-हरिवंश-
‘श्रीदर्शनम्’ या ‘योगेश्वर कृषि’ का मूलमंत्र-ध्येय लोगों के सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊपर उठाना है. आपस में एकता, सामूहिकता और आत्मीयता पैदा करना है.जिस एक गांव में ‘स्वाध्यायी’ लोगों की संख्या 60 फीसदी से अधिक हो जाती है, वहां ‘योगेश्वर कृषि’ का प्रयोग होता है. योगेश्वर खेती यानी योगेश्वर भगवान कृष्ण को अर्पित. गांव की डेढ़ या दो एकड़ जमीन में यह प्रयोग आकार लेता है. योगेश्वर की कृषि है, जहां न कोई मालिक है, न मजदूर इसलिए स्वाध्यायी श्रमभक्ति के लिए हमेशा उत्पर रहते हैं.
जब स्वाध्यायी यहां काम करने (श्रमभक्ति अर्पित करने) आते हैं, तो वे पुजारी कहलाते हैं. इसी तरह 16-20 गांवों में स्वाध्यायी बढ़ते हैं, तो ‘श्रीदर्शनम्’ का प्रयोग शुरू होता है. यह प्रयोग देखने के बाद गांधी का ‘ट्रस्टीशीप’ और विनोबा का ‘सर्वोदय’ वायवीय नहीं लगते. सवाल सिर्फ मन बदलने का है.
‘कनिपुर’ में ‘श्रीदर्शनम्’ के अतीत-नींव की चर्चा होती है. हेमराज भाई बताते हैं. उनका परिचय देते हैं, राजीव वोरा (जिनके निमंत्रण और सतत प्रयास से यह अध्ययन दल आया है). राजीव भाई के शब्दों में हेमराज भाई, दादाजी के ‘पंच प्यारों’ में से एक हैं. स्वाध्याय के बड़े भाइयों में. 20 वर्ष की उम्र से दादाजी के सानिध्य में आये. 17-19 लोगों की जो आंरभिक टीम बनी, उनमें से एक. ‘क्राफर्ड बेली’ के मालिक हैं. हर शनिवार-रविवार को मुंबई से निकल कर इस उम्र में भी सौराष्ट्र के स्वाध्यायी गांवों में काम करने जाते हैं. दूर देहात में. सुविधाओं से असुविधाओं के बीच. अपने बारे में कुछ भी बताने-कहने में संकोच करते हैं.
आग्रह के बाद बताते हैं. 1958 में पहली बार यहां ‘भक्तिफेरी’ शुरू की. दूसरे आम चुनाव के एक वर्ष बाद. तीन-चार मील पैदल चल कर आते हैं. लोग पूछते कि आप अगले चुनाव के लिए आये हैं. ‘नोट, वोट, लोट (आटा)’ की बात उठती. हम पेड़ के नीचे ठहरते. नदी से पानी लाते. ईट से चूल्हा बनाते. अपना खाना पकाते. फिर गांववाले कटु सवाल पूछते. तब न हमारे पास स्वाध्याय की कोई पत्रिका थी. न पुस्तक. हम सिर्फ अपने को स्वाध्यायी बताते.
गांववाले कहते कि आप जैसे . तू भगवान का लड़का है, वे भी हैं. उदाहरण देते कि जैसे बड़े मेले में मां के साथ मेला गये छोटे लड़के का हाथ छूट जाये, वह भीड़ में खो जाये. वही स्थिति है. क्या इन खोये हुए ‘भाइयों’ के प्रति कोई दायित्व नहीं है? वह याद करते हैं, 1954 से 1970 तक हम लगे रहे. अपना समय पैसा लगाते रहे, तब लोगों ने महसूस किया कि हमारे स्वार्थ नहीं हैं. पांच-छह साल बाद दो गांववाले तैयार हुए कि हम आपके साथ भक्तिफेरी में जा सकते हैं.
वे आये. खेसर (मिरजई) और पगड़ी पहने. सुबह चार बजे उठ कर भजन गाते. ऐसे लोगों के साथ कई रातें गुजारनी पड़ीं हमारी जीवन पद्धति अलग थी. ऐसे लोगों से हमने सीखा. लोक मापदंड पर जब हम खरे उतरे, तब लोगों ने हमें पहचाना. लोक परीक्षा में धैर्य और मान्यताओं के प्रति प्रतिबद्धता ही बल देते हैं.
