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किसानों के अनुभव : समाज को निबटना होगा सूखे से, सरकार के भरोसे नहीं
लगातार दो कमजोर मॉनसून और लापरवाह जल-प्रबंधन के कारण देश में सूखे का संकट उत्तरोत्तर गंभीर होता जा रहा है. देश की करीब आधी आबादी सूखा और जल-संकट की चपेट में है. कई इलाकों में तो दो साल से अधिक समय से यह स्थिति व्याप्त है. अत्यंत गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों से बड़ी संख्या […]
लगातार दो कमजोर मॉनसून और लापरवाह जल-प्रबंधन के कारण देश में सूखे का संकट उत्तरोत्तर गंभीर होता जा रहा है. देश की करीब आधी आबादी सूखा और जल-संकट की चपेट में है. कई इलाकों में तो दो साल से अधिक समय से यह स्थिति व्याप्त है. अत्यंत गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों से बड़ी संख्या में ग्रामीण पलायन को मजबूर हैं. सरकारी तंत्र इस विपदा से निबटने में न सिर्फ नाकाम रहा है, बल्कि उसका रवैया असंवेदनशील भी है.
ऐसे में कुछ जगहों पर लोग खुद ही सामूहिक प्रयासों से संकट में जीवित रहने की जुगत लगा रहे हैं. दिल्ली में स्वराज अभियान के तत्वावधान में आयोजित एक गोष्ठी में सूखा का कहर झेल रहे कुछ किसानों ने अपने अनुभव साझा किये. ऐसे कुछ वक्तव्यों की प्रस्तुति आज के इन-डेप्थ में…
लक्ष्मण सिंह
राजस्थान के किसान
राजस्थान में पानी की कमी हमेशा रही है. गरमी के मौसम में हालात और भी खराब हो जाते हैं. लेकिन इस भयावह गरमी के बावजूद जयपुर से 80 किमी दूर लपोरिया गांव में पानी की कमी नहीं होती है. किसान लक्ष्मण सिंह के प्रयास से पिछले 30 वर्षों से इस गांव में पानी की समस्या नहीं है. करीब तीन दशक पूर्व इस गांव में पानी की भारी कमी थी और लोग गरीबी का सामना कर रहे थे. गांव में 100 फीट की गहराई में भी पानी मौजूद नहीं था.
इस समस्या से निबटने के लिए कृषि को लाभदायक बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि गांव के लोग ज्यादा शिक्षित नहीं थे. उस समय इतनी गहराई से पानी निकालने का कोई साधन नहीं था. हमने यह जाना-समझा कि जलस्तर को बढ़ाये बिना हालात नहीं सुधरने वाले हैं. इसके लिए हमने चौका प्रणाली को अपनाने की कोशिश की.
हालांकि, शुरू में गांव वालों के अलावा सरकारी अधिकारियों ने भी इसका विरोध किया. लेकिन हमने कुछ लोगों को इसके लिए तैयार किया. हमने देखा कि सरकार की गोचर प्रणाली से लोगों को खास फायदा नहीं हो रहा था. विरोध के बीच कुछ लोगों के सहयोग से चौका प्रणाली का लाभ लोगों को दिखने लगा. इसके बाद इसकी चर्चा दूसरे गांवों में होने लगी.
इस सफलता के बाद हम लोगों ने गांवों में 8-10 किसानों का एक समूह बनाया और किसानों के खेतों में तालाब बनाने का काम किया, ताकि बरसात में इन तालाबों में पानी जमा हो सके और भूमिगत जलस्तर बढ़ सके. सरकार इसके लिए मेड़बंदी का तरीका अपनाती है.
लेकिन इससे कुछ खेतों में पानी जमा हो जाता था और किसान पानी की निकासी के लिए इसे काट देता था. इसलिए यह तकनीक ज्यादा कारगर नहीं हुई. हमने चौका प्रणाली के जरिये किसानों के खेत में तालाब बनाया और नीचे के खेतों में इसे पहुंचाने की व्यवस्था की.
यह तकनीक कामयाब हुई और आज 58 गांव पानी की समस्या से निजात पा चुके हैं. इस योजना में सरकार का एक भी पैसा नहीं लगा है. चौका प्रणाली पहले नहीं थी. इस प्रणाली से तालाब को भरा जाता है और गरमी के मौसम में अासपास के सूख चुके तालाब में पानी पहुंचाने का काम किया जाता है, ताकि बाढ़ और सूखे से निबटा जा सके. यह प्रयोग 25 साल पहले किया गया और आज 58 गांव के किसान खेती और पीने के पानी के मामले में आत्मनिर्भर हैं.
पहले सरकारी अधिकारियों ने इसका विरोध किया, अब सरकार भी मानती है कि यह अच्छा प्रयोग है. उनका कहना था कि हमारे पास तकनीक और अच्छे इंजीनियर हैं और पानी के लिए सरकार सालाना सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करती है. पहले सरकार ने इस योजना का विरोध किया और कहा कि यह गलत काम हो रहा है.
लेकिन ‘यूनीसेफ’ के हस्तक्षेप के बाद इस योजना के अध्ययन के लिए महाराणा प्रताप विश्वविद्यालय को जिम्मेवारी दी गयी. इस अध्ययन में इस योजना को सही बताया गया. शुरुआती दौर में पानी को लेकर कम समझ होने के कारण गांव वालों ने भी इसका विरोध किया.
लेकिन पानी की महत्ता समझने के बाद गांव वालों ने श्रमदान किया, जिससे गांव में हरियाली आने लगी. हमने आसपास के गांवों में जाकर काम करना शुरू किया, तो वहां भी लोगों ने श्रमदान के जरिये इस कार्य में अपना योगदान दिया. साथ ही सांस्कृतिक आयोजनों के जरिये गांवों में जागरूकता और आपसी सौहार्द बनाने की कोशिश की गयी. लोगों की जागरूकता और सहयोग से यह एक अभियान बन गया. लोगों के जागरूक होने से काम आसान होता गया. साथ ही चर्चित लोगों के दौरे से भी इस प्रणाली का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ.
पेड़ बचाओ अभियान
हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि इस काम के लिए अनुशासन जरूरी है. लोगों को पेड़ नहीं काटने के बारे में जागरूक किया गया. अगर कोई एक पेड़ काटे तो उसके बदले दो पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया.
लोगों को समझाया गया कि शिकायत करने से कोई फायदा नहीं है. जमीन और पानी को बचाये बिना जीवन सही तरीके से नहीं चल सकता है. यह काम सरकार नहीं कर सकती है, क्योंकि उसके काम में अनुशासन नहीं है. लोगों को बताया गया कि बोरवेल से पानी निकालने का भविष्य में क्या असर होगा.
पानी को बिना रिचार्ज किये हमें जरूरी पानी नहीं मिल सकता है. खेती के लिए अन्नसागर, फूलों के लिए फूलसागर और पशुओं के पीने के लिए देवसागर तालाब बनाये गये. आज इन गांवों के हैंडपैंप में भी पानी की कमी नहीं है. सरकार के वाटरशेड प्रोग्राम में इतनी सोच नहीं है. समाज और लोगों को ही पानी के बारे में सोचना होगा. लेकिन आज पानी राजनीतिक मुद्दा बन गया है.
गांवों में टैंकर से पानी पहुंचाये जा रहे हैं. पानी बचाने की बजाय फिजूलखर्ची हो रही है. देश में सूखे के हालात हैं, उससे निबटने के लिए समाज को अनुशासित होना होगा और प्रकृति के साथ जीने का तरीका सीखना होगा.
मौसम के मुताबिक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत
कोबी कोंडल
तेलंगाना के किसान
तेलंगाना में सूखे के कारण हालात बेहद खराब हैं. कम वर्षा के कारण खेती पहले ही तबाह हो चुकी है. सरकार किसानों को मदद के नाम पर महज घोषणाएं कर रही है. लगातार पड़ रहे सूखे से किसान परेशान हैं. देश की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना पोलावरम पर काफी समय से काम चल रहा है और अब तक करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं. इस योजना से आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा को फायदा होने की बात कही जा रही है, लेकिन समस्या सिर्फ सिंचाई की नहीं है.
तेलंगाना में किसानों ने नकदी फसल कपास की खेती बड़े पैमाने पर करनी शुरू की. कुछ साल तक किसानों को इससे काफी फायदा हुआ. इस फसल की उत्पादन लागत ज्यादा है और पानी की खपत भी अधिक है. लेकिन समय की बेरुखी और सूखे से बड़े पैमाने पर कपास की फसल बरबाद हुई और कर्ज के बोझ तले किसान आत्महत्या करने लगे. सरकार किसानों की आत्महत्या का सही आंकड़ा नहीं देती है.
आज बीजों पर कंपनियों का कब्जा हो गया है. मौसम के हिसाब से खेती नहीं करने का नुकसान किसानों को उठाना पड़ रहा है. अब लोग कृषि के पुराने तौर-तरीकों की ओर लौट रहे हैं. खेती पर कंपनियों के प्रभाव और सूखे से निबटने के लिए फसल चक्र के पुराने तौर तरीकों की ओर लौटे बिना सूखे और पानी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है. पानी बचाने के लिए बोरवेल के प्रयोग से बचते हुए हमें कुएं और तालाब की ओर लोगों को लौटना होगा.
परंपरागत तरीकों से बचेगा पानी का स्रोत
प्रवीण मिश्रा
गुजरात के किसान
वि कास को लेकर गुजरात मॉडल की चर्चा भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब हो रही है. लोकसभा चुनाव के दौरान इस मॉडल को देश के सामने बड़े पैमाने पर पेश करने की कोशिश की गयी. ऐसा बताया गया कि गुजरात में हालात अन्य राज्यों से काफी बेहतर हैं. लेकिन गुजरात मॉडल की हकीकत सत्य से परे है. गुजरात के कई गांवों में लोगों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है.
जब नर्मदा नदी पर बांध बनाया जा रहा था, तो बताया गया कि इससे गुजरात में पानी की समस्या हल हो जायेगी और लाखों एकड़ खेती की जमीन को पानी मिलेगा. इस बांध के निर्माण पर करोड़ों रुपये खर्च किये गये, लेकिन आज भी राज्य के हजारों गांवों के लोगों के पास पीने का पानी नहीं है. पानी की कमी के कारण किसानों की खेती बर्बाद हो गयी है. सरकार किसानों की बजाय बड़े पैमाने पर उद्योगपतियों को मुफ्त में पानी मुहैया करा रही है.
नर्मदा बांध से रिवर फ्रंट को पानी
लोकसभा चुनाव से पहले अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे ‘रिवर फ्रंट’ का निर्माण किया गया, ताकि लोगों को आकर्षित किया जा सके. प्रधानमंत्री मोदी जब भी अपने मेहमान के साथ अहमदाबाद आते हैं, तो यहां लेकर आते हैं. लेकिन इस खूबसूरती के पीछे की कहानी हैरान करने वाली है.
इस ‘रिवर फ्रंट’ में नर्मदा डैम से पानी को अपलिफ्ट किया जाता है और इस पर प्रति लीटर 11 रुपये का खर्च आता है. यह चौंकाने वाली बात है, क्योंकि एक ओर लाखों लोगों को पानी नहीं मिल रहा है, वहीं दूसरी ओर साबरमती रिवर फ्रंट में पानी दिखाने के लिए रोजाना करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं. इतना ही नहीं, पानी की मौजूदगी के लिए दोनों ओर के गेट को बंद कर दिया गया है.
इससे लाखों लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पा रहा है. नर्मदा परियोजना का लाभ आम लोगों को मिलने की बजाय इसका प्रयोग पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है. गांवों में पानी की कमी के कारण मवेशी मर रहे हैं, किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं और सरकार पानी का प्रयोग जनहित के बजाय खास लोगों को आकर्षित करने के लिए कर रही है. गुजरात के कई इलाके सूखे की चपेट में हैं.
आदिवासी इलाकों में लोगों को पानी नहीं मिल रहा है और सरकार योजनाओं के सहारे राहत पहुंचाने की बात कर रही है. गुजरात में आम लोगों की बजाय बड़े उद्योगपतियों को बड़े पैमाने पर पानी दिया जा रहा है. कई इलाकों में पानी के अत्यधिक दोहन के कारण पानी की गुणवत्ता खराब हो चुकी है. बिना परंपरागत तरीका अपनाये पानी के स्रोतों को सूखने से नहीं बचाया जा सकता है.
परंपरागत जल संचय की नीति अपनाना समय की मांग
अशोक सिन्हा
बुंदेलखंड के किसान
बुंदेलखंड में हालात सबसे खराब हैं. सूखे की समस्या की वजह हमारी ही गलतियां हैं. पिछले कई सालों से कम वर्षा होने के कारण खेत बंजर हो चुके हैं. बड़े पैमाने पर किसान काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इस इलाके में सिर्फ पेयजल का संकट ही नहीं, बल्कि चारे का भी संकट है. चारे के अभाव में मवेशी मर रहे हैं. इस क्षेत्र में पहले लाखों की संख्या में तालाब थे, लेकिन तालाबों और पानी के अन्य स्रोतों को धीरे-धीरे बरबाद कर दिया गया.
यह इलाका ऐतिहासिक रूप से सूखाग्रस्त रहा है, लेकिन पीने के पानी की कभी कमी नहीं रही. खेती को बढ़ावा देने के लिए बोरवेल के प्रयोग और वर्षा जल संचयन के तरीकों पर ध्यान नहीं देने के कारण हालात बदतर हो गये. सरकारों ने इस समस्या से निबटने के लिए करोड़ों रुपये के पैकेज की घोषणा की, लेकिन हालात सुधरने की बजाय और खराब होते गये. सूखे से निबटने के लिए सरकार को इस इलाके में सबसे पहले तालाब और पानी के अन्य स्राेतों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना होगा.
बारिश के पानी के संचयन की उचित व्यवस्था के बिना हालात नहीं सुधारे जा सकते. विकास के नाम पर जल स्राेतों पर अवैध निर्माण की नीति से बचना होगा. आज हालत यह है कि लोगों को पीने के पानी के लिए घंटों मशक्कत करनी होती है और इसका सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ रहा है.
प्रस्तुति : विनय तिवारी
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