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खुशी तलाशे सारी दुनिया! चीन जैसा शक्तिशाली देश भी बेचैन

– हरिवंश – चीन जैसा शक्तिशाली देश भी बेचैन चीन दुनिया का आर्थिक संपन्न होनेवाला नवीनतम देश है. महाशक्ति बननेवाला. पर वहां भी बेचैनी है कि खुशी कैसे मिले? इसे लेकर आपस में बड़ी बहस है. चायना डेली, एशिया साप्ताहिक (फरवरी 24-मार्च 01, 2012) में हुआंग सेंग फन (ग्लोबल इंस्टीट्यूट अध्ययन केंद्र) ने एक लेख […]

– हरिवंश –
चीन जैसा शक्तिशाली देश भी बेचैन
चीन दुनिया का आर्थिक संपन्न होनेवाला नवीनतम देश है. महाशक्ति बननेवाला. पर वहां भी बेचैनी है कि खुशी कैसे मिले? इसे लेकर आपस में बड़ी बहस है. चायना डेली, एशिया साप्ताहिक (फरवरी 24-मार्च 01, 2012) में हुआंग सेंग फन (ग्लोबल इंस्टीट्यूट अध्ययन केंद्र) ने एक लेख ही लिखा है कि खुशहाल विकास के लिए बौद्ध अर्थशास्त्र चाहिए. वह कहते हैं कि पूरी दुनिया में विकास की मौजूदा धारा या मॉडल को लेकर विवाद है. यह धारा अपूर्ण है. विषम, हिंसक समाज को जन्म देनेवाली.
दुनिया के कई हिस्सों में वैकल्पिक माडलों (जो समाज-इंसान को खुशी दे सके) पर आर्थिक चिंतन हो रहा है. इसी संदर्भ में वह फेडरीच शुमाखर की पुस्तक ‘स्मॉल इज ब्यूटीफु ल’ की चर्चा करते हैं. 40 वर्ष पहले इस किताब ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी थी. दुनिया की पहली ऊर्जा संकट की पृष्ठभूमि में यह किताब आयी. इसके लेखक डा. शुमाखर यहूदी, रिफ्यूजी थे. वह जर्मनी से आक्सफोर्ड आये. आक्सफोर्ड और कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़े. वह ब्रिटिश नेशनल कोल बोर्ड के आर्थिक सलाहकार बने और तत्कालीन बर्मा (अब म्यांमार) भेजे गये. आर्थिक विकास सलाहकार के रूप में. वह बौद्ध मठ या बौद्ध विहार में भी ठहरे. फिर उन्होंने गैर पश्चिमी दृष्टिकोण से विकास को समझा-परखा कि प्राकृतिक संसाधनों की सीमाओं में इंटरमीडिएट टेक्नोलॉजी (मध्यम व औसज दज्रे की तकनीक) से विकास का नया द्वार खुलता है.
प्रो जान मेयर्ड कींस और प्रो जार्ज कीनिथ गेलब्रेथ, प्रो शुमाखर के गुरु-अध्यापक थे. बहुत ही सुंदर गद्य में प्रो शुमाखर ने अपनी किताब लिखी है. वह मानते हैं कि हमारे दौर का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विश्वास यह है कि हमने मान लिया है कि उत्पादन की समस्याएं हल हो गयी हैं.
वह तुरंत आधुनिक अर्थशास्त्र के इस दर्शन या स्थापना की आलोचना पर उतर गये, जो हर नयी चीज को मुद्रा (मानिटरी वैल्यू) में मापता है. उसी तरह, जैसे समग्र घरेलू उत्पाद मापा जाता है. पर हकीकत यह है कि असीमित विकास का तर्क (लाजिक आफ लिमिटलेस ग्रोथ) ही गलत है. उन्होंने साफ-साफ लिखा कि पर्यावरण या प्रकृति प्रदत्त संसाधन सीमित हैं.
