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भारत-पाक आज़ादी के 70 साल और फ़िल्म ‘एक बार मिल तो लें’

वुसअतुल्लाह ख़ान पाकिस्तान से बीबीसी हिंदी के लिए 1965 के युद्ध का एक नुक़सान ये हुआ कि भारतीय फ़िल्में पाकिस्तान आना बंद हो गईं. फ़ायदा ये हुआ कि पाकिस्तान फ़िल्म इंडस्ट्री अपने पांव पर खड़ा होना सीख गई. और इतना सीख गई कि मुंबई के फ़िल्म मेकर पाकिस्तानी धुनें और लाहौर के फ़िल्म मेकर भारतीय […]

1965 के युद्ध का एक नुक़सान ये हुआ कि भारतीय फ़िल्में पाकिस्तान आना बंद हो गईं. फ़ायदा ये हुआ कि पाकिस्तान फ़िल्म इंडस्ट्री अपने पांव पर खड़ा होना सीख गई.

और इतना सीख गई कि मुंबई के फ़िल्म मेकर पाकिस्तानी धुनें और लाहौर के फ़िल्म मेकर भारतीय स्क्रिप्ट चुराने लगे.

मगर साठ और सत्तर का दशक वाक़ई में पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए गोल्डन पीरियड था. लेकिन जनरल ज़िया उल हक़ के आने से ये हुआ कि पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री को चादर ओढ़ा दी गई.

एंटरटेनमेंट टैक्स बढ़ा दिया गया. सेंसर बोर्ड को दाढ़ी उग आई. वीसीआर भारतीय फ़िल्मों के कैसेटों समेत ज़ब्त होने लगे और तमाशाई पुलिस के छापों से बचने के लिए दीवारें कूद-कूद कर टांगें तुड़वाने लगे.

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दूसरी तरफ़ राष्ट्रपति भवन में वीसीआर खुला चलता था. ज़िया साहब को शत्रुध्न सिन्हा काफ़ी पसंद थे. चुनांचे शत्रुध्न सिन्हा अपने परिवार के साथ ज़िया परिवार के मेहमान भी बनते रहे. हमें ना तो इस पर कोई आपत्ति थी और ना है.

इस बीच ये हुआ कि पाकिस्तान का बना रहबर वाटर कूलर और छोटी स्क्रीन पर पाकिस्तानी ड्रामा तो सीमा के आर-पार राज करता रहा पर पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री का जनाज़ा बढ़ा दिया गया.

और पाकिस्तानी सिनेमाघर कार्मिशयल प्लाजों और सुपर मार्केटों में तब्दील होते गए.

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2007 में परवेज़ मुशर्रफ़ साहब का भला हो क्योंकि उन्होंने पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री पर से एंटरटेनमेंट टैक्स कम कर दिया और भारतीय फ़िल्मों की नुमाइश की इजाज़त दे दी.

इसके बाद से पाकिस्तान में मॉर्डन फ़िल्म मेकिंग की कोंपलें फूटने लगीं. इंडिपेंडेंट फ़िल्म मेकर्स ने नए रास्ते, नए स्क्रिप्ट और नई टेक्नॉलॉजी के साथ घाटे और मुनाफ़े के चक्कर में पड़े बेग़ैर काम शुरू कर दिया.

पहली फ़िल्म ख़ुदा के लिए थी. जिसने एलान किया कि पाकिस्तानी सिनेमा दूसरा जन्म ले चुका है.

2007 में पाकिस्तान में छह मल्टीप्ल स्क्रीन थीं, आज 80 हैं. 2010 में तीन स्थानीय फ़िल्में रीलीज़ हुईं और इस साल 20 से ज़्यादा रीलीज़ हो रही हैं.

और जो रीलीज़ हुई हैं, उनमें दो-तीन तो ऐसी हैं जिसने लोकल मार्केट में भारतीय फ़िल्मों से ज़्यादा कमाई की है.

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पाकिस्तान का नया ड्रामा भारतीयों तक ज़िंदगी चैनल के ज़रिए पहुंच रहा है. अली जफ़र, फ़वाद ख़ान और मायरा ख़ान को ना तो दिल्ली में अपने परिचय की ज़रूरत है और ना ही लाहौर में इसकी आवश्यकता है.

एक अच्छी ख़बर ये है कि ज़ी एंटरटेनमेंट ग्रुप ने भारत और पाकिस्तान का 70वां स्वतंत्रता दिवस आने तक दोनों देशों के 12 फ़िल्म मेकरों को ज़ील फ़ॉर यूनिटी प्रोजेक्ट के तहत 12 फ़ीचर फ़िल्में बनाने की दावत दी है.

ये 12 फ़िल्में दोनों देशों के साथ-साथ बाक़ी दुनिया में आबाद भारतीयों और पाकिस्तानियों को भी देखने को मिलेंगी.

क्या आज़ादी की 70वीं सालगिरह पर इससे अच्छी भी कोई ख़बर हो सकती है? अब तो मेरा भी दिल चाहता है कि एक फ़िल्म बनाऊं जिसका नाम हो- ‘एक बार मिल तो ले’.

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