-हरिवंश-
पिछले दिनों, लगभग तीन सप्ताह पहले, बाहर से एक मित्र का फोन आया कि किसी वेबसाइट पर यह खबर आनेवाली है कि प्रभात खबर से आप विदा हो रहे हैं. ऐसी बहुत सारी चीजें चलती रहती हैं. न मैं ऐसी चीजों पर गौर करता हूं और न ही ऐसी चीजों के बारे में चर्चा. न मुझे किसी को यह सफाई देनी है, न पक्ष रखना है. मैं मानता हूं कि मेरे प्रभात खबर के साथियों को भी पता है कि हमें क्या करना है? और किस रास्ते जाना है? मैं पुन: अपने साथियों से कहना चाहूंगा कि प्रभात खबर का भविष्य छोटी-छोटी चीजों से तय होगा. ये छोटी-छोटी चीजें हमारे हद-पहुंच में हैं. आज भी देखता हूं, दफ्तर में कहीं कोई मौजूद नहीं है, पर पूरी बिजली जल रही है.
कहीं कुरसी का पांव टूटा है और वह महीनों से वहीं पड़ी है. कोई ठीक करानेवाला नहीं. यानी छोटी चीजें भी आप उम्मीद रखते हैं कि वरिष्ठ लोग आ कर करेंगे. हमारा कोई फर्ज नहीं है. किसी खास जगह पान की पीक या गुटखा वगैरह के पैकेट पड़े रहते हैं. इस्तेमाल के बाद बाथरूम साफ नहीं किया जाता. ऐसी अनेक चीजें हैं. इन चीजों को देख कर लगता है कि हमारे मानस में है कि साफ रखने का काम कोई बाहर से आ कर करेगा. या साफ जगह को गंदा करना हमारा संवैधानिक हक है. जीवन में इन छोटी-छोटी चीजों के प्रति अगर हम और आप सजग होंगे, तो स्वभावत: अपने काम में भी हम इसी एप्रोच को अपनायेंगे. इसलिए स्पष्ट रहिए. हम ठीक होंगे, हमारी कार्यसंस्कृति बेहतर होगी. हमारा मानस पॉजिटिव होगा, तो अखबार भी ठीक होगा.
संपादन एक कला है और पत्रकारिता बौद्धिक काम
बाहर में प्रभात खबर के बारे में धारणा है कि काम न करते हुए भी आप समय काट सकते हैं. इसका एक कारण है कि शुरू से हम सब ने मिल कर यह कोशिश की है कि यहां एक मित्रवत माहौल रहे. ऑफिस का आतंक नहीं. संपादन काम एक कला है. पत्रकारिता बौद्धिक काम है. यहां डिस्कशन-डिबेट का माहौल होना चाहिए. अपशब्द, गाली-गलौज, मानसिक दबाव या टेंशन का माहौल नहीं. हमारी अपनी आचार-संहिता है. शराब पीकर कोई दफ्तर आये, स्वीकार्य नहीं है. किसी से गलत आचरण मान्य नहीं है. वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों का सम्मान हमारी शिष्टता है. इसलिए हम एक बेहतर, स्वअनुशासित और बौद्धिक माहौल चाहते हैं, क्योंकि हम परिवार के मुकाबले, आपस में, दफ्तर में ज्यादा समय साथ गुजारते-बिताते हैं. जब जीवन का बड़ा हिस्सा साथ गुजारते हैं, तो बेहतर और सुखद माहौल में रहें, तनाव में नहीं. यह माहौल सोच-समझ कर हम सब ने बनाने की कोशिश की है, पर आज की दुनिया में और इस प्रतिस्पर्धा में अब आपको ध्यान रखना होगा कि हर जिम्मेदार आदमी खुद निर्णायक हो.