उन्होंने उस जीवन दृष्टि के बारे में कहा, जो भौतिक है. महज संपत्ति एकत्र करने के पीछे जुटी है. उनके अनुसार यह दृष्टि पर्यावरण को नहीं आंकती. इससे इसकी पूरी मान्यता पर ही सवाल उठता है. आज दुनिया के अनेक जाने-माने लोग 40 वर्ष पहले प्रो शुमाखर द्वारा जनसंख्या वृद्धि और ऊर्जा संसाधनों के उपभोग पर की गयी टिप्पणी को याद कर रहे हैं. वह महज सामाजिक दार्शनिक (सोशल फिलासफर) ही नहीं थे, बल्कि व्यावहारिक दर्शक या द्रष्टा भी थे.
उनकी मशहूर पंक्ति थी, एन आउंस आफ प्रैक्टिस इज जनरली वर्थ मोर देन ए टन आफ थ्योरी (व्यावहारिक अनुभव का एक मामूली हिस्सा, एक टन सिद्धांतों से भी बेहतर है.) वह बड़ी कंपनियों या बड़ी संस्थाओं के छोटे होने का महत्व बताते और आंकते थे. उन्हीं दिनों लगभग 40 वर्ष पहले माओत्सेतुंग भी सिद्धांत और व्यवहार के आपसी सामंजस्य की बात कर रहे थे. उनका मशहूर कोट था- ‘व्यावहारिक लोगों के बीच जाइए. उनसे सीखिए. फिर उनके अनुभवों को सिद्धांतों या मत या वाद से जोड़िए. तब नये सिद्धांतों या मत या वाद को विकसित करिए. फिर परिष्कृत व्यावहारिक लोगों के बीच लौटिए. और उन्हें इस नये व्यावहारिक दर्शन या मत को व्यवहार में क्रियान्वयन के लिए कहिए, जो उनकी समस्याओं-चुनौतियों को हल कर सके और उन्हें मुक्ति और प्रसन्नता दे.’पर एक बड़ा तबका मानता है कि दुख से, अभाव से सृजन की दृष्टि मिलती है. पीड़ा या दुख, जीवन को अर्थ देते हैं.
विस्तार देते हैं. एक अलौकिक दुनिया में ले जाते हैं. संवेदना के स्तर पर दुनिया से जोड़ते हैं. अट्ठेय की महत्वपूर्ण पंक्ति है, दुख मांजता है. अपने मशहूर उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में वह दुख के दर्शन की बात करते हैं. गांधी भी प्रचुरता में जीने की बात नहीं करते थे. अभाव में आनंद की तलाश की बात करते थे.
धन व संपत्ति से वास्तविक संतुष्टि नहीं
रवींद्रनाथ टैगोर ने भी अभाव, कठिनाइयों को व्यक्तित्व के विकास के लिए जरूरी माना. अप्रैल 1902 में शांति निकेतन से उन्होंने त्रिपुरा के राजा को पत्र लिखा. उस पत्र से उनके जीवन दर्शन की झलक मिलती है.
पत्र है, आइ विश टू कीप माइ स्टूडेंट्स अवे फ्रॉम ऑल द लक्जरीज आफ यूरोपियन लाइफ ऐंड एनी ब्लाइंड इनफेचुएशन विद यूरोप. ऐंड दस लीड देम इन द वे आफ द स्केयर्ड ऐंड अनस्किल्ड इंडियन ट्रेडिशन आफ पोवर्टी (मैं अपने छात्रों को यूरोपीय जीवन-सुविधाओं से दूर रखना चाहता हूं. यूरोप के प्रति अंधमोह या लगाव से भी अलग रखना चाहता हूं. उन्हें भारत के पवित्र और सात्विक गरीबी की परंपरा में विकसित-पनपते देखना चाहता हूं.) रवींद्रनाथ टैगोर या गांधी, भारत के आधुनिक ¬षि थे. भारतीय ¬षियों-उपनिषदों ने भी सीमित साधनों में जीने के गुणों की बात की है.
