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अध्यात्म की प्रयोग भूमि है भारत

बल्देव भाई शर्मा कविवर सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेरे कवि माने गये हैं. अल्मोड़ा से आगे कौसानी में साक्षात प्रकृति की गोद में जन्मे पंत ने अपने काव्य में प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक आख्यान रचे हैं. उनकी रची यह पंक्ति, भारत माता ग्राम वासिनी खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा सा मैला आंचल, आज […]

बल्देव भाई शर्मा
कविवर सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेरे कवि माने गये हैं. अल्मोड़ा से आगे कौसानी में साक्षात प्रकृति की गोद में जन्मे पंत ने अपने काव्य में प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक आख्यान रचे हैं. उनकी रची यह पंक्ति, भारत माता ग्राम वासिनी खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा सा मैला आंचल, आज भी करोड़ों देशवासियों की याद को ताजा कर देती है. इस एक पंक्ति में भारत का मानो पूरा जीवन दर्शन व्याख्यायित हो गया है. गांधी का ग्राम स्वराज हो या मोदी का ग्रामोदय से भारत उदय का उद्घोष भारत के ग्राम्य स्वरूप की ही प्रधानता दरसाता है. पंत द्वारा वर्णित भारत माता का यह सुकोमल और मनोहारी रूप केवल एक भाैगोलिक छवि भर नहीं है, बल्कि एक चिरंतन, जीवित-जागृत शक्ति है, भारत की आध्यात्मिक चेतना का स्रोत है.
इसी आध्यात्मिक अनुभूति में से वेद काल से लेकर नये दौर तक भारत के मातृ स्वरूप की वंदना का भाव जन्मा है. दुनिया में शायद भारत ही ऐसा एकमात्र देश है जिसकी माता या मातृभूमि के रूप में संकल्पना की गयी. ऋग्वेद का पृथ्वी सूक्त तो जैसे भारत की एकात्मकता का मूलमंत्र है जिसमें भारतवंशियों का आह्वान करते हुए कहा गया है, माता भूमि पुत्रोअहं पृथिव्या:. इस धरती के साथ हम सबका माता और संतान का संबंध ही हमें एकत्व भाव से जोड़े रखता है. चाहे हम सबका जाति-मत-पंथ-भाषा-खान-पान कुछ भी हों, लेकिन हम भारत माता की संतान हैं, यह अनुभूति ही भारत की मौलिक एकता का सूत्र है.
आज हमारा संविधान भी जिस नागरिक समानता की बात को पुष्ट करता है, वह पृथ्वीसूक्त में बखूबी स्पष्ट की गयी है. माता की दृष्टि में सब संतानें समान रूप से प्रिय होती हैं. कहावत भी है- मां को तो काना (एक आंख जिसकी फूटी हो) भी प्यारा होता है. यही एक भाव है जो अपने विभेदों के बावजूद हमें एकता के सूत्र में बांधे रख सकता है. इसी भाव से प्रेरित होकर महर्षि अरविंद घोष जिन्हें उनके ब्रिटिश राज के कर्मचारी पिता ने बचपन से ही अंगरेजी मानसिकता में ढालने के लिए भारत से इंगलैंड पढ़ने भेज दिया, एक महान भक्त क्रांतिकारी, स्वाधीनता सेनानी के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मूर्धन्य नेता और अंतत: भारत की ऋषि परंपरा के प्रतीक बन कर उभरे. भारत की आध्यात्मिक चेतना के संवाहक के रूप में प्रतिष्ठित अरविंद घोष अपने पुडुचेरी आश्रम में बैठ कर जिस भारत माता की अाराधना करते रहे, वह एक भौगोलिक मानचित्र की सीमाओं में बंधा कोई भूखंड भर नहीं थी. ऋषि अरविंद एक जीती-जागती देवी के रूप में भारत माता के उपासक थे. उनका पुडुचेरी आश्रम भारत माता के अखंड स्वरूप की उपासना का केंद्र बन गया जहां आज भी उसी की अाराधना होती है.
