पाकिस्तान के नये राष्ट्रपति
ममनून हुसैन अब पाकिस्तान के नये राष्ट्रपति हैं. भारत में हुसैन के नाम की चर्चा तभी शुरू हो गयी थी, जब उन्होंने इस पद के लिए अपना नामांकन भरा. सवाल है कि आगरा में जन्में ममनून का भारतीय लिंक क्या वाकई कोई शुभ संकेत है .
-विभाजन के पहले परिवार आगरा में रहता था
-1940 में यहीं जन्में थे पाक के नये राष्ट्रपति
।। ब्रजेश कुमार सिंह।।
(संपादक-एबीपी न्यूज, गुजरात)
ममनून हुसैन ने पाकिस्तान का राष्ट्रपति पद औपचारिक तौर पर संभाल लिया है. वो पाकिस्तान के 12वें राष्ट्रपति बन गये हैं. जाहिर है, अब भारत के लोग उम्मीद कर रहे हैं कि हुसैन पाकिस्तान के राष्ट्रपति की भूमिका में भारत-पाक संबंधों को सुधारने की कोशिश करें. दरअसल इस उम्मीद की कुछ वजहें भी हैं. सबसे बड़ी वजह तो ये है कि हुसैन का ताज नगरी आगरा से गहरा रिश्ता रहा है. भारत विभाजन के पहले उनका परिवार इसी शहर में रहता था और आगरा में ही 1940 में उनका जन्म हुआ. विभाजन के बाद हुसैन का परिवार 1949 में पाकिस्तान के कराची शहर गया. जहां तक उनके शुरुआती जीवन का सवाल है, उनकी पढ़ाई कराची के एक मदरसे में हुई, और बाद में उन्होंने 1965 में इंस्टीट्यूट ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन से एमबीए भी किया. इसके बाद हुसैन ने कारोबार शुरू किया और कपड़ों के धंधे में वो सक्रि य रहे. कराची चेंबर ऑफ कॉमर्स के प्रमुख भी रहे हैं ममनून हुसैन.भारत में हुसैन के नाम की चर्चा तभी शुरू हो गयी थी, जब उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरा.
हुसैन वैसे तो नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल -एन से लंबे समय से जुड़े रहे हैं, लेकिन जब उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरा, तब लोगों की नोटिस में वो आये. नवाज के पुराने वफादार रहे ममनून जून 1999 में सिंध के गवर्नर भी बने, लेकिन जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट किया, तो हुसैन को भी अपने पद से हाथ धोना पड़ा.
खैर, नवाज शरीफ की फिर से सत्ता में वापसी के बाद ममनून हुसैन के भी दिन बदले. शरीफ ने उन्हें अपनी पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया. शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन का जिस तरह का दबदबा नेशनल एसेंबली और प्रांतीय विधानसभाओं में है, हुसैन के राष्ट्रपति चुने जाने को लेकर कोई संदेह नहीं था. हालांकि जब उन्होंने नामांकन भरा, तो एक छोटा-सा विवाद जरूर उठ खड़ा हुआ. राष्ट्रपति पद के ही एक और उम्मीदवार जहूर हुसैन ने ये कहते हुए ममनून का नामांकन रद्द करने की मांग कर दी कि वो दाढ़ी नहीं रखते और ये इसलामी रीति-रिवाज का उल्लंघन है. जहूर हुसैन का तर्क था कि पाकिस्तान जैसे इसलामी देश का राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवार की दाढ़ी तो होनी ही चाहिए.
हालांकि ये तर्क देते समय जहूर को ये ध्यान में नहीं रहा कि मुहम्मद रफीक तरार को छोड़ कर शायद ही किसी पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने कभी दाढ़ी रखी हो. वहां जिस सेना के पास असली ताकत है, उसके किसी प्रमुख ने भी कभी दाढ़ी नहीं रखी, यहां तक कि मुल्ला जनरल के नाम से मशहूर जियाउल हक तक ने नहीं. खैर, पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने जहूर हुसैन के तर्कको खारिज करते हुए ममनून हुसैन का नामांकन वैध रखा और आखिरकार वो राष्ट्रपति का चुनाव जीत भी गये.
