प्यार की जंग मुसलमान मर्द और हिंदू औरत लड़े या हिंदू मर्द और मुसलमान औरत, ‘लव जिहाद’ के साए में सभी का जीना मुहाल है.
बीबीसी की विशेष श्रृंखला की आखिरी कड़ी में पढ़ें, एक ऐसे प्रेमी जोड़े की कहानी जो शादी के सात साल बाद भी अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करना चाहते-
जब मोहब्बत हो गई, तो पूरा अहसास था कि क्या करने जा रहे हैं. मन में बहुत डर था, हम जानते थे कि हमारे जैसे छोटे शहर में ऐसे रिश्ते आम नहीं होते.
मैं हिंदू ब्राह्मण और मेरी होने वाली पत्नी मुसलमान. रिश्ता तो दोनों परिवारों को पसंद नहीं था, पर उनके परिवार की नाराज़गी अलग दर्जे की थी.
दोनों लोगों को जान का ख़तरा था. भविष्य एकदम अनिश्चितित था. आगे क्या होगा, कुछ पता नहीं था.
हमने चुपके से स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत कोर्ट मैरिज की और फिर अपने परिवार को बताया. मजबूरी में उन्होंने हमें क़बूल लिया पर हिंदू रीति-रिवाज़ से हुई शादी के बग़ैर साथ रहने की इजाज़त नहीं दी.
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हमारे शहर से बाहर एक जगह मंदिर में घर के कुछ लोगों के सामने शादी करवाई गई. मेरी पत्नी के घर वालों को इसकी ख़बर तक नहीं थी.
बस उसके बाद हमने अपना शहर छोड़ दिया. वहां ख़तरा ही इतना था और दिल्ली के लिए निकल पड़े.
जब ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर रुकी सुबह पांच बजे, तो मुझे प्लेटफॉर्म पर उतरते हुए जितना डर लगा उतना ज़िंदगी में कभी नहीं लगा.
पता नहीं स्टेशन पर कौन लोग होंगे, हमारे साथ क्या होगा, पूरे रास्ते डरते आए. वह जो साहस तब कर लिए वह आज नहीं कर पाएंगे. जितनी ताक़त तब बटोर ली थी, अब उस साहस में कमी आ गई है.
गुज़रे सात साल में व्यावहारिकता भी आई है और माहौल भी बदला है. जब आप ज़िंदगी जीते हैं तो कई कठिनाइयां होती हैं, हमारे क़दम के कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं वो गहराई से समझ में आता है.
हमारी जान तो नहीं गई, जान चली जाए तो एक मिनट में चली जाती है, पर घर वालों की जान पर लगातार बना ख़तरा या उनके घर लोगों का आना-जाना बंद होना, बातचीत ख़त्म होना, इस सबका सामना बहुत मुश्किल होता है.
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मैं तो इकलौता बेटा हूं, पर मेरी पत्नी के पांच भाई-बहन हैं. वो सबसे बड़ी हैं और उनकी शादी सबसे पहले हुई. अब क्योंकि उन्होंने भागकर शादी की, तो उनकी बहन की शादी में बहुत दिक़्क़त आई.
हमारा अनुभव तो यह है कि लोग चाहे ख़ुद को कितना ही धर्मनिरपेक्ष बताएं और आपसे राजनीतिक बयानों पर बुद्धिजीवियों की तरह बात करें, सामाजिक परिपेक्ष्य में वो कोई बदलाव नहीं चाहते.
जो जैसा चल रहा है, उसे बदलने या उस पर सवाल उठाने में उनकी कोई रुचि नहीं होती.
शादी के बाद मैंने ख़तरा उठाकर अपनी पत्नी की मां को संपर्क किया और कहा कि आप चाहें तो आप भी निकाह पढ़वा लें और अपने बेटी को रीति रिवाज़ के मुताबिक रुख़सत कर दें.
पर उन्होंने कहा कि धर्मांतरण के बगैर तो ये मुमकिन नहीं है. यानी उनकी चाहत थी कि मैं मुसलमान बन जाऊं.
पर हमारा दृष्टिकोण हमेशा अलग रहा है. हमने धर्म को हमेशा अलग रखा. शादी के बाद मेरी पत्नी का नाम भी नहीं बदला गया.
हालांकि मेरी पत्नी के लिए यह पूरा दौर काफ़ी मुश्किल भरा रहा. वह बस एक आदमी यानी मेरे भरोसे अपना पूरा परिवार छोड़ आईं. फिर मेरे परिवार के रीति रिवाज़ों को न चाहते हुए भी कुछ हद तक अपनाया.
मेरे परिवार ने उन्हें बहू के रूप में स्वीकारा पर इनके परिवार से पांच साल तक कोई बातचीत नहीं हुई. इन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की, तब भी कोई संपर्क नहीं हुआ. उनके घर वाले खुश थे, पर बात नहीं की.
यहां तक कि वह अपने पिता के आख़िरी वक़्त में उनसे मिल भी नहीं पाईं. शादी के लिए घर से निकलीं तब उन्हें देखा था. उसके बाद तो उनकी मौत के बाद उनकी लाश ही देख पाईं.
उनके पिता की दो साल पहले मौत हो गई. बस तभी ये पांच साल की चुप्पी टूटी और मेरी पत्नी अपने घर गईं.
अब कभी-कभार मां से बात कर लेती हैं. मां का रुख इतना नर्म हुआ है कि वह मर्ज़ी से शादी करने को सही मानने लगी हैं, पर मेरे धर्म परिवर्तन की बात अब भी नहीं छोड़तीं.
हम ख़ुशनसीब थे कि मेरे ख़िलाफ़ अपहरण का झूठा मुक़दमा नहीं किया गया. मुझे जेल नहीं जाना पड़ा. मारपीट नहीं हुई जैसा अक़्सर ऐसे मामलों में होता है.
बल्कि मेरे परिवार ने मेरा और मेरी पत्नी का ख़र्च उठाया. दिल्ली में जब हम आए थे, बेरोज़गार थे और पढ़ाई की चाहत को इसी मदद से पूरा कर पाए.
पर यह पूरा दौर बहुत तनाव से भरा रहा. कभी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में तो कभी त्योहारों में मेरे घर वालों को अब भी कई बार मेरी पत्नी के बर्ताव से परेशानी हो जाती है. शिकायत भरे लहज़े में ऐसी बातें कही जाती हैं.
आप बड़े शहर में हैं तो अपनी पसंद से जी सकते हैं, पर अगर अपने समाज में, थोड़े ग्रामीण परिवेश में रहना पड़े, तो छोटी-छोटी बात पर दुर्भाव हो जाता है.
दिल्ली में सिविल सेवा की तैयारी करते समय मेरी पत्नी अक़्सर कहती थीं कि अगर परीक्षा नहीं पास कर पाईं तो क्या होगा जीवन में.
जब परीक्षा पास की, तब चीज़ें कुछ हद तक बदलीं. हमें ज़्यादा सम्मान दिया जाने लगा और समाज में हमारे फ़ैसले को भी कुछ हद तक ठीक माना जाने लगा.
इतने उतार-चढ़ाव झेलने के बाद हम और मज़बूत हुए हैं. कभी-कभी लगता है कि शायद हम एक दूसरे के लिए ही बने हैं.
और यह विश्वास भी पुख़्ता होता है कि समाज को अंदर से झकझोरने और कुछ मूल बदलाव लाने की क्षमता अंतर-धर्म और अंतर्जातीय शादियों में ही है.
(बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य से बातचीत पर आधारित – पहचान गुप्त रखी गई है.)
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