भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में पिछले 144 साल से शाही परंपरा को कायम रखने के लिए राज्य के खज़ाने से अरबों रुपए ख़र्च किए जाते हैं.
परंपरा यह है कि सर्दियों में राजधानी जम्मू होती है और गर्मियों में श्रीनगर.
सचिवालय और इससे जुड़े विभागों को शिफ़्ट करने में दो हफ़्ते का समय और अरबों रुपए लगते हैं.
आम लोगों को लगता है कि यह बेकार की परंपरा है. आईटी इंजीनियर हिलाल अहमद कहते हैं, "मुझे लगता है कि अगर कोई बेहतर विकल्प मिलता है तो इसे बंद कर देना चाहिए. चाहे तो आधा दरबार उधर रखें, आधा इधर."
श्रीनगर में इतिहास के लेक्चरर फ़ारूक़ फ़िदा कहते हैं, "दो महीने आने-जाने में, दो महीने तैयारी में और दो महीने तारतम्य बैठाने में. सरकारों और लोगों के एक-दूसरे से संबंध कायम करने के और भी बहुत तरीक़े होते हैं. इसलिए इस सबका कोई मतलब नहीं बनता."
सचिवालय के कर्मचारियों को हर साल अप्रैल की 25 तारीख को तनख्वाह के साथ 15 हज़ार रुपए टीए की मद में भी दिए जाते हैं.
हर साल विभागों की फ़ाइलों को ट्रकों के काफ़िले के ज़रिए जम्मू से श्रीनगर भेजा जाता है. अधिकारियों का कहना है कि सिर्फ़ ट्रकों के किराए पर इस साल 55 करोड़ का ख़र्च हुआ था. राजधानी स्थानांतरण के साथ आने वाले 5,000 कर्मचारियों को यहां होटलों में ठहराया जाता है, जहाँ हर कमरे का प्रतिमाह किराया 12,500 हज़ार रुपए पड़ता है.
कई बार विशेषज्ञों ने सूचना तकनीक का इस्तेमाल कर राजधानी स्थानांतरित करने की परंपरा को तोड़ने का प्रस्ताव दिया. लेकिन यह संभव नहीं हो पाया.
40 साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने श्रीनगर को जम्मू-कश्मीर की स्थायी राजधानी बनाने का आदेश दिया था. लेकिन जम्मू में कई हफ़्तों के विरोध-प्रदर्शन के बाद यह आदेश वापस ले लिया गया.
दरअसल भारतीय महाद्वीप में राजधानियां बदलने की परंपरा मुग़ल दौर से ही चल रही है. 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों ने भी दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के बीच राजपाट स्थानांतरित करने का चलन शुरू किया था.
कश्मीर राज्य में सर्दी और गर्मी में राजधानी स्थानांतरित करने की परंपरा 1872 में डोगरा महाराजा प्रताप सिंह ने शुरू की थी.
अब राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती भी इसी परंपरा के तरत नौ मई को श्रीनगर के सचिवालय में गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण करेंगी.
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