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आप ‘किराना’ खरीदते हैं या ‘ग्रॉसरी’?

सुशांत एस मोहन बीबीसी संवाददाता, मुंबई इस सदी के शुरुआती दशक तक लोग दिवाली या क्रिसमस पर अपने मनपसंद उत्पाद जैसे टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन पर अपने क़रीबी रिटेलर द्वारा दी जाने वाली ‘धमाका सेल’ या ‘बंपर छूट’ का इंतज़ार करते थे. लेकिन ‘स्नैपडील’, ‘एमेज़ॉन’ और ‘फ़िल्पकार्ट’ जैसी ई कॉमर्स वेबसाईट के आ जाने से […]

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इस सदी के शुरुआती दशक तक लोग दिवाली या क्रिसमस पर अपने मनपसंद उत्पाद जैसे टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन पर अपने क़रीबी रिटेलर द्वारा दी जाने वाली ‘धमाका सेल’ या ‘बंपर छूट’ का इंतज़ार करते थे.

लेकिन ‘स्नैपडील’, ‘एमेज़ॉन’ और ‘फ़िल्पकार्ट’ जैसी ई कॉमर्स वेबसाईट के आ जाने से अब हर दिन सेल लगने लगी है.

इंटरनेट ने सामान की ख़रीद फ़रोख़्त को इतना आसान और किफ़ायती बना दिया है कि अब बाज़ारों में भीड़ कम और इंटरनेट पर ट्रैफ़िक ज़्यादा होने लगा है.

लेकिन क्या वाकई में आने वाले साल में ऑनलाईन ख़रीददारी से बाज़ारों में सामान बेचने वाले दुकानदार हार जाएंगे?

विस्तार से पढ़िए

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भारत में पिछले 10 सालों में 1 लाख़ से ज़्यादा ऑनलाईन स्टार्ट अप शुरु हुए हैं और इनमें से अधिकांश किसी न किसी तरह की सेवा या वस्तु का विक्रय कर रहे हैं.

स्नैपडील, एमेजॉन और फ़िल्पकार्ट जैसे बड़े नामों को छोड़ भी दें तो भी ऑनलाइन सामान बेचने वाली अनगिनत वेबसाइट्स इंटरनेट यूजर्स के सामने हैं जहां आपको अपनी हर ज़रुरत का हर सामान मिल सकता है.

आपके माउस के एक क्लिक पर आपके अंडरगार्मेंटस से लेकर आपकी गाड़ी तक आपके घर के सामने खड़ी हो सकती है और यह सब संभव हुआ है इंटरनेट के बाज़ारीकरण से.

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स्नैपडील में काम करने वाले गौरव बताते हैं, "इंटरनेट पर सामान बेचने से एक विक्रेता को न शोरुम की ज़रुरत होती है न किसी सेल्समेन की, बस उत्पाद की तस्वीर और उसकी क़ीमत से काम चल जाता है. ऐसे में विक्रेता का जो बिजली – किराए का खर्चा बचता है उसे वह ग्राहक को डिस्काउंट के रुप में देता है और इसलिए इंटरनेट शॉपिंग आज सबसे लोकप्रिय माध्यम है."

लेकिन इस ‘ई कॉमर्स’ के खेल में जहां ग्राहक और ऑनलाइन विक्रेता की चांदी है वहीं घाटे में जा रहे रिटेल ग्राहक इसे बाज़ारों का अंत मानते हैं.

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बीते साल पूरी तरह से अपने इलेक्ट्रॉनिक गुडस् के बाज़ार को समेट चुके ‘ई ज़ोन’ के प्रकाश भंडारी कहते हैं, "हम पहले ही क्रोमा और विजय सेल्स जैसे पुराने ब्रांड्स से जूझ रहे थे और फिर ऑनलाइन साईट्स ने भारी डिस्काउंट्स देकर हमारी कमर तोड़ दी."

वो बताते हैं, "ग्राहक टीवी या फ़्रिज का मॉडल देखने आते और फिर दाम सुन कर पूछते हैं, ऑनलाइन तो यह इतने का मिलता है, आपके पास इतना महंगा क्यों ?"

यही क़िस्सा अंबिका जनरल स्टोर के मालिक राम बिधूड़ी भी सुनाते हैं, "हमने भी अब फ़ोन पर ऑर्डर लेने शुरु कर दिए हैं लेकिन सामान पर इतना डिस्काउंट कैसे दे पाएंगे, दुकान का किराया भी तो निकालना है."

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लेकिन ई कॉमर्स से प्रभावित होने वाले सिर्फ़ इलेक्ट्रॉनिक या किराना दुकाने ही नहीं है, हाल ही में मुंबई के ऐतिहासिक म्यूज़िक स्टोर ‘रिदम हाउस’ के बंद होने का कारण भी ऑनलाइन स्टोर से प्रतिद्वंद्विता थी.

इस स्टोर के मालिक महमूद कर्माली ने बीबीसी से कहा, "कुछ पुराने ग्राहकों को छोड़ दें तो अब लोग संगीत ख़रीदने नहीं आते और इसलिए हम भी रिदम हाउस को ऑनलाइन करने वाले हैं."