परमहंस सत्यानंद का एक लेख पढ़ रहा था. योगविद्या के अंक, जनवरी 2012 में. दिसंबर 1983 का लिखा हुआ. इसमें शांति, संतुष्टि और आनंद को लेकर खूबसूरत वर्णन है.
‘पहले का जमाना राजा कर्ण का था. उस समय के लोग स्वर्ण-धन चाहते थे. लेकिन आज का जमाना बदल चुका है. दुनिया के जो धनी लोग हैं, जिनके पास अगाध पैसा है, वे बहुत तंग आ गये हैं. अब उन्हें मालूम पड़ने लगा है कि धन और संपत्ति से वास्तविक शांति और संतुष्टि नहीं मिलती है.
यह तो केवल अपने भोग का साधन है. शांति की प्राप्ति के लिए दुनिया के सभी प्राणी हाहाकार कर रहे हैं. विलायत के लोग जब अपने गद्देदार बिस्तरों और सुंदर-सुंदर कमरों के सारे सुख-प्रसाधनों को छोड़कर हिंदुस्तान में, बनारस और आगरा के प्लेटफार्मो पर सोते हैं, तो ऐसा लगता है कि या तो लोग पागल हो गये हैं या कोई और बात है. असली बात तो यह है कि जब आदमी भोग करते-करते ऊब जाता है, संपत्ति देखते-देखते ऊब जाता है, जब उसके मन में उपनिषदों का ज्ञान झलकता है, तब उसको यह मालूम पड़ता है कि संपत्ति, सुख का कारण नहीं है. संपत्ति केवल लोभ की पूर्ति का साधन है, सुख का साधन नहीं. असली सुख तो गरीबी है.
आपके अंदर ही छिपा है परम आनंद
‘संपत्ति मनुष्य के अंदर की एक मानसिक दुर्बलता है. केवल अज्ञानी लोग मृगतृष्णा की तरह संपत्ति के पीछे भागते हैं. सभी संतों और महात्माओं ने बारंबार यह बात कही है. दुनिया आज शांति की खोज में, आत्मिक सुख की खोज में दौड़ रही है. वह आत्मिक सुख का भंडार तुम्हारे अंदर के अनुभव में सन्निहित है. जिस दिन तुम बुद्धि के परे चले जाओगे, इंद्रियों के अनुभवों के परे चले जाओगे, मन के परे चले जाओगे, तब तुमको अपने अंदर के परिपूर्ण अनुभव के फलस्वरूप एक ऐसे आनंद की सजीव अनुभूति होगी, जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते.
आखिर क्या कारण है कि महात्मा लोग संसार के भोगों को छोड़कर भी आनंदित रहते हैं? क्योंकि तुम जिस आनंद को जानते हो, वह उतना ही नहीं हैं. जिस सुख को तुम जानते हो, यह उतना ही नहीं है. असली आनंद इसके भी ऊपर है. वह सभी सीमाओं से परे है. अभी तो तुमको ताजा रसगुल्ला मिला ही नहीं है, इसलिए तुम बासी पेड़ा ही खाये जा रहे हो.’
‘असली आनंद की अनुभूति घर बैठे हो सकती है. स्त्री को हो सकती है. पुरुष को हो सकती है. विवाहिता को हो सकती है. अविवाहिता को हो सकती है. ब्राrाण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र, हिंदू, मुसलमान, ईसाई-सबको हो सकती है. इसके लिए केवल एक चीज की जरूरत है. एक संत ने कहा था, आंखें बंद करो, जबान बंद करो और इसका मतलब होता है कि इंद्रियों को खींचो. जो इंद्रियां विषयों की ओर भागती हैं और तुम्हारे नियंत्रण के बिना भागती हैं, उन इंद्रियों को उनके विषयों से वापस लाओ. तुमको चौबीस घंटे वापस लाने को नहीं बोलते हैं.
