केरल के पुत्तिंगल देवी मंदिर में लगी आग का धुआं क़रीब 80 किलोमीटर दूर ननीयोड़े गांव में सन्नाटा पैदा कर रहा है.
दक्षिण केरल में पटाखे बनाने का गढ़ माने जाने वाले इस गांव के पटाखे बनाने वाली क़रीब सौ यूनिट बंद पड़ी हैं.
500 परिवारों वाले इस गांव की 60 फ़ीसदी आबादी पटाखे बनाती है, पर रविवार की आग के बाद से यहां यूनिट तो बंद हैं ही, पटाखे बनाने का मसाला भी ग़ायब कर दिया गया है.
यहां अपना यूनिट चलाने वाले नंद कुमार बताते हैं, ”कहीं भी पटाखों से जुड़ा कोई छोटा या बड़ा हादसा हो जाता है तो पुलिस हमारे गांव में आकर छापे मारती है और लोगों को ग़ैरज़मानती धाराओं के तहत गिरफ़्तार कर लेती है.”
नतीजा यह कि रविवार से यहां काम ठप है. नंद कुमार के लिए काम करनेवालों की रोज़ी भी बंद है.
खाली वर्कशॉप दिखाते हुए रामाचंद्रन कहते हैं, ”पटाखों का काम कुछ महीने ही रहता है, जिससे हम अपने पूरे साल की कमाई करते हैं, पर त्योहारों के इस वक़्त में हम बेरोज़गार हो गए हैं.”
ननीयोड़े गांव में 1970 के दशक में नंद कुमार के दादा समेत पांच लोगों ने तिरुवनंतपुरम के मास्टर पटाखे वालों से ये काम सीखा और यहां यूनिट लगाई.
यह वही दौर था जब मंदिरों में आतिशबाज़ी की प्रतियोगियाएं शुरू हुई थीं.
वैसे तो केरल में मंदिरों में आतिशबाज़ी की परंपरा सदियों पुरानी है लेकिन प्रतियोगियाओं से पैसा आया, मांग बढ़ी और ननीयोड़े गांव के कई लोग खेती, नारियल का काम छोड़ पटाखे बनाने लगे.
नंद कुमार कहते हैं, ”हमारे दादा ने पटाखों का काम इसलिए शुरू किया कि यह एक व्यापार ही नहीं, एक बारीक कला है और केरल में माना जाता है कि भगवान को पटाखे पसंद हैं.”
वैसे मंदिर और आतिशबाज़ी से जुड़ी यहां एक मान्यता यह भी है कि पटाखों के धुएं से वातावरण स्वच्छ होता है और लोगों की सांस से जुड़ी बीमारियां ठीक हो जाती हैं.
समय के साथ जब इस काम में पैसा आया तो बाप-दादा से सीखने के बजाय, कई लोग आधी-अधूरी जानकारी के साथ ही यह काम करने लगे.
ननीयोड़े की क़रीब 100 यूनिट्स में से नंद कुमार के यूनिट समेत सिर्फ़ 18 के पास ही पटाखे बनाने का लाइसेंस हैं.
लाइसेंस पाने के लिए ज़रूरी क़ायदों में किसी रिहाइश से 40-45 मीटर की दूरी और किसी भी वक़्त 15 किलो से ज़्यादा केमिकल न रखना शामिल है.
पुश्तैनी कला अब ग़ैरक़ानूनी यूनिट्स में ख़तरनाक तरीक़े से पटाखे बनाने में इस्तेमाल हो रही है.
पर पटाखों की यूनिटों में काम करने वाली बेबी ई. के लिए दशकों से यही रोज़ी-रोटी का सहारा रहा है.
इन यूनिटस में मसाला बनाने का काम ज़्यादातर महिलाएं ही करती हैं. हालांकि इस काम को पटाखे तैयार करने के काम से तुच्छ माना जाता है.
बेबी बताती हैं, ”शादी के कुछ ही समय बाद से मेरा पति बीमार रहने लगा. मैंने यही काम कर अपने बच्चों को बड़ा किया, शादी की, झोंपड़ी की जगह ये घर खड़ा किया.”
पर अब बेबी के बेटे दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर काम करते हैं. वो कहती हैं कि ये काम ख़तरे से भरा है और पुलिस का डर भी हमेशा बना रहता है.
नंद कुमार भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस व्यापार में आए. बस वजह दूसरी है.
वो कहते हैं, ”केरल में बेटियां ये बिज़नेस नहीं चलाती हैं. हां, अगर कोई लायक लड़का मिल जाए तो उसे मैं अपनी पुश्तैनी कला सिखाने को तैयार हूँ.”
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