भारत के मातृस्वरूप की वंदना करते हुए रवींद्रनाथ टैगोर ने उसे देवी और बंकिम चंद्र चटर्जी ने तो साक्षात दुर्गा का स्वरूप मानते हुए अाराधना की. आज उसी भारत माता की भक्ति को लेकर नाना प्रकार से विवाद खड़े किया जाना क्या भारत की अाध्यात्मिक विरासत काे नकारने जैसा नहीं है ? जब संयुक्त राष्ट्र भी ‘बैक टू बेसिक्स’ जैसी परियोजनाओं के माध्यम से दुनिया को अपनी जड़ों से जुड़ने का आह्वान करता हो तब अपनी विरासत से कटना शायद ही समझदारी भरा माना जाये.
यह भूमि अाध्यात्मिक चेतना का केंद्र मानी गयी है, यहां से मोक्ष का भी द्वार खुलता है. इसीलिए विष्णु पुराण में इसकी स्तुति करते हुए लिखा गया- भागन्ति देवा. किल गीतकानि/भवन्ति मूय: पुरुष: सुरस्त्वात्. अर्थात देवता भी इस भारत भूमि के गुण गाते हैं जो भौतिक और आध्यात्मिक सब प्रकार का सुख देने वाले हैं. जहां जन्म लेना बड़े भाग्य की बात है क्योंकि यहां मनुष्य रूप से जन्म लेकर मोक्ष का मार्ग मिलता है.
भारत भूमि के उन्नयन और सुखी-समृद्ध होने में ही भारतवासियों की भी सुख-शांति है क्योंकि जिस संतान की माता दुखी हो उसका जीवन सुखी कैसे हो सकता है. मां की दुआओं से ही जीवन फलता-फूलता है.
हम अपने स्वार्थों, परस्पर वैमनस्य व संघर्ष से इस मां के मन को आहत करेंगे, तो माता की दुआएं कैसे मिलेंगी. स्वामी विवेकानंद का आह्वान आज भी हम भारतवासियों को राह दिखा सकता है. आने वाले पचास वर्षों के लिए अपने सभी देवी-देवताओं को भूल जाओ और केवल एक ही देवता को याद रखो, वह है भारत माता. इसी की पूजा-अर्चना में अपने को समर्पित कर दो.’ लेकिन यह होता नहीं है क्योंकि ऐसा करने में अनेक तरह के राजनीतिक, मजहबी और जातिगत दुराग्रह आड़े आते हैं.
भारत माता की पूजा-अर्चना कोई रोटी-चावल से नहीं होगी न फूल-मालाएं चढ़ा कर . श्रीकृष्ण ने गीता में इसका बड़ा सरल मार्ग बताया है- स्वकर्मण तमभ्यर्च्य सिद्धि विंदति मानव: यानी अपने कर्मों के द्वारा उसकी अर्चना कर मनुष्य सिद्धि करते हैं.
हमारा सद्गुण सदाचार से मुक्त और स्वार्थ-भेद से मुक्त जीवन जीना ही माता की सबसे बड़ी सेवा है. आज हम सब अपने अधिकारों की बात करते हैं, उसके लिए लड़ने-मरने को तैयार रहते हैं. यहां तक कि देश भाड़ में जाये लेकिन हमारी राजनीतिक या व्यक्तिगत अथवा मजहबी आकांक्षाएं व लालसाएं पूर्ण हों. ऐसी कुत्सित मानसिकता व अपवित्र मन से मां की पूजा कैसे होगी. एक कवि की बड़ी सार्थक पंक्ति है ‘मां का पूजन साधक मन से, मन में मां की पीर रहे.
अपने स्वार्थों या सुखोपभोग के आगे क्या हम माता की पीड़ा को समझते हैं. हम हमेशा उसे नजरअंदाज करते हैं एक बेजान धरती का टुकड़ा मान कर. हम अपने अधिकारों की झोंक में भूल जाते हैं उन कर्तव्यों को देश के प्रति, मातृभूमि के प्रति जो हमें नागरिक दायित्व बोध (सिविक सेंस) से बांधे रखते हैं और जिनका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 51 (ए) में भी हुआ है.
हम संविधान प्रदत्त तरह-तरह की आजादी का तो ढोल पीटते हैं, लेकिन कर्तव्य हमें याद नहीं रहते. उन कर्तव्यों का पालन करने से ही यह मातृभूमि विश्व में यशस्वी व प्रतिष्ठित हो सकेगी. श्रीकृष्ण ने इसी कर्तव्यपालन को पूजा कहा है. भारत अध्यात्म की प्रयोग भूमि है, आज भी दुनिया भर से अनेक लोग आध्यात्मिक शांति की खोज में भारत आते हैं और कई तो यहां के होकर रह जाते हैं उसी आध्यात्मिक चेतना के उपासक बन कर. वस्तुत: अध्यात्म मन का विस्तार है जो व्यक्ति को मानवता से जोड़ता है और पूरी दुनिया को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के सूत्र में बांधता है. यह विश्व को भारत भूमि अनुपम देन है.

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