हम तुमको रसोईघर बंद करने को नहीं बोलते हैं. हम तुमको तुम्हारी दुकान बंद करने को नहीं बोलते हैं. हम तुमको बाल-बच्चे, बेटा बेटी, चाची, नानी, काकी, भतीजी आदि संबंधियों को छोड़ने के लिए भी नहीं बोलते हैं. हम तुमको केवल एक बात बोलते हैं, घंटे-आधे घंटे के लिए ही सही, दुनिया को गोली मारो. उसमें कुछ नहीं रखा है. छह-सात घंटे तो गोली मारते ही हो.
नहीं मारते हो क्या? कई लोग तो बिस्तर पर दस घंटे तक पड़े रहते हैं, शेर की तरह गुर्र-गुर्र करते रहते हैं! उस समय कहां है, तुम्हारी दुकान, तुम्हारी भाभी, चाची, नानी, ताऊ और भतीजी? सब से नाता तोड़कर बेहोशी की निद्रा में पड़े रहते हो. जब तुम आठ-दस घंटे दुनिया को भूल सकते हो, तो एक घंटा और भूल जाओ. इस भूलने ओर उस भूलने में ज्यादा नहीं, केवल एक ही फर्क है.
‘जब तुम आठ घंटे तक सारी दुनिया को भूलते हो, उस समय तुमको खुद का ज्ञान नहीं रहता है. तुमको आत्मा का ज्ञान नहीं रहता, कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है.
वह है, अज्ञान निद्रा. किंतु जब तुम एक घंटा ध्यान या जप के लिए बैठते हो, तो उस समय भी तुम दुनिया को भूलते हो. फर्क इतना ही है कि उस समय आत्मचेतना, अंतर्चेतना, ज्ञान-चेतना की स्थिति बनी रहती है. महात्माओं ने समाधि और निद्रा में इतना ही तो फर्क बतलाया है. बाकी सब चीजें एक समान हैं. इन सब बातों को जानने और पाने के लिए तुम लोगों को मुंगेर की कर्णचौरा पहाड़ी पर स्थित गंगादर्शन आश्रम में अवश्य आना चाहिए.’ (स्त्रोत : योगविद्या, दिसंबर 1983)
एक सर्वे : भारत के खुशहाल शहर
नवंबर 28, 2011 के आउटलुक अंक की आमुख कथा थी : इंडियाज हैपीएस्ट सिटीज (भारत के खुशहाल शहर). दिलचस्प अंक. इसमें बताया गया था कि भारत का शहरी मध्यवर्ग (जिसके पास पैसा है और सामथ्र्य है) चाहे वह मारवाड़ी हो, गुजराती हो, दक्षिण भारतीय हो, सिंधी हो, पंजाबी हो, बंगाली हो या नवधनाढ़्य हो, वे भारत के अंदर सबसे दुखी लोग हैं.
अन्य समूह उनसे कम दुखी हैं. इस पत्रिका के इस आमुख कथा की शुरुआत होती है, हैपीनेस स्पेशल (विशेष खुशहाली) से. शीर्षक है, द ट्रोजेन हार्स आफ हैपीनेस. उपशीर्षक है, एवर सिंस जीएलआइपी, आर द ग्रेट लीप इंटू प्राफिट, हैपीनेस हैज फ्यूज्ड वीद द डिजायर फार अटैनेबुल आब्जेक्ट एंड लाइफस्टाइल्स (जीएलआइपी के बाद से द ग्रेट लीप इंटू प्राफिट यानी लंबी उछाल के बाद से हमारी खुशी उन अदृश्य इच्छाओं से जुड़ गयी, जो संभवत: दुर्लभ-दुरुह चीजों और जीवनशैली को पाना चाहती है).