जबावदेह बने, क्योंकि अब कोई बैठ कर, बोझ बन कर चलेगा, तो संस्था का भविष्य नहीं रहेगा. यह सरकारी कार्यालय नहीं है. न चैरिटी संस्थान है. हर आदमी पहले खुद से पूछे कि वह कंपनी से जितना ले रहा है, उससे कई गुना रिटर्न अपने बेहतर काम के रूप में कंपनी को दे रहा है? हमारे लिए यही मानक और कसौटी है. जैसे हम घर चलाते हैं, वैसे ही जहां से रोजी-रोटी चलती है, उसके बारे में सोचें, तो किसी भी स्पर्धा में हम टिके रहेंगे. समय की चुनौतियों के अनुसार हम बदलते रहें. अगर यह सकारात्मक मानस प्रभात खबर की टीम में रहा, तो हम किसी से भी मुकाबला कर सकते हैं. स्पर्धा चुनौतीपूर्ण है. तीन बड़े घरानों के खिलाफ. ऐसी स्पर्धा के बारे में वर्ष 1991 से ही मैं अपने साथियों-सहकर्मियों से कहता रहा हूं. साफ-साफ. बेबाक तरीके से. तब भी आधा दर्जन स्थापित व पुराने अखबारों से मुकाबला था.
कभी किसी को रोका नहीं
हर साल होनेवाली प्रभात खबर की ऐसी सार्वजनिक बैठक में मैं अपनी प्रिय पुस्तक समरगाथा (अनुवाद-अमृत राय) के अंश सुनाता था. उस पुस्तक का एक अंश जो बार-बार आपको सुनाया है, यह है. अगर आपका घर अब तक खड़ा है, तो आप वापस उसमें चले जाइए. मैं सिर्फ ऐसे लोगों को अपने साथ लेना चाहता हूं, जिनके पास गंवाने के लिए अपनी जंजीरों को छोड़ कर दूसरा कुछ नहीं है. अगर आपके पास अशर्फियों का ढेर है, तो जाइए उसे संभाल कर रखिए, हमारे साथ मत आइए. अगर आप अपनी आजादी से ज्यादा अपने बच्चों को प्यार करते हैं, तो चले जाइए और कोई इसके लिए आप पर उंगली नहीं उठा सकेगा और अगर आपकी मंगनी हो गयी है, तो आप अपनी मंगेतर के पास चले जाइए-क्योंकि हमारी मंगेतर तो आजादी है, लेकिन अगर आप लोगों के बीच एक आदमी भी ऐसा है, बस एक, जो आजादी के लिए अपनी जान दे सकता है – और देखिए, पक्की बात है, मैं जो कुछ करने जा रहा हूं, उसमें मौत के सिवा कुछ नहीं है – तो वह आदमी इसके बाद मेरे तंबू में आकर मुझसे मिले.
मुझे एक आदमी की जरूरत है, सिर्फ एक आदमी की. बार-बार प्राय: तीन-चार बैठकों में पुस्तक का यह अंश सुनाने के पीछे मकसद रहा है. साथियों-सहकर्मियों को बताना कि हम विपरीत परिस्थितियों में कार्यरत हैं. इस कारण गिनती के कुछेक लोगों को छोड़ कर कभी किसी को रोका नहीं, कोई कल जाने की बात करता था, मेरा जवाब होता कि आज और अभी जाना बेहतर है, क्योंकि एक बार अलगाव का मानस बन जाने के बाद आप भावनात्मक रूप से यहां नहीं होंगे. इसलिए तत्काल अलग होना ज्यादा बेहतर है. आपसी व्यवहार में बिलकुल स्पष्टता और साफगोई जीवन में अनिवार्य मानता रहा हूं. इन पर अमल भी करता रहा हूं.
