अक्कई पद्मशाली 11 साल की थीं, जब उनके पिता ने उनकी टांगों पर उबलता हुआ पानी डालकर उन्हें ‘ठीक’ करने की कोशिश की थी. तभी वो पहली बार ख़ुदक़ुशी करने के बारे में सोचने लगीं.
गले में फंदा डालकर वो पंखे से लटककर शायद अपनी जान ले ही लेतीं पर उनके भाई ने उन्हें बचा लिया.
उम्र का ये वो दौर था जब उनका शरीर आदमी जैसा दिखाई देने लगा था और मन में औरत जैसी भावनाएं जगह बना रही थीं. इस उथल-पुथल को समझने की जगह उन्हें सिर्फ़ परेशान किया गया.
12 साल की उम्र में चूहे मारने की दवा खाकर एक बार फिर अपनी जान लेने की कोशिश की. लेकिन फिर बचा ली गईं. लेकिन अब परिवारवालों ने उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
अपना बचपन याद करते हुए अक्कई बताती हैं, ”ट्रांसजेंडर लोगों के लिए भारत सरकार ने ‘ट्रांसजेंडर पर्सन्स विधेयक 2015’ बनाया तो बहुत उम्मीद जगी लेकिन नीयत अच्छी होने के बावजूद ये हक़ीक़त में ख़ास बदलाव नहीं लाएगा.”
विधेयक में कई सकारात्मक प्रावधान हैं, जैसे बच्चों को घर-परिवार से अलग नहीं किया जाएगा जब तक किसी अदालत ने ऐसा आदेश बच्चे की भलाई को देखते हुए न दिया हो.
स्कूलों में सब बच्चों के साथ ट्रांसजेंडर बच्चों को भी पढ़ाया जाए, भेदभाव ना किया जाए, फ़ीस माफ़ की जाए और रहने का भी बंदोबस्त किया जाए.
ट्रांसजेंडर लोगों के लिए ‘सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी’ मुफ़्त उप्लब्ध हो और उन्हें अन्य पिछड़ी जाति मानकर आरक्षण का फ़ायदा मिले.
पर अक्कई ध्यान दिलाती हैं कि ऐसा ना करने पर विधेयक में कोई सज़ा या जुर्माना नहीं तय किया गया है.
वो कहती हैं, ”समाज में ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति दुर्भावना है और बिना सज़ा या जुर्माने के डर के हर व्यक्ति की अपनी सोच ये तय करेगी कि अगर क़ानून बन जाए तो वो उसका पालन करें या ना करें.”
बचपन में ये सारी प्रताड़ना झेलने के बाद अक्कई की पढ़ाई छूट गई. उन्हें देह व्यापार करना पड़ा. अब वो एक समाजसेवी हैं. कर्नाटक सरकार ने उन्हें प्रदेश स्तरीय सम्मान से नवाज़ा है.
पर भीख़ मांगने, देह व्यापार और समाजसेवा के अलावा बहुत कम ही ऐसे काम हैं जिनके ज़रिए ट्रांसजेंडर लोग अपनी जीविका चला पाते हैं.
सविता की ज़िंदगी भी दसवीं की पढ़ाई छूट जाने के बाद बदल गई. चार साल तक पुणे में देह व्यापार करने के बाद वो मुंबई की एक स्वयंसेवी संस्था के संपर्क में आईं. उन्हें वहां काम मिला.
पढ़ाई पूरी ना होने की वजह से रोज़गार ना मिलना ट्रांसजेंडरों के लिए बड़ी समस्या है.
सविता कहती हैं, ”हमें रोज़गार के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण के अवसर मिलने चाहिए. निजी और सरकारी, सभी क्षेत्रों में एक या दो फ़ीसद नौकरियां ट्रांसजेंडर लोगों के लिए आरक्षित होनी चाहिए.”
ट्रांसजेंडरों के लिए सकारात्मक पहल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में ट्रांसजेंडर को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता दी थी.
इसके बाद कई प्रमाण पत्रों में पुलिंग, स्त्रीलिंग के साथ ट्रांसजेंडर की तीसरी श्रेणी बनाई गई.
इसके बाद दक्षिण भारत के कई राज्यों में ‘ट्रांसजेंडर पॉलिसी’ भी बनाई गई. पर अक्कई के मुताबिक़ कर्नाटक में ‘ट्रांसजेंडर पॉलिसी’ बनाए जाने के बावजूद उसपर कुछ ख़ास अमल नहीं हुआ है.
अक्कई कहती हैं, ”राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, नहीं तो राज्य स्तर पर शिक्षा के लिए, छोटा व्यापार बनाने के लिए अब कर्नाटक में नीति के मुताबिक़ पैसे उपलब्ध हैं, पर मिलते नहीं.”
पिछले साल डीएमके सांसद तिरुची शिवा ने एक निजी सदस्य विधेयक के ज़रिए पहली बार ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों के लिए विधेयक राज्यसभा में पेश किया जो ध्वनिमत से पारित भी हुआ.
इसके बाद ही सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इसमें सुधार कर ‘ट्रांसजेंडर पर्सन्स विधेयक 2015’ बनाया और अब उस पर आम लोगों से सुझाव मांगे गए. अलग-अलग संस्थाओं ने इसपर अपनी राय दी है.
कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु से ट्रांसजेंडर लोगों की संस्थाओं के समूह, ‘द साउथ इंडिया ट्रांसजेंडर समिति’, ने अपनी मांगों में शिक्षा, रोज़गार, ट्रांसजेंडर आयोग बनाने जैसी कई बातें कही हैं. इस समूह में अक्कई की संस्था भी शामिल है.
इन मांगों में इस बात को प्रमुखता से कहा गया है कि मंत्रालय ट्रांसजेंडर लोगों से और बातचीत कर उनकी दिक़्क़तों के बारे में समझ बढ़ाएं.
मसलन विधेयक के मौजूदा मसौदे में कोई व्यक्ति ट्रांसजेंडर है या नहीं इसका फ़ैसला राज्य स्तर या ज़िला स्तर की समिति को करने का अधिकार होगा.
पर ‘द साउथ इंडिया ट्रांसजेंडर समिति’ के मुताबिक़ ये प्रताड़ना का ज़रिया बन सकता है. कोई व्यक्ति ट्रांसजेंडर है उसका ये कह देना या ‘सेल्फ़-डेक्लरेशन’ ही काफ़ी होना चाहिए.
सारी बातों की जड़ में ट्रांसजेंडर समुदाय के बारे में समझ और संवेदना है. सरकार की नीति और विधेयक के ज़रिए इसे बढ़ाना सबसे ज़रूरी है.
सविता कहती हैं, ”जब हमारे स्कूल में लड़का-लड़की के शरीर के बारे में बताते हैं तो ट्रांसजेंडर के बारे में भी पढ़ाना चाहिए ताकि हम, जो उस उम्र में ख़ुद को ठीक से समझ नहीं पा रहे, हमें मदद मिले, हमारी काउंसलिंग हो और बाक़ी बच्चों को भी समझ में आए कि हम ‘नॉर्मल’ इंसान ही हैं.”
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