अमेरिकन संविधान का तो मुख्य मकसद ही है, खुशी की तलाश. 235 वर्ष पहले अमेरिकी संविधान की शुरुआत से ही, अमेरिकी इस खुशी को तलाश रहे हैं. इसे उन्‍होंने इंसान का अविभाजित नैसर्गिक अधिकार माना है. पर अब तक खुशी उनसे उतनी ही दूर है. जब से भूटान के पूर्व राजा ने सात लाख भूटानियों की जीवन पद्धति को देखकर खुशी सूचकांक की नयी बात की, तब से पूरी दुनिया में खुशी पाने की ललक और बढ़ी है.
इस पत्रिका के अनुसार भारत में 1990 तक हालात अलग थे. 1991 के उदारीकरण के बाद रिश्ते बदल गये. बच्चों और मां-बाप के बीच रिश्ते बुनियादी तौर से पश्चिमी तौर तरीकों के हो गये. परिवार के प्रति कर्तव्य बोध पीछे चला गया. संतान या पुत्रोचित धर्म पीछे चले गये. समाज का मैकडोनाल्डीकरण हुआ. माया और लोभ का प्रभुत्व बढ़ा. त्याग और समर्पण पीछे चले गये.
इस पत्रिका के सर्वे के अनुसार, भारत का गुलाबी शहर जयपुर सबसे खुशहाल शहर है और अहमदाबाद सबसे दुखी. गुजरात में पैसा बहुत है, पर भ्रष्टाचार ने यहां की जिंदगी को दुखी किया है. लगभग एक-चौथाई शहरवासी (भारतीय) महसूस करते हैं कि उनके दुख के मूल में सरकारें हैं. इस पत्रिका के संवाददाताओं ने लोगों के मिजाज और मनोभाव को परखा. उन्होंने पाया कि गरीबी में भी खुशी है.
संघर्ष में भी खुशी है. ऐसे अनेक खुश लोगों से मिलने के बाद इस पत्रिका के संवाददाताओं का निष्कर्ष था कि हमने यह सीखा है कि पैसे से प्यार नहीं खरीदा जाता. खुशी नहीं पायी जाती. अपनी हर जरूरत और कठिनाई के बावजूद, हम अंदर से उल्लसित या प्रफुल्लित हो सकते हैं. मुंबई, बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में नयी पीढ़ी या युवकों को लगता है कि उनके बीच अपनापन नहीं है. अपनत्व बोध का अभाव है.
खुशी के नये पैमाने की तलाश
एक बार ए एडवर्ड न्यूटन ने कहा था, हैपीनेस इज टू बी वेरी बिजी विद द अनइंपार्टेंट (महत्वहीन कामों के बीच व्यस्त होना, खुशी का संकेत है). कुछेक लोगों की जींस में ही खुशी होती है. वे हर परिस्थिति में खुश रहते हैं.
इसके विपरीत, कुछेक लोग हर हाल में दुखी रहते हैं. बदलता भारत भी नये संदर्भ में अपनी खुशी तलाश रहा है. पहले त्याग, सेवा, बलिदान, नि:स्वार्थ भाव से मदद में खुशी तलाशी जाती थी. आज बदलता भारत, समृद्ध होता भारत, खुशी के नये पैमाने तलाश रहा है और इस खुशी के पैमाने की कोई एक परिभाषा नहीं है.
आज पश्चिम की दुनिया में बड़ा सवाल क्या है? पर तब से आज तक विज्ञान इसे ढ़ूंढ़ रहा है. न्यूजवीक के अंक (फरवरी 27 से मार्च 5, 2012) में मस्तिष्क के कार्यकलाप के नये खोजों की जानकारी है. द न्यू साइंस आफ फीलींग्स. इसमें उल्लेख है कि प्रसन्नता, तटस्थता, मस्तिष्क के किस हिस्से से आते हैं.