लेकिन ममनून का भारतीय लिंक क्या वाकई भारत के लिए कोई शुभ संकेत है. अगर पाकिस्तान के करीब साढ़े छह दशक लंबे इतिहास को देखें, तो भारतीय लिंक वाले पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपति या सेनाध्यक्षों का रुख भारत के लिए कभी सकारात्मक नहीं रहा. मोहम्मद अली जिन्ना का जन्म वैसे तो कराची में हुआ था, लेकिन उनका परिवार काठियावाड़ का रहने वाला था, जो आज के भारतीय राज्य गुजरात का हिस्सा है. जिन्ना ने भारत का विभाजन कराया और मुसलिमों के लिए अलग देश पाकिस्तान का निर्माण कराया और इस तरह इसके संस्थापक बने. पाकिस्तान जब अस्तित्व में आया, तो इसके पहले प्रधानमंत्री बने लियाकत अली खान. लियाकत का जन्म करनाल में हुआ था, जो फिलहाल हरियाणा का हिस्सा है. लियाकत अली का रु ख भी भारत के खिलाफ आक्र ामक ही रहा. यही लियाकत जब अविभाजित भारत में अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री थे, तो कांग्रेस कोटे वाले मंत्रियों की अधिकांश आर्थिक मांगों को खारिज कर देते थे. लियाकत अली का रु ख इतना अड़ंगे वाला रहा कि नेहरू और सरदार पटेल दोनों इस बात को मानने के लिए मजबूर हो गये कि मुसलिम लीग के साथ संयुक्त सरकार चलाना संभव नहीं और इससे बेहतर है भारत का विभाजन. पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के साथ ही कश्मीर मसले को लेकर जो पहली लड़ाई दोनों देशों के बीच हुई, उसका कारण भी बने. पाकिस्तानी कबाइली घुसपैठ की साजिश रचने में भी लियाकत अली की भूमिका थी. हालांकि पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के चार साल के अंदर ही ये दोनों नेता सियासी परिदृश्य से गायब हो गये. लंबी बीमारी के बाद 12 सितंबर, 1948 को जिन्ना मर गये, तो 16 अक्तूबर, 1951 को कराची में एक सभा के दौरान लियाकत की छुरा मार कर हत्या कर दी गयी.
जिन्ना और लियाकत अली के बाद पाक की राजनीति में भारतीय लिंक वाले जिस शख्स ने अपनी जगह बनायी, वो थे जियाउल हक. विभाजन के समय महज कैप्टन रहे जियाउल का जन्म जालंधर में हुआ था और उन्होंने ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से शिक्षा हासिल की थी. इसी जियाउल हक को 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान सेना का प्रमुख बनाया. हक ने कुरान पर हाथ रख कर भुट्टो के प्रति वफादारी की कसम खाई थी. भुट्टो ने इस भरोसे में कि जियाउल हक कभी उनके लिए खतरा नहीं बन सकते, आठ वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार कर पाक सेना की कमान उन्हें सौंपी. भुट्टो को ये भी लगा कि मोहाजिर होने के कारण पाकिस्तान में जियाउल का अपना कोई क्षेत्रीय या जातीय समर्थन नहीं होगा और ऐसे में वो कभी तख्तापलट के बारे में सोच नहीं सकते. लेकिन जनरल जियाउल हक ने महज एक साल के अंदर यानी चार जुलाई, 1977 को पाकिस्तान में तख्तापलट कर डाला और भुट्टो को जेल में डाल दिया. जजों से अपने शासन के प्रति वफादारी की कसम खिलवा कर हक ने भुट्टो के खिलाफ मामला चलवाया और चार अप्रैल 1979 को भुट्टो को फांसी के तख्ते पर भी चढ़वा दिया. इसके बाद हक ने न सिर्फ17 अगस्त 1988 तक लगातार पाकिस्तानी सेना की कमान अपने हाथ में रखी, बल्कि राष्ट्राध्यक्ष भी वो बने रहे, कभी मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर के तौर पर तो कभी राष्ट्रपति के तौर पर. अपने करीब 12 साल लंबे कार्यकाल के दौरान जियाउल हक ने भारत के खिलाफ लगातार साजिश रची. भारतीय राज्य पंजाब में जहां एक तरफ सिख आतंकवाद को बढ़ावा दिया, वही कश्मीर में आतंकी हिंसा की शुरुआत करायी. भारत के खिलाफ प्रॉक्सी वार शुरू करने का श्रेय भी जियाउल हक को ही जाता है. यहां तक कि सेना के इसलामीकरण के साथ ही मदरसों का सिलसिला भी जियाउल के समय में ही बढ़ा, जिसमें जेहाद का भाषण पीकर आतंकियों का दस्ता तैयार होता रहा.
हक की विमान हादसे में मौत के बाद जिस शख्स के हाथ में पाक सेना की कमान आयी, उसका भी भारतीय लिंक था. जियाउल हक के समय में पाकिस्तानी सेना के उप प्रमुख रहे मिर्जा असलम बेग जियाउल हक की मौत के बाद सेना प्रमुख बने. असलम बेग का जन्म यूपी के आजमगढ़ के मुसलिम पट्टी गांव में 1931 में हुआ था. बेग की आरंभिक पढ़ाई भी आजमगढ़ के शिबली कॉलेज में हुई. 1949 में बेग का परिवार पाकिस्तान गया. करीब तीन साल तक पाकिस्तान सेना के प्रमुख रहे असलम बेग ने भी भारत के प्रति दोस्ती का रु ख अपनाने की कोई कोशिश करने की जगह 1989 में जर्बे-ए-मोमिन नामक भारी-भरकम सैन्य प्रशिक्षण अभियान शुरू किया. इस ऑपरेशन का मकसद भारत के खिलाफ युद्ध की स्थिति में सुरक्षा की जगह आक्रामक तरीका अख्तियार करने की रणनीति बनाना था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.) जारी..