लोगों को न छोड़ें , भले ही लोग छोड़ दें
प्रभात खबर में जब चुनौतियों के दिन शीर्ष पर थे, तो हर बार प्रभात खबर की सामूहिक बैठक होती थी, उसमें साफ-साफ कहता था कि जिन्हें सुरक्षित भविष्य चाहिए, अच्छा पैसा चाहिए, वे वैकल्पिक रास्ता तलाश सकते हैं, क्योंकि यहां भविष्य अनिश्चित है. संघर्ष है. परिस्थितियां विपरीत हैं. जिनके पास दूसरे अखबारों से प्रस्ताव आते थे, उनमें से आरंभिक दौर में जानेवाले कुछेक को छोड़ कर सब मिले थे. अपनी आर्थिक विवशता बताते. मै उन्हें जाने को प्रोत्साहित करता. कहता था कि आप कम पैसे पर अगर यहां काम करेंगे या निश्चित भविष्य छोड़ कर अनिश्चित भविष्य में हमारे साथ रहेंगे और अगर यह अखबार नहीं चला, तो मेरे ऊपर आपका मानसिक-नैतिक बोझ होगा. मेरी अंतरात्मा मुझे परेशान करेगी. इसलिए आप अवसर न छोड़ें. पर जो जोखिम चाहते हैं, कुछ करना चाहते हैं, वे रहें. यह भी साथियों से अनुरोध करता था.
लोग बाहरी आकर्षण छोड़ कर रहे भी. उम्मीद से अधिक लोग साथ आये और कारवां बनता गया. आज सैकड़ों लोग हैं, जो आकर्षक प्रस्ताव ठुकरा कर यहां कार्यरत हैं. समरगाथा पुस्तक के अंश बांच कर यह भी कहता था कि जो आत्मगौरव चाहते हैं, कुछ करने का आत्मसंतोष चाहते हैं, ऐसे लोगों का साथ चाहिए. कभी किसी साथी को भ्रम में नहीं रखा. किसी को बढ़ा-चढ़ा कर सुरक्षित भविष्य बता कर नहीं बरगलाया. बुलाने के पहले पैकेज कुछ और कहा और आने पर हाथ में कुछ और मिला, प्रभात खबर में यह नहीं हुआ. अभाव में, संघर्ष में, अनिश्चितता में चलनेवाले साथियों को जरूर न्योता. आज फख्र के साथ हम सब कह सकते हैं कि मामूली पदों से लेकर बड़े पदों पर बैठे अनेक ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अभाव, संघर्ष और अनिश्चितता की राह चुनी. मुझे जब-जब बड़ा न्योता मिला, सबसे पहले मेरे मस्तिष्क में यही चेहरे उभरे. उन्हें हम क्या मुंह दिखायेंगे? लोकलाज और नैतिक भय. यह बोध भी कि भले कोई हमें धोखा दे, पर हम अपनी ओर से कुछ भी ऐसा न करें. एक जगह से यह भी प्रस्ताव था कि जितने लोगों को साथ ला सकते हैं, लाइए. पर हमारा मकसद अलग था. हम लोगों को न छोड़ें, भले ही लोग छोड़ें. यही जीवन का सुंदर पक्ष है. हम दूसरे की राह कैसे बदल सकते हैं? पर अपनी राह तो चुन ही सकते हैं.
पत्रकारिता का फोकस सामान्य आदमी
एक और संदर्भ में वर्ष 2010 हमारे लिए बड़ा लेशन (सबक) है. वर्ष 2010 में राडिया प्रकरण ने दिखा दिया कि पत्रकारिता कहां पहुंच गयी है? पतन में भी सबसे आगे. पर इस प्रकरण में अंगरेजी के महारथी पत्रकारों, बड़े अखबार, संस्थानों और मीडिया हाउसों की चर्चा तो हो ही रही है. पर हिंदी के जो दिग्गज घराने इसमें शरीक हैं, वे चर्चा केंद्र से बाहर हैं. दरअसल, यह रातोंरात नहीं हुआ है. इसकी शुरुआत भी वर्ष 90-91 में ही हो गयी. प्रभात खबर के पुनर्जन्म के दिन (वर्ष 1990) पहला संपादकीय लिखा था धारा के विरुद्ध. अपनी भविष्य की पत्रकारिता का स्वरूप और रूपरेखा रेखांकित करते हुए. इसमें साफ था कि हम गवर्नेंस की बात करेंगे, भ्रष्टाचार की बात करेंगे, बीमारू हिंदी पट्टी के गंभीर सवाल हमारे विषय होंगे, आदिवासी, पिछड़े, अशिक्षा के सवालों पर गहराई से विचार करेंगे. पत्रकारिता का फोकस विशिष्ट जन से उठा कर सामान्य आदमी को बनायेंगे. अपने बूते लकीर खींचनेवाले संघर्षशील नायकों को सामने लायेंगे. समाज में हो रही अच्छी चीजों-बदलावों को फोकस करेंगे.