द इमोशनल लाइफ आफ योर ब्रेन में रिचर्ड जे डेविडशन ने इस पर सविस्तार चर्चा की है. अर्थशास्त्री रिचर्ड हैपीनेस किताब में यही तलाशते हैं (अध्याय 14 में). समाज के तौर पर, हम कहां हैं? 50 वर्ष पहले जितने खुशहाल थे, उतने क्यों नहीं हैं? हालांकि समाज का हर वर्ग लगातार संपन्न हो रहा है. अधिसंख्य लोगों का स्वास्थ बेहतर हो रहा है. जीवन समृद्ध हो रहा है. नये-नये मौके मिल रहे हैं. लोग लगातार अवसर की नयी भूमि में है. लेकिन हम ऐसा क्या नहीं कर पा रहे हैं, जो हमें करना चाहिए? इस सवाल को गहराई से रिचर्ड परखते हैं.
एक अर्थशास्त्री की पुस्तक में संपन्नता के बावजूद खुश न होने के कारणों की तलाश पढ़ते हुए, मुङो बालक नचिकेता की याद आयी. कठोपनिषद का प्रसंग. बालक नचिकेता को उसके पिता यम को दान दे देते हैं. नचिकेता, यम के यहां जाता है. वह नहीं हैं. भूखे-प्यासे नचिकेता तप करता है.
यम लौटते हैं और नचिकेता का संकल्प, जिज्ञासा देख खुश होते हैं. वरदान मांगने को कहते हैं. पर मृत्यु रहस्य जानने के प्रश्न के उत्तर में यम, बालक नचिकेता से कहते हैं. दुनिया के सब सुखों को ले लो, सांसारिक भोग का वरदान लो. देवताओं को जो नसीब नहीं, वे सुंदरियां, धन-दौलत ले जाओ, पर मृत्यु के बारे में मत पूछो. अद्भुत प्रसंग है, कठोपनिषद का. आज भोग में डूबे समाज को जीने का नया संदेश देता. यम कहते हैं –
गज, अश्व, स्वर्ण, पशु, भू ले लो, वे पुत्र-पौत्र लो जो हों शतायु !
संपदा मांग हे नचिकेत, जब तक जीना हो मांग आयु !
हे नचिकेत भूखंड, राज्य, धन-धान्य, दीर्घ जीवन ले लो !
रथ, वाद्य सहित ये कामिनियां, दुष्प्राय कामना अभिलाषा !
देता हूं तुझे भोग करने, बस छोड़ मृत्यु की जिज्ञासा !
(स्त्रोत : उपनिषदगीत, गीता सुगीता, लेखक : भवेशनाथ पाठक)
पर पलट कर नचिकेता जो जवाब यम (उन्हें अंतक भी कहते हैं) को देता है, वह अद्भुत है. एक सीमा (जहां आवश्यक जरूरतें पूरी हो जाती हों) के बाद यह जिज्ञासा, सवाल या प्रतिपश्न हरेक मन में उठता है. नचिकेता यम से कहता है, ‘हे अंतक ! ये सुख क्षणभंगुर, रख नृत्य, गीत, हाथी,घोड़ा, इनसे होता है तेज क्षीण, है भोग हेतु जीवन थोड़ा यानी आज जिसे भी भौतिक समृद्धि की ये सारी चीजें मिल जाती हैं, सुख-सुविधाओं के बीच इंसान डूबने-उतरने लगता है, तब उसे एहसास होता है कि ये तो क्षणभंगुर हैं. इनमें क्षणिक रस है. स्थायी नहीं. फिर मन बेचैन होता है. जीवन के मूल सवाल अंतर्मन को मथते हैं.
