मुख्यतः सहस्त्रार चक्र का निचला बल है, जो अपने अस्त्र कृपाण से हमारे बंधनों को काट कर, काल (समय) जिन्हें इस जगत का ईश्वर भी कहा जाता है, की सहमति और कृपा प्रदान करके जीवात्मा को इस स्थूल शरीर से परे जाने में सहायक होती है.
महागौरी सहस्त्रार चक्र की मध्यशक्ति है, जो अभय मुद्रा, वर मुद्रा, डमरू और शूल से हमें महाध्वनि अर्थात परम नाद से जुड़ने में मदद करती है. सहस्त्रार की उच्च ऊर्जा सिद्धिदात्री अपनी अष्ट सिद्धियों, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व की सहायता से हमें बंकनाल तक सदगुरु में मिला कर इस निचली परत के ऊपर मोक्ष की ओर गति प्रदान करती है.
नवरात्रि स्व जागरण का काल है, आत्म बोध की बेला है. यह स्वयं से और स्वयं की ऊर्जा से रूबरू होने की घड़ी है. इस पर्व को देवी ‘अम्बा’ का पर्व कहा गया है. अम्बा शब्द ‘अम्म’ और ‘बा’ के युग्म से बना है. कुछ द्रविड़ भाषाओं में अम्म का अर्थ जल और बा का मतलब अग्नि से है. अम्बा का शाब्दिक अर्थ है, जल से उत्पन्न होने वाली अग्नि अर्थात् विद्युत. इसलिए कहीं-कहीं नवरात्रि को विद्युत की रात्रि यानि शक्ति की रात्रि भी कहा जाता है. अपूर्ण आध्यात्मिक सामान्य ज्ञान इसे शक्ति प्राप्त करने से, लड़ने और संघर्ष की क्षमता के विस्तार से जोड़ कर देखता है.
संघर्ष का अर्थ बाह्य युद्ध नहीं है, न ही शक्ति प्राप्ति का अर्थ किसी देवी के खाते से शक्ति का स्थानांतरण है. यहां शक्ति से आशय स्वयं की महाऊर्जा से है, अंतर्मन की शक्ति से है, आंतरिक ऊर्जा से है. नवरात्रि का दिव्य पर्व बाहर बिखरी हुई अपनी ऊर्जा को खुद में समेटने का वक्त है. इसके तीन दिन स्व परिचय और ज्ञान बोध के, तीन दिन शक्ति संकलन और संचरण यानी फैलाव के और तीन दिन अर्थ प्राप्ति के कहे गये हैं. ये नौ दिन किसी तलवार को नहीं, स्वयं को धार प्रदान करने की अदभुत बेला है. वैज्ञानिक अवधारणा कहती है कि हम बाह्य मस्तिष्क का सिर्फ कुछ ही प्रतिशत इस्तेमाल कर पाते हैं. हमारे बाह्य मस्तिष्क यानि चेतन मस्तिष्क से हमारा अचेतन मस्तिष्क नौ गुणा ज्यादा क्षमतावान है. इसलिए समस्त आध्यात्मिक साधनाएं स्वयं में जाने की ही अनुशंसा करती है. आध्यात्म में नवरात्रि काल उसी नौ गुने के पुनर्परिचय का काल है.