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रिदम हाउस का जाना संगीत प्रेमियों के लिए एक युग का अंत है और हरिप्रसाद चौरसिया से लेकर शंकर महादेवन तक ने इस स्टोर के बंद होने को ऑनलाइन शॉपिंग का अभिशाप माना था लेकिन बाज़ार बहुत बेदर्द होते हैं और ग्राहक बहुत स्वार्थी और यहां भावनाओं से काम नहीं चलता मामला सुविधा और डिस्काउंट से जुड़ा है.

वॉक इन बॉक्स, मिंत्रा और हाल ही में घर पर कच्ची सब्ज़ियां भेजने वाली ‘आई शेफ़ डॉट कॉम’ शुरू करने वाले चिराग कहते हैं, "ऑनलाइन बाज़ार भविष्य हैं और इसे नकारा नहीं जा सकता."

वो आगे कहते हैं, "लोगों के पास समय कम है और वो हर चीज़ घर पर डिलीवर करवाना चाहते हैं और यहीं ऑनलाइन बाज़ार बाज़ी मार ले जाते हैं. आप सुबह 6 बजे ऑर्डर दें या रात 2 बजे आपको आपको सामान आपके बताए समय पर मिल जाएगा."

स्नैपडील के काम करने वाले गौरव भारद्वाज भी कहते हैं, "आप भावुक होकर सोचेंगे तो आपको बहुत दुखद हालात दिखाई देंगे लेकिन असलियत कुछ और है."

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गौरव बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि दुकानदार आपको भारी छूट नहीं दे सकते लेकिन वो अपना मार्जिन कम करने को तैयार नहीं हैं, वहीं ई कॉमर्स वेबसाईट पांच प्रतिशत के मुनाफ़े पर भी सामान बेचने को तैयार हैं."

अपने काम पर थोड़ी और रोशनी डालते हुए वो बताते हैं, "हमारे साथ सामान की सप्लाई करने के लिए असल दुकानदार ही जुड़ते हैं और वो एक बड़े ग्राहक बाज़ार (ऑनलाइन) में कूदने के लिए हमारे साथ टाई अप कर लेते हैं और जो सामान आप दुकान पर मोलभाव कर 100 रुपए में खरीदेंगे उसे वो ऑनलाइन 80 रुपए में उपलब्ध करवा देते हैं."

इन दलीलों को देखकर ऑनलाइन शॉपिंग मुनाफ़े का सौदा लगता है लेकिन ऑनलाइन ख़रीददारी के अपने नुक़सान भी हैं, जैसे अक्सर ऑनलाइन ख़रीददारी में आनेवाले सामान की क्वालिटी की शिक़ायत की जाती है.

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इसके अलावा ब्रांडेड वस्तु के बदले उस ब्रांड की नकल वाला सामान भेजने के भी कई मामले सामने आए हैं ऐसे में उन ग्राहकों की भी कमी नहीं है जो अपने सामने चीज़ को ठोक बजा कर ख़रीदना पसंद करते हैं और ऑनलाइन बाज़ारों पर भरोसा नहीं करते.

हाल ही में ‘आस्क मी बाज़ार’ के द्वारा दिए गए कुछ ख़राब उत्पादों को कारण इस वेबसाइट का प्रमोशन करने वाले अभिनेता फ़रहान अख़्तर भी निशाने पर आए थे और उन्होंने माना था कि ख़रीददारी से पहले चीज़ को परख़ना सही बात है.

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फ़रहान ने बीबीसी से कहा था, "हम विज्ञापन करते हैं लेकिन सर्विस देना और उत्पादों की गारंटी देना कंपनी का काम है और ऐसे में सिर्फ़ सिलेब्रिटी के कह देने भर से किसी चीज़ को आंका नहीं जाना चाहिए आप उसे ख़ुद भी एक बार परख़ लें तो बेहतर."

सिक्के के इस पहलू को देखें तो बाज़ारों का पलड़ा ऑनलाइन शॉपिंग पर भारी पड़ता नज़र आता है.

ऐसे में यह कहना आसान नहीं है कि ‘ऑनलाइन’ या ‘रियल’ शॉपिंग में क्या ज़्यादा बेहतर है लेकिन यह तय है कि आने वाले साल में भारत में इंटरनेट यूज़र्स की तेज़ी से बढ़ती संख्या के साथ ऑनलाइन बाज़ारों का विस्तार भी अवश्य होगा.

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लेकिन विशेषज्ञ, सिलेब्रिटी और दुकानदार एक सुर में मानते हैं कि बाज़ारों का अस्तित्व मिट जाएगा ये मुमक़िन नहीं है और इसका एक अच्छा उदाहरण मुंबई के बांद्रा इलाके में चाय की दुकान चलाने वाले सुरेश मेहसाणा अपने शब्दों में कुछ यूं देते हैं, "साब जी, कितना ही कंप्यूटर लगा लो, गरम और ताज़ी चाय पीने तो लोग दुकान पर ही आओगे न वर्ना मशीन तो आपके ऑफ़िस में भी होगी ?"

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