पश्चिम का बेचैन मानस
जीवन के मूल सवालों को जाने बिना जीवन बेचैन रहता है. इसलिए भारतीय मनीषियों ने कहा, जीने का मर्म निज केंद्रित हो, हालांकि जीवन आत्मकेंद्रित नहीं हो. भारत के मनीषियों-ऋषियों ने लंबे तप और अनुभव के बाद ये बातंे कही हैं. निष्कर्ष निकाले हैं. अपने अनुभवों की चर्चा की है. वसुधैव कुटुंबकम की कल्पना की. पर आज पश्चिम का बेचैन समाज और मानस सबकुछ पाकर, भोग के उत्कर्ष पर बैठकर, भोग के स्वर्ग में पहुंचकर भी बेचैन है. और भारत 1991 के उदारीकरण के बाद उसी पश्चिमी भोगवाद-बाजारवाद को पाने के लिए बेचैन है. एक (पश्चिम) पाकर बेचैन है, दूसरा (भारत) पाने को बेचैन है. यही है, जीवन का, संसार का खेल ! या भवसागर का चक्र, संसार की दुविधा.
टाइम्स आफ इंडिया का द क्रेस्ट संस्करण (11.02.12 – 17.02.12) में एक बातचीत है. इसी विषय पर. बातचीत की पृष्ठभूमि में उल्लेख है कि आज प्रसन्नता का बाजार पूरी दुनिया में बड़ा हो गया है. गुरु से गजट तक. किताबों से ब्लॉगस तक. कुछ लोग निश्चित तौर पर गारंटी देकर खुश होने का फॉर्मूला बेच-बता रहे हैं. इसी चर्चा के बीच पश्चिम में एक नयी किताब आयी है. इस किताब की बड़ी धूम और चर्चा है. इस पुस्तक में खुशी और प्रसन्नता को लेकर नये और आधुनिक शोध की बातें की गयी हैं. नये निष्कर्षो की चर्चा है.
नये खोजों की बात है. ज्ञानात्मक पृष्ठभूमि से चीजों को परखा गया है. चर्चा है. मनोविज्ञान-विज्ञान (काम्युनिटिव साइकालाजी साइंस) से जुड़ी चीजें हंै. इसके लेखक सिमोन एडेलमेन हैं. वह मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि से हैं. उन्होंने कहा है, मैं अनेक संभावित कारणों को पहचान सकता हूं, जिनका वर्णन मैंने अपनी पुस्तक हैपीनेस ऑफ परसूट : ह्वाट न्यूरोसाइंस कैन टीच अस एबाउट ए गुड लाइफ में की है. वह मानते हैं कि यह आसान सवाल नहीं है. बिना खुश रहे हम जीवन की लंबी दौड़ में शरीक नहीं हो सकते.
वह इस बात की भी तलाश करते हैं कि क्या पैसा और प्रसन्नता दोनों साथ-साथ रहते हैं? इनका सह-अस्तित्व कैसा है? वह कहते हैं, सामाजिक मनोविज्ञान में नोबल पुरस्कार विजेता डेनियल काहिनमेन के ताजा शोध से सिद्ध होता है कि आय के एक स्तर के बाद भावात्मक प्रसन्नता या सुरक्षा और भौतिक संपदा के बीच कोई संबंध नहीं होता या रहता है.
इस किताब को पश्चिम का बेचैन मानस, जो खुशी की तलाश में भटक रहा है, इसे एक महत्वपूर्ण कृति मानता है, आत्मदर्शन का. पर खुशी या प्रसन्नता के लिए भटकते पश्चिमी समाज की एक खास बात यह है कि खुशी और संपन्नता का बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है. करोड़ों-अरबों का. मनुष्य संपन्न है. पर बेचैन है. मनुष्य भोग की दुनिया में है, लेकिन परेशान है. कुछ वैसा ही, जैसा भगवतीचरण वर्मा की मशहूर किताब चित्रलेखा में जीवन के द्वंद्व का उल्लेख है.
भारतीय युवा पीढ़ी आज ज्यादा बेचैन
पटना (बिहार) में आयोजित एक कार्यक्रम में सिनेमा के सामाजिक सरोकार पर बोलते हुए जावेद अख्तर ने कहा, भारतीय युवा पीढ़ी आज बेचैन और परेशान है. क्यों? बच्चों की यह पीढ़ी पहले से ज्यादा संपन्न है. सूचना संपन्न. भौतिक रूप से सुखी है. स्वतंत्र है. फिर भी बेचैन है. यह जुबान और जमीन से कटी हुई पीढ़ी है. हिंदुस्तानी तहजीब, खान-पान, रहन-सहन उसे पसंद नहीं है. उनके बीच लगातार आत्महत्या, फ्रस्ट्रेशन और निराशा है.