लाइफस्टाइल की पत्रकारिता
उन्हीं दिनों देश की पत्रकारिता में बड़ा बदलाव आया. लाइफस्टाइल की पत्रकारिता की शुरुआत. माना गया कि अखबारों का काम सूचना देना और इंटरटेन करना भर है. अंगरेजी अखबारों में धारावाहिक बहस चली कि पत्रकारिता में पेज थ्री की संस्कृति कैसे जायज है? पेज थ्री एक मुहावरा बन गया था, जिसके तहत लाइफस्टाइल, उपभोक्तावादी जीवन, फैशन, अपमार्केट की चीजें छापना ही अखबारनवीसी माना गया. इसी पेज थ्री की पत्रकारिता का क्लाइमेक्स है राडिया प्रकरण. पत्रकारिता के पतन की यह शैली भी 1991 से शुरू हुई. आर्थिक उदारीकरण के साथ. यह फिसलन 2010 में शिखर पर है. सबके सामने है. सार्वजनिक है. क्या पार्टियों की खबरें-तसवीरें पैसे देकर बड़े अखबारों में छपवाने की शुरुआत 1992-93 से नहीं हुई?
हिंदी-अंगरेजी के बड़े अखबारों द्वारा निजी प्राइवेट कंपनियों के शेयर-स्टेक लेकर उन्हें खबरों के रूप में प्रमोट करने का काम बहुत पहले शुरू नहीं किया? इसके बाद शुरू हुआ चुनावों में पेड न्यूज का सिलसिला? कौन नहीं जानता, पेड न्यूज का सिलसिला 1995 के आस-पास हुए मध्यप्रदेश के चुनावों से शुरू हुआ. फिर मध्यप्रदेश के अगले चुनाव, राजस्थान के चुनावों में यह फला-फूला. अखबारवाले खूब संपन्न हुए. हरियाणा, पंजाब के चुनावों में पहुंच कर, यह एक नये दौर में पहुंच गया. करोड़ों-करोड़ के खेल में. फिर दिल्ली में हुए चुनावों में यह परवान चढ़ा. उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में इसकी धूम मची. शरद यादव ने प्रेस-कॉन्फ्रेंस कर इस मामले को सार्वजनिक किया. शायद प्रेस काउंसिल में शिकायत भी की थी. पर 2009 के लोकसभा चुनावों में जब यह बिहार और झारखंड पहुंचा, तो ही यह राष्ट्रीय मुद्दा बना. यह उल्लेखनीय तथ्य है. झारखंड और बिहार के अखबार चाहे जितने भी गलत हों, पर जो धंधा 1991 और 1995 के बाद पूरे देश में फल-फूल रहा था. उफान पर था, वह राष्ट्रीय मुद्दा तभी बना, जब बिहार और झारखंड में पहुंचा. इसका श्रेय किसे मिले, इस बहस में मैं नहीं पड़ रहा, पर यह दर्ज और स्थापित तथ्य तो है ही कि झारखंड और बिहार के लोकसभा चुनावों के बाद ही यह मुद्दा राष्ट्रीय बन पाया.
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