‘श्रीदर्शनम्’ या ‘योगेश्वर कृषि’ के लिए पब्लिक चैरिटेबुल ट्रस्ट के माध्यम से जमीन लीज पर ली जाती या खरीदी जाती है. ‘योगेश्वर कृषि’ या ‘श्रीदर्शनम्’ की आय का एक तिहाई हिस्सा अलग किया जाता है. उन स्वाध्यायी भाइयों के लिए, जो गरीब हैं. उन्हें बगैर एहसास कराये ‘प्रसाद’ के रूप में मदद दी जाती है. यह काम गोपनीय ढंग से होता है. प्रसाद (मदद) पानेवाला कौन है, इसकी जानकारी पड़ोसी को भी नहीं होती स्वाध्याय दर्शन मानता है कि प्रसाद (मदद) स्वीकारते समय मदद पानेवाले लोगों में असहाय बोध या हीन भावना पैदा न हो. ‘प्रसाद’ किसे मिले, इसका फैसला गांव के पांच बड़े स्वाध्यायी भाई आपस में मिल कर करते हैं, जिसकी सूचना किसी को नहीं होती. उत्पाद का शेष दो-तिहाई एक कोष में जमा होता है.
इस कोष से जरूरतमंद को मदद दी जायेगी. इसके लिए लिखा-पढ़ी या कागजात तैयार नहीं किये जाते. कर्ज ली गयी राशि पर न तो किसी तरह का सूद देना पड़ता है और न वापसी का समय तय होता है. कोष से मदद लेनेवाले पर निर्भर है कि वह उस राशि को कब और कितना लौटाता है बगैर हीन बनाये या छोटा किये, मदद देने का यह दर्शन कितना गहरा है, यह ‘वित्त युग’ या ‘भौतिक युग’ का मानस शायद ही समझ पाये. दाता,दानी का रिश्ता नहीं सब कुछ ईमान और अंत:प्रेरणा पर इन प्रयोगों का असर मानवीय रिश्तों पर पड़ा है.
कनिपुर के राम भाई कहते हैं : ‘पूज्य दादाजी के विचार ने मेरे पारिवारिक जीवन को बदल दिया.’ राम भाई की पत्नी कद-काठी में काफी छोटी हैं. सामान्य भाषा में कहें तो कुरूप भी. राम भाई पत्नी को पसंद नहीं करते थे. हर समय झंझट. पारिवारिक कलह. पर स्वाध्यायी लोगों ने कहा कि क्या मैं अपनी मां को बदल या छोड़ सकता हूं. क्या मैं यह कह सकता हूं कि मेरी बहन से मेरा बहनापा नहीं है, जिस तरह मां मुझे मिली है, वह मेरी है. बहन मेरी सहोदर है, इसलिए वह मेरी है. उसी तरह जो पत्नी है और यह ईश्वर द्वारा तय है. फिर मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूं. राम भाई की पत्नी भी बैठी हैं. वह इन बातों का तसदीक करती हैं.
यह विचार-बोध ‘तलाक’ और ‘तनाव’ के दौर में लोग समझेंगे? सिर्फ राम भाई ही नहीं, अनेक स्वाध्यायी हैं, जो बेहिचक अपने जीवन में आये बदलावों का बखान करते हैं. मन-विचार बदलने का यह आंदोलन है. इसकी मूल धारा-मर्म यह है. प्रयोग तो माध्यम हैं.
सास-बहू, देवरानी-जेठानी के झगड़ों की चर्चा उठती है. मालती बेन खड़ी होती हैं. निर्भय हो बताती हैं: ‘पहले मेरी सास मुझे बहुत सताती थी. गाहे बगाहे मैं पीटी जाती थी.
पहले मैं सहती रही. बाद में मैं झगड़ने’लगी हाथपाई भी करती थी. पूरा गांव हमारे झगड़े का तमाशा देखता. पर जब हम स्वाध्याय की दुनिया में गये. त्रिकाल संख्या (एकादशी व्रत, श्रमभक्ति), शुरू किया, हमारे झगड़े स्वत:खत्म हो गये. मालती बेन की सास कानुबाई वहीं बैठी थीं. उन्होंने हंसते हुए यह सब स्वीकार किया. अनेक बहनें कहती हैं. इस प्रवाह से जुड़ते उनके सोचने-समझने पर फर्क पड़ा अब सास में मां रूप मिलता है. देवरानी-बहूरानी में बहनापा है. एक गांव की महिला कहती है. ‘इस आंदोलन से समझ में आया कि दिया हुआ प्रेम या दी हुई कृतज्ञता, जो नहीं लौटाता, वह मनुष्य नहीं है.’