कहां पहुंच गये हैं, हमारे बच्चे? जावेद अख्तर ने कहा, जब हम बड़े हो रहे थे, तो हमारे पहले की पीढ़ी आदर्शवादी (आइडियलजिस्ट) थी. आज भारत के शहरी मध्यवर्ग ने बहुत प्रगति की है. पर खुशहाली, सुख और प्रसन्नता की दौड़ती ट्रेन में हमने कुछ चीजें खो दी हैं. अपनी संस्कृति, मूल्य, साहित्य, हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबू, हवाओं की गंध. स्कूल-कालेजों और घर से साहित्य गायब है. संगीत भी अनुपस्थित है. किताबें गायब हैं. अगर किताबें हैं भी, तो मैनेजमेंट- इंजीनियरिंग या इंटीरियर डेकोरेशन या पर्दे से मैच करते सोफा से संबंधित.
पटना में जावेद अख्तर जी ने बड़ी महत्वपूर्ण बातें कीं. कहा, पहले का मध्यवर्ग गांवों से जुड़ा था. आज का मध्यवर्ग शहरों से जुड़ गया है. पहले साहित्य, सामाजिक संवाद, समाज को जोड़ते थे, घरों का संस्कार बनाते थे. जीवन का दर्शन गढ़ते थे. जिसके बीच से खुशी निकलती थी या सुकून मिलता था. अब स्कू ल-कालेजों में साहित्य और संगीत कहां है? घर इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट की किताबों से भर गया है. या डेकोरकशन-डिजाइन की किताबें हैं.
50 के दशक में फिल्मों का मुख्य विलेन जमींदार हुआ करता था. फिर कारखानों का मालिक हुआ. 60 के दशक में गैंगस्टर विलेन बन गये. 80 के दशक में गैंगस्टर और राजनीतिज्ञ विलेन बन गये. फिर पाकिस्तानी खलनायक विलेन बन गये. और अब तो एंटीक्लाइमैक्स है. विलेन ही हीरो है, तो यह समाज कहां जायेगा? जो समाज खलनायकों में नायकों की छवि तलाशे, वो कहीं गंभीर रूप से बीमार पड़ रहा है.
जावेद अख्तर की बातें सुनकर किशोरावस्था याद आयी. भगवतीचरण वर्मा की पुस्तक चित्रलेखा ने न जाने किशोर मन को कितनी बार बेचैन किया? सुख क्या है? जीवन का मकसद क्या है? ऐसी अनेक किताबें, कविताएं, उपन्यास, जिन्होंने जीवन के विविध आयामों को सामने रखा. युवा या विद्यार्थी दिनों में ही पढ़ना हुआ. पर आज किशोर होते बच्चों के जीवन से ये चीजें गायब हैं.
आज बच्चों की दुनिया बंद है. भौतिक सफलता है, पर जीवन के मौलिक सवालों से दरस-परस नहीं है. वह नहीं जानता कि अपार संपदा के बीच रहकर भी वह खुश रह पायेगा? वह वैलेनटाइन डे पर आत्महत्या करता है. बड़े महानगरों के अखबार पलट लीजिए. रोज जीवन से ऊबे युवा-युवतियों के ऐसे दास्तान मिलेंगे, जो अंदर स्पर्श करते हैं. जीवन से निराश, अवसाद से भरे जीवन या प्रेम की तलाश में लगातार आत्महत्याएं बढ़ रही हैं. युवा बेचैन हैं, पर उन्हें रास्ता नहीं मिल रहा.
जारी..
दिनांक 21.10.2012

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