राजीव भाई कहते हैं: ‘वे ऑफ लिविंग’ (रहने-जीने का तौर-तरीका), ‘वे ऑफ थिंकिंग’ (सोचने-समझने का तौर-तरीका), ‘वे ऑफ वरशिप’ (पूजा-पाठ) पर इस आंदोलन से जुड़ते ही फर्क पड़ता है.पहले मंदिर में हरिजन नहीं जाते थे. सात साल पहले कुएं से पानी नहीं भरने देते थे. अब ‘हरिजन’ स्वाध्यायी ‘पुजारी’ बन कर साथ रहते हैं. साथ कुएं पर पानी पीते हैं. पूजा करते हैं. रहन-सहन सबमें एका, कोई फर्क नहीं कर सकता कि कौन हरिजन है, कौन गैर हरिजन? जो काम भारत का संविधान, कानून, राजनीतिक दल, संसद, विधानमंडलों की गरमा-गरम बहस से नहीं हो सका, उसे चुपचाप स्वाध्याय ने साकार किया है.
एक जिज्ञासु पूछते हैं : ‘सिर्फ लड़कियां पैदा होने से, क्या स्वाध्यायी महिलाएं परेशान नहीं होतीं? एक अपढ़ औरत का जवाब सुन कर हम दंग रह जाते हैं,’ ‘अब दुख नहीं लगता कि बेटी हुई, तो घाटा हुआ. लड़का तो एक ही घर बसाता है, लड़की दो घर बसाती है. मां-बाप और ससुराल दोनों आबाद करती है. लड़की ठीक होती है, तो दामाद को बेटा बना देती है’.
एक स्वाध्यायी सुनाते हैं. औरंगाबाद से एक मुसलमान भाई स्वाध्याय फेरी में हमारे घर आये. तीन दिनों तक घर रहे. हम उनके यहां गये थे, तो सात दिन रहे. घर में भाई-भाई की तरह. हम कहीं से अलग नहीं लगते थे. तो एक स्वाध्यायी एक गांव के तबाह होने की चर्चा करते हैं. गुजरे मानसून में जम कर बरसात हुई. मिट्टी के घर गिर गये. सामान अब गया. आसपास के स्वाध्यायी निकल आये. लोगों के लिए खाना लाये सामान निकाला. बरबाद घरों को खड़े रहने का बोध.
लोगों की दीनता, लाचारी और हीनता को स्वाध्याय ने खत्म किया है. प्रशासन, राजनीति और आजादी के बाद की सरकारों ने, परनिर्भरता सिखाया. परनिर्भरता, परतंत्रता का रूप है. स्वाध्याय ने अंदर निहित ऊर्जा-ताकत को प्रज्जवलित किया. अब स्वाध्यायी, नेताओं या प्रशासन के सामने गिड़गिड़ाते नहीं पहले पंचायत चुनावों में एक गांव, दो गांवों में बदल जाता था. एक घर में अखाड़ा होता था. स्वाध्याय के बाद चुनाव नहीं, चयन होता है. स्वाध्याय से प्रेरित पंचों का काम बेहतर होता है.
स्वाध्याय का असर पड़ा, सफाई पर अद्भुत ढंग से घरों-जीवन में सफाई. बिना कहे स्वाध्याय के असर से लोगों ने शराब छोड़ी. पहले स्वाध्यायी गांवों में तकरीबन 25 फीसदी ऐसे लोग थे, जो खुद पैदा नहीं करते थे. अब सब खेतों में खटते हैं.एक अन्य स्वाध्यायी बताते हैं.सौराष्ट्र में कुआं रीचार्ज का काम स्वाध्याय ने किया. सौराष्ट्र विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के हेड खक्खर के अनुसार इससे इलाके की वार्षिक आय 390 करोड़ रूपये बढ़ी.
मेरे मन में पुराना द्वंद्व उभरता है. आर्थिक प्रगति के लिए, पहले मन बदलना जरूरी है. दर्शन या विचारों का आर्थिक प्रगति में बड़ी भूमिका है. पर आज विद्वान इसे नहीं मानते. हालांकि मानते हैं कि धनार्जन इसका मकसद नहीं है. अपराध व जातिगत झगड़े खत्म हुए हैं. त्रुटियों में बदलाव आया है. अब वे घरों की चहारदीवारी से निकल कर सार्वजनिक बैठकों में जाती हैं. चुनाव में दलाल पैसे लेकर स्वाध्यायी गांवों में वोट नहीं खरीदते. ये सारे परिवर्तन असाधारण हैं.दादा के एक उद्धृत वाक्य का अर्थ यह पूरा दृश्य देखने के बाद कुछ-कुछ समझने लगा हूं.
‘यह बौद्धिक लड़ाई है. वैचारिक लड़ाई है. हृदय-हृदय की लड़ाई है. प्रभु कार्य करना तथा नया इतिहास सर्जन करना आलसी, कायर और चमड़ी बचानेवालों का काम नहीं है. सच्चे शूरवीरों और भक